UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 3 Akbar: The Great

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 3 Akbar: The Great

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 3
Chapter NameAkbar: The Great (अकबर महान)
Number of Questions Solved26
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 3 Akbar: The Great (अकबर महान)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 15 अक्टूबर, 1542 ई०
2. 5 नवम्बर, 1556 ई०
3. 14 फरवरी, 1556 ई०
4. 25 अक्टूबर, 1605 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-54 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्यया असत्य बताइए
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 54 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-55 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 55 व 56 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ क्या थीं?
उतर.
अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ निम्नलिखित थीं|

  1. साम्राज्य के प्रतिद्वन्द्वी
  2. मुगलों का विदेशीपन
  3. सम्बन्धियों का विश्वासघात

प्रश्न 2.
पानीपत के द्वितीय युद्ध के परिणामों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उतर.
पानीपत का द्वितीय युद्ध सन् 1556 ई० में अकबर और हेमू के बीच हुआ। इस युद्ध में अकबर की विजय के साथ भारत में मुगलों की स्थिति सुदृढ़ हो गई तथा हिन्दुस्तान की सत्ता पर अफगानों का अधिकार सदैव के लिए समाप्त हो गया। विजयी सेनाओं ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया गया।

प्रश्न 3.
अकबर के मृत शरीर को कहाँ दफनाया गया था?
उतर.
अकबर के मृत शरीर को आगरा से 5 मील दूर उसी के द्वारा बनवाए गए सिकन्दराके मकबरे में दफनाया गया।

प्रश्न 4.
हल्दी घाटी का युद्ध किस-किस के बीच हुआ और इस युद्ध में कौन विजयी हुआ?
उतर.
हल्दी घाटी का युद्ध मेवाड़ के शासक और राणा उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रतापसिंह तथा अकबर की सेना के मध्य सन् 1576 ई० में हुआ। इस युद्ध में मुगलों की विजय हुई।

प्रश्न 5.
अकबर की सुलह-कुल नीति क्या थी? इसका क्या परिणाम हुआ?
उतर.
अकबर की सुलह-कुल नीति एक धार्मिक उदार नीति थी। जिसके द्वारा अकबर ने भारत में धर्मों एवं सम्प्रदायों में एकता, समन्वय एवं धार्मिक सहिष्णुता को स्थापित किया। इस नीति से मुगल साम्राज्य स्थायित्व एवं दृढ़ता प्राप्त कर सका।

प्रश्न 6.
अकबर की दक्षिण नीति के बारे में आप क्या समझते हैं?
उतर.
अकबर ने अपने साम्राज्य के विस्तार एवं भारत को राजनीतिक इकाई में परिवर्तित करने के उद्देश्य से दक्षिण भारत के राज्यों से युद्ध करने से पूर्व राजदुतों द्वारा आज्ञा-पत्र भेजकर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए कहा। खान देश के शासक अली खाँ ने अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, किन्तु अन्य राज्यों के शासकों ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

प्रश्न 7.
अब्दुल फजल द्वारा लिखित दो फारसी ऐतिहासिक ग्रन्थों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
अब्दुल फजल द्वारा लिखित दो फारसी ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘अकबरनामा’ एवं ‘आइन-ए-अकबरी’ हैं। इन ग्रंथों में अकबर के राज्यकाल की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन मिलता है। दोनों ग्रंथ अकबर की प्रशंसा से भरे हैं।

प्रश्न 8.
टोडरमल कौन था और वह क्यों प्रसिद्ध था?
उतर.
टोडरमल अकबर का दीवान-ए-अशरफ अर्थात भू-विभाग का अध्यक्ष था। कुछ समय तक वह अकबर का वजीर भी रहा। टोडरमल भूमि सुधार एवं राजस्व प्रबंध में किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रसिद्ध था।

प्रश्न 9.
अकबर के दीन-ए-इलाही’ की चार विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उतर.
अकबर के दीन-ए-इलाही की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. दीन-ए-इलाही के अनुसार ईश्वर एक है और अकबर उसका सबसे बड़ा पुजारी एवं पैगम्बर है।
  2. दीन-ए-इलाही के अनुयायियों को अच्छे कार्य करने और सूर्य व अग्नि के प्रति श्रद्धा रखने के आदेश दिए गए थे।
  3. दीन-ए-इलाही के सदस्य को मांस खाना वर्जित था।
  4. दीन-ए-इलाही में सब धर्मों के अच्छे सिद्धान्त थे और यह दार्शनिकता, प्रकृति-पूजा और योग का सम्मिश्रण था। इसका आधार विचार पूर्ण था और इसमें कोई कट्टरपन देवी-देवता अथवा धर्मगुरु नहीं थे।

प्रश्न 10.
अकबर द्वारा निर्मित दो भवनों के बारे में लिखिए।
उतर.
अकबर द्वारा निर्मित दो भवन निम्नवत हैं
आगरा का किला – अकबर ने लाल पत्थरों से आगरा का भव्य किला बनवाया। इस किले में उसने 50 इमारतें बनवाईं जिसमें जहाँगीरी महल सबसे सुन्दर है। बुलन्ददरवाजा-अकबर ने अपनी नई राजधानी फतेहपुर सीकरी में अनेक भवन बनवाए जिनमें बुलन्द दरवाजा विश्वविख्यात है।

प्रश्न 11.
पानीपत के द्वितीय युद्ध के महत्व का वर्णन कीजिए।
उतर.
पानी के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में मुगलों की स्थिति सुदृढ़ हो गई और मुगल वंश 1887 ई० तक भारत में जमा रहा। भारत की सत्ता पर सूर वंश का अधिकार सदा के लिए समाप्त हो गया। विजयी सेना ने दिल्ली और आगरा पर शीघ्र अधिकार कर लिया।

प्रश्न 12.
अकबर की धार्मिक नीति स्पष्ट कीजिए।
उतर.
अकबर ने धर्म-सहिष्णुता की नीति अपनाई। अकबर की महानता उसकी धार्मिक नीति पर आधारित है। उसने तुर्क-अफगान शासकों की धार्मिक विभेद की नीति के स्थान पर उदार नीति अपनाई तथा सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों में एकता और समन्वय स्थापित किया और धार्मिक विद्वेष, वैमनस्य एवं कटुता को समाप्त कर एक संगठित राष्ट्र के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया।

प्रश्न 13.
“अकबर एक राष्ट्रीय शासक था।” विवेचना कीजिए।
उतर.
अकबर ने जिन उदार और नवीन सिद्धान्तों को जन्म दिया उनका इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान हैं उसने सम्पूर्ण प्रजा के साथ शासन के सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार किया। धर्म, जाति और वंश के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया। अकबर प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने हिन्दू-मुसलमानों को निकट लाने का प्रयास किया। दूसरी ओर शासन-प्रणाली, न्याय व्यवस्था, मालगुजारी बन्दोबस्त, एक राज्य भाषा, एक मुद्रा व्यवस्था की स्थापना की। इस प्रकार अकबर की नीति, भावना एवं प्रयास उसे राष्ट्रीय शासक के निकट पहुँचाते हैं।

विस्तृत उत्तरीय

प्रश्न 1.
“मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की, परन्तु उसका विकास एवं सुदृढ़ीकरण अकबर ने किया।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर.
मुगल साम्राज्य की स्थापना काबुल के शासक एवं अकबर के दादा बाबर ने की। पानीपत तथा खानवा के युद्धों में उसने भारत की दोनों प्रमुख शक्तियों को पराजित करके उनका विनाश करने का प्रयास किया था। किन्तु बाबर द्वारा भारत की विजय केवल एक सैनिक विजय थी; अत: वह स्थायी नहीं हो सकी, इस दृष्टिकोण से बाबर मुगल वंश की स्थापना करने में सर्वथा असफल रहा। वह केवल एक वीर विजेता था, परन्तु शासक के गुणों का उसमें सर्वथा अभाव था। उसने साम्राज्य की विशृंखलता एवं अव्यवस्था को ठीक करने का कोई प्रयास नहीं किया तथा अपने पुत्र हुमायूं के मार्ग में उसने भयंकर काँटे बो दिए, जिनके कारण हुमायूँ को जीवन भर संघर्ष करना पड़ा। हुमायूँ ने 15 वर्ष के निर्वासन के पश्चात जब भारत पर पुनः अधिकार किया तो कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार अकबर को अव्यवस्थित और नाममात्र का राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था, जिसे अपने चारित्रिक गुणों से उसने विशाल एवं सुदृढ़ बनाया। उसने सम्पूर्ण भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की। जीवन भर कठोर परिश्रम करके अपने उत्तराधिकारियों के लिए उसने जो राज्य छोड़ा, वह इतना दृढ़ तथा शक्तिशाली था कि भयंकर आघात सहन करके भी लगभग 200 वर्षों तक चलता रहा। मुगल शासकों में ही नहीं सम्पूर्ण मध्ययुग के भारतीय शासकों में अकबर को श्रेष्ठ स्थान किया गया है।

मुगल साम्राज्य को भारत में स्थायित्व के साथ संस्थापित करने का श्रेय निश्चय की अकबर को है। उसने राजस्व और शासन में जिन नवीन तत्त्वों एवं उदार सिद्धान्तों का भारतीय परिवेश के साथ समन्वय किया, वह निश्चय ही अतुलनीय है। उससे पूर्व कोई मुसलमान शासक इतने वृहत् स्तर पर ऐसा नहीं कर सका। उसकी सुलह-कुल की नीति ने उसे एक राष्ट्रीय शासक के निकट ला खड़ा किया। अकबर से पहले शेरशाह ने प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया था परन्तु शेरशाह को थोड़ा समय मिला। शेरशाह के विपरित अकबर को अपनी नीति और प्रभाव को देखने के लिए एक लम्बा समय प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त, वह निश्चय ही शेरशाह की तुलना में अधिक उदार दृढ़, नीतिज्ञ और विशाल दृष्टिकोण वाला सिद्ध हुआ। उसकी उदार एवं व्यावहारिक नीति के कारण उसके वंशों को भिन्न धर्मावलम्बियों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त हुआ।

इसी में अकबर की महानता थी। अकबर की मौलिक योग्यता और सफलताओं की तुलना तत्कालीन यूरोपीय शासकों से करने पर उसकी श्रेष्ठता स्थापित होती है। अकबर के चरित्र और उसके कार्यों के बारे में मतभेद हो सकते हैं। कुछ उसे राष्ट्रीय शासक, श्रेष्ठ व्यवस्थापक एवं प्रबन्धक मानते हैं तो कुछ उसे ऐसा नहीं मानते हैं। वे अकबर की चन्द गलतियों एवं कतिपय बुराइयों की ओर ध्यान खीचते है। तथा इस ओर ध्यान देने में असफल रहते हैं कि अकबर ने ही मध्ययुग में सम्पूर्ण प्रजा के साथ शासन के सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार अपनाने की प्राचीन भारतीय शासकों के आदर्श का अनुसरण किया। धर्म, जाति एवं वंश के आधार पर इससे अधिक उन्मीद करना बेईमानी होगी। अकबर की शासन-व्यवस्था ऐसी थी जिसमें उसके सभी नागरिक अपने को एक राज्य का नागरिक मान सकते थे और राज्य से समान सुविधाओं और सुरक्षा की आशा कर सकते थे।

प्रश्न 2.
अकबर की राजपूत नीति की विवेचना कीजिए।
उतर.
अकबर की राजपूत नीति – अकबर एक दूरदर्शी सम्राट था। उसने शीघ्र समझ लिया कि राजपूतों की सहायता के बिना हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य स्थायी नहीं रह सकता तथा उनके सक्रिय सहयोग के बिना कोई सामाजिक अथवा राजनैतिक एकता सम्भव नहीं हो सकती। अत: उसने प्रेम, सहानुभूति तथा उदारता से राजपूतों के हृदय को जीतकर उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। इस नीति के परिणामस्वरूप अकबर मुगल साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ कर सका। अकबर की उदार राजपूत नीति अपनाने के कारण- अकबर द्वारा राजपूतों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखने के निम्नलिखित कारण थे

(i) व्यक्तिगत कारण – राजनीतिक एवं साम्राज्यवादी दृष्टिकोण के अतिरिक्त अकबर की राजपूत नीति के व्यक्तिगत कारण भी थे। अकबर ने अनुभव किया था कि उसके बड़े-से-बड़े पदाधिकारी अत्यन्त स्वार्थी हैं तथा वे समय पड़ने पर सदा विद्रोह करने को तत्पर रहते हैं। राज्यारोहण के बाद ही उसने देखा कि उसके सम्बन्धी तथा संरक्षक विश्वसनीय नहीं हैं। उसका भाई मिर्जा मुहम्मद हकीम, उसका संरक्षक बैरम खाँ, उसकी धाय माँ माहम अनगा तथा उसका (माहम अनगा का) पुत्र आधम खाँ सभी शक्ति हस्तगत करने को इच्छुक थे और उन्हें अकबर की कोई चिन्ता न थी। इसी प्रकार भारतीय मुसलमानों पर भी अकबर विश्वास नहीं कर सकता था।

अतः एक कुशल एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते अकबर इस निर्णय पर पहुँचा कि राजपूत ही सबसे अधिक विश्वस्त एवं वीर जाति है, जो एक बार वचनबद्ध होकर कभी धोखा नहीं देती है और उस पर पूरा विश्वास किया जा सकता है। वीरता में भी राजपूत जाति अद्वितीय थी, जिसका उपयोग अकबर अपने हित के लिए कर सकता था। अत: अन्त में उसने राजपूतों एवं मुगलों की शत्रुता का अन्त करने का निश्चय किया, जो कि उसके पिता एवं पितामह के समय से चली आ रही थी। अकबर का यह विश्वास था कि राजपूतों के सहयोग के बिना न तो कोई सुदृढ़ साम्राज्य भारत में स्थापित किया जा सकता है। और न ही उसे स्थायी बनाया जा सकता है; अतः उसने निश्चय किया कि उसका साम्राज्य हिन्दू एवं मुसलमान दोनों जातियों के सहयोग से तथा दोनों के हित पर आधारित होगा। वह चाहता था कि राजपूत तथा हिन्दू मुगलों को विदेशी न समझकर भारतीय समझे।

इस कारण उसने प्रमुख राजपूत राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए, जिससे राजपूतों तथा मुगलों के सम्बन्ध दृढ़ हो जाएँ। राजपूतों तथा हिन्दुओं के लिए उसने उच्च से उच्च पदों के द्वार खोल दिए। योग्यता के अनुसार पदों का वितरण किया गया, धर्म अथवा जाति के आधार पर नहीं। हिन्दुओं की प्रतिष्ठा, सम्पत्ति एवं जीवन की सुरक्षा का भार राज्य ने सँभालने का निश्चय किया तथा हिन्दुओं की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अकबर ने उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता भी प्रदान की। उसके हरम में उसकी हिन्दू रानियों को अपने धर्म का पालन करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। अकबर स्वयं भी कभी-कभी तिलक लगाता एवं सूर्य की उपासना करता था। इस प्रकार उसने राजपूतों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करके उनका पूरा सहयोग प्राप्त किया।

(ii) राजनीति तथा साम्राज्यवादी दृष्टिकोण – अकबर एक दूरदर्शी तथा साम्राज्यवादी सम्राट था। वह यह भली प्रकार जानता था कि उसके पूर्व के मुस्लिम सुल्तानों के वंशों का अल्पकालीन होने का एक प्रमुख कारण राजपूतों की शत्रुता थी। वीर राजपूत जाति अभी तक मुसलमानों को अपना शत्रु समझती थी तथा उनको देश के बाहर निकालने के लिए प्रयत्नशील थी। खानवा के युद्ध में राणा साँगा के नेतृत्व में राजपूतों ने एक महान् किन्तु असफल प्रयास इसीलिए किया था। अकबर यह भी जानता था कि राजपूत स्वभाव के सच्चे, ईमानदार एवं स्वामिभक्त होते हैं और उनको मित्र बनाकर भारी लाभ प्राप्त किया जा सकता है, अत: एक कुशल कूटनीतिज्ञ की दृष्टि से अकबर ने राजपूतों को मुगलों का मित्र बनाने में अपने तथा अपने वंश का कल्याण समझा। इसी उद्देश्य को लेकर उसने ‘राजपूत नीति’ को जन्म दिया। किन्तु अकबर की राजपूत नीति का केवल यही एकमात्र कारण नहीं था जैसा कि कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। वास्तव में यदि यही एक कारण रहा होता तो अकबर के पाखण्ड का भण्डाफोड़ उसके जीवनकाल में कभी-न-कभी अवश्य हो गया होता और राजपूतों के सहयोग को प्राप्त करने में वह असफल रहता। अकबर यह जानता था कि बलबन, अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक जैसे वीर एवं योग्य सुल्तान भी भारत में स्थायी राज्य स्थापित नहीं कर सके थे। इसका प्रमख कारण राजपत थे, जिनके साथ सल्तानों का व्यवहार हमेशा शत्रतापर्ण रहा था। अतः यदि इन रा मैत्रीपर्ण व्यवहार किया जाए तो इनकी शक्ति का उपयोग मगल साम्राज्य को दृढ़ बनाने के लिए किया जा सकता है। इस
दृष्टिकोण से अकबर ने राजपूतों के प्रति सहृदयता एवं मैत्रीपूर्ण व्यवहार का नीति को जन्म दिया।

राजपूत नीति सम्बन्धी कार्य – अकबर ने राजपूतों से निकट का सम्बन्ध स्थापित करने तथा उन्हें प्रेमपूर्वक तथा सद्भावना सहित अपनी अधीनता स्वीकार करने हेतु जो ढंग अपनाए वे प्रधानतया चार प्रकार के थे
(i) धार्मिक सहिष्णुता की नीति – अकबर ने हिन्दुओं को पूर्णत: धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की, यहाँ तक कि उसके हरम की हिन्दू स्त्रियों को मूर्ति पूजा करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। अकबर स्वयं भी कभी-कभी हिन्दुओं के रीति-रिवाजों को मनाता था। उसने तीर्थ यात्रा कर तथा जजिया कर हटा दिया, अत: राजपूत ऐसे सम्राट को सहयोग देने को सहर्ष प्रस्तुत हो गए, जो उनके धर्म तथा गुणों को मान्यता एवं प्रतिष्ठा प्रदान करता था।

(ii) उच्च पदों पर नियुक्ति – अकबर ने उच्च पदों के द्वार सबके लिए खोल दिए। उसने योग्यता के आधार पर, धार्मिक भेदभाव किए बिना, पदों का वितरण किया। उसके नवरत्नों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मावलम्बी सम्मिलित थे। उसने कछवाहा-नरेश बिहारीमल को पंचहजारी मनसबदार बनाया तथा उसके पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह को भी सेना एवं प्रशासन सम्बन्धी उच्च पद प्रदान किए। अकबर के अन्य हिन्दू पदाधिकारियों में राजा टोडरमल तथा राजा बीबरल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अकबर ने 1582 ई० में राजा टोडरमल को दीवान-ए-अशरफ अर्थात भू-विभाग का अध्यक्ष बना दिया। राजा बीरबल को उसने अपने नवरत्नों में स्थान दिया और उन्हें सेनापति का भार सौंपकर अपनी साथ नीति को आगे बढ़ाया। जनता ने बीरबल को विनोदप्रियता का प्रतीक मानकर अकबर-बीरबल सम्बन्धी हजारों-लाखों किंवदन्तियाँ गढ़ लीं। इस प्रकार उसकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई। यही नहीं, अकबर की सेना में भी आधे हिन्दू थे तथा उनमें से अनेक सेना में उच्च पदों पर आसीन थे। अकबर ने बाद में यह अनुभव किया कि हिन्दुओं एवं राजपूतों पर विश्वास करके उसने कोई भूल नहीं की थी।

(iii) वैवाहिक सम्बन्ध – अकबर ने प्रमुख राजपूत राजवंशों की राजकुमारियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए, जिससे राजपूतों के साथ अपने सम्बन्ध सुदृढ़ करने में अकबर को सहायता प्राप्त हुई। नार्मन जीग्लर तथा डिक हर्बर्ट आरनॉल्ड कोफ के अनुसार, राजस्थान तथा अन्य स्थानों पर राजपूत सरदारों के साथ राजनीतिक सम्बन्धों को निश्चित रूप प्रदान करने में इन वैवाहिक सम्बन्धों का विशिष्ट योगदान था। डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में- “इन वैवाहिक सम्बन्धों से भारत के राजनीतिक इतिहास में एक नए युग का प्रादुर्भाव हुआ। इससे देश को प्रसिद्ध सम्राटों की एक परम्परा प्राप्त हुई और मुगल साम्राज्य की चारों पीढ़ियों को मध्यकालीन भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों और योग्य राजनीतिज्ञों की सेवाएँ प्राप्त होती रही।

(iv) अनाक्रमण तथा सामाजिक सुधार – अकबर ने अन्य राज्यों को आत्मसात करने तथा उन पर आक्रमण करने की नीति का परित्याग कर दिया। उसने अपने धन व शक्ति को जनता के कल्याण में लगा दिया। अकबर ने मुस्लिम समाज के साथसाथ हिन्दू समाज के दोषों के निराकरण का भी प्रयास किया, जिससे वह हिन्दुओं के और भी निकट आ गया। उसने अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देकर देहज प्रथा, सती प्रथा, जाति की जटिलता, बाल-विवाह, शिशु हत्या आदि का विरोध किया तथा इनको सुधारने के लिए नियम भी बनाए। उसने विधवा पुनर्विवाह को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। 1562 ई० के आरम्भ से ही उसने राजाज्ञा देकर युद्धबन्दियों को गुलाम बनाने की प्रथा पर रोक लगा दी। मथुरा के तीर्थयात्रियों पर कर लगाना उसे अनुचित लगा, अतः 1563 ई० में उसने सर्वत्र यात्री-कर समाप्त करने का आदेश दिया। फिर 1564 ई० में उसने जजिया कर को बन्द करवा दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण देश के एक विशाल बहुमत की सहानुभूति और शुभकामनाएँ उसे प्राप्त हो गई। अबुल फजल ने लिखा है – “इस प्रकार सम्राट ने लोगों के आचरण को सुधारने का प्रयास किया।

अकबर की राजपूत नीति के परिणाम – अकबर की राजपूत नीति से मुगल साम्राज्य की बहुमुखी उन्नति हुई। राज्य का विस्तार हुआ, शासन व्यवस्था सुदृढ़ हुई, व्यापार को प्रोत्साहन मिला और सैनिक सम्मान में वृद्धि हुई। इन सबके परिणामस्वरूप देश समृद्ध हुआ और सम्राट को राष्ट्र के निर्माण में राजपूतों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ।

(i) मुगलों की शक्ति में वृद्धि – अकबर की सहिष्णुतापूर्ण नीति मुगल वंश के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुई। युद्ध कौशल में दक्ष राजपूतों से मैत्री-सम्बन्ध जोड़कर अकबर ने एक बहुत बड़ा लाभ यह उठाया कि अब उसे कुशल सैनिकों की भर्ती के लिए पश्चिमोत्तर प्रान्तों का मुँह नहीं ताकना पड़ता था। इससे मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हो गई तथा अकबर के उत्तराधिकारी जब तक इस सहिष्णतापर्ण नीति का अनसरण करते रहे तब तक मगल चलता रहा। इस नीति का परित्याग करते ही मगल वंश का पतन आरम्भ हो गया।

(ii) सद्भावना की प्राप्ति – अकबर की राजपूत नीति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि राजपूत, जो अभी तक मुसलमानों के शत्रु रहे थे तथा जिनसे सभी मुस्लिम सुल्तानों को युद्ध करने पड़ते थे, अब मुगल साम्राज्य के आधार स्तम्भ बन गए। अकबर ने अपनी उदार राजपूत नीति के फलस्वरूप न केवल राजस्थान पर अपना सुदृढ़ अधिकार स्थापित कर लिया, वरन् राजपूतों की सहायता से उसने भारत के विभिन्न मुस्लिम राज्यों तथा पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ राज्यों को पराजित करने में भी अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।

(iii) विद्रोह दमन में सहायता – इतना ही नहीं; विद्रोही राजपूत राज्यों को दबाने में भी उसने मित्र राजपूत राज्यों से पूरी-पूरी सहायता प्राप्त की। पूर्वी और दक्षिणी विजयों में भी अकबर को राजपूतों से पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई।

(iv) राज्य–विस्तार – मेवाड़ के अतिरिक्त राजस्थान के सभी राज्य अकबर के अधीन हो गए। मेड़ता और रणथम्भौर जैसे राज्यों ने भी युद्ध के उपरान्त मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। आमेर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर आदि राज्यों ने अकबर से मित्रता कर ली, जिनको देखकर छोटे-छोटे राज्य जैसे प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा, दुर्गापुर आदि बिना युद्ध के ही अकबर के अधीन हो गए। मेवाड़ के महाराणा प्रताप को इन्हीं राजपूतों की सहायता से अकबर ने 1576 ई० में पराजित किया। अन्य छोटे-छोटे राज्यों को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कराने का श्रेय भी मुख्यत: उन्हीं राजपूतों को है, जो अकबर के सेनापति के रूप में कार्य कर रहे थे, अतः यथाशीघ्र सम्पूर्ण उत्तर भारत में अकबर की वीरता की धाक जम गई और दूसरी और उसकी उदारता का भी व्यापक प्रचार हो गया। अकबर ने राजपूतों की सहायता से केवल एक विशाल साम्राज्य ही अर्जित नहीं किया वरन् उसकी सुव्यवस्थित शासनव्यवस्था भी राजपूतों के सहयोग का ही परिणाम थी। उसने हिन्दुओं को योग्यतानुसार उच्च पदों पर आसीन किया तथा उनकी योग्यता का पूरा लाभ उठाया। राजा टोडरमल उसकी भूमि-व्यवस्था के लिए उत्तरदायी थे, जिनके द्वारा शासक तथा शासित दोनों वर्गों को भारी लाभ पहुँचा। इस प्रकार उसका जाज्वल्यमान युग राजपूतों के सहयोग से ही निर्मित हो सका। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार- “राजपूतों के माध्यम से उत्तर भारत के लाखों हिन्दू, अकबर के शुभचिन्तक बन गए और उसकी उन्नति तथा सफलता की प्रार्थना करने लगे।

प्रश्न 3.
अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना कीजिए।
उतर.
अकबर की धार्मिक नीति- अकबर महान् भारत में ही नहीं, वरन् विश्व के महानतम सम्राटों में प्रमुख स्थान रखता है। उसकी महानता का प्रमुख कारण है उसकी धार्मिक नीति, जिसके द्वारा वह दो परस्पर विरोधी धर्मावलम्बियों में समन्वय स्थापित करने में सफल रहा।

16वीं शताब्दी, जिस शताब्दी में अकबर भारत का शासक था, यूरोप के इतिहास में धर्मान्धता की शताब्दी मानी जाती है। उस समय धर्म के नाम पर अमानुषिक युद्ध एवं लोगों पर अमानवीय अत्याचार किए जाते थे। ऐसे समय में अकबर ने ‘सुलह-कुल की नीति को अपनाया, जिसके द्वारा एक अपूर्व धार्मिक सहिष्णुता को उसने भारत में स्थापित किया। मुस्लिम साम्राज्य के आरम्भ होने से लेकर अकबर के राज्यारोहण तक भारत में धर्म के नाम पर असंख्य अत्याचार किए गए थे किन्तु प्रकृति से ही सहिष्णु एवं उदार सम्राट अकबर ने शासितों को सुरक्षा एवं धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की। उसकी यह उदार नीति विभिन्न परिस्थितियों की उपज थी।

अकबर की धार्मिक सहिष्णुता के तत्त्व – अकबर आरम्भ से ही धर्मान्ध अथवा अनुदार नहीं था। अपने पूर्वजों से उसे धार्मिक सहिष्णुता उत्तराधिकार में मिली थी। तैमूर, बाबर तथा हुमायूँ दिल्ली के अन्य सुल्तानों के समान धर्मान्ध अथवा अत्याचारी नहीं थे। इसके अतिरिक्त अकबर का संरक्षक बैरम खाँ भी उदार स्वभाव का था। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी के भक्ति आन्दोलनों का प्रभाव भी अकबर पर पड़ा था। 1581 ई० में इबादतखाने की स्थापना के पश्चात् अकबर हिन्दू, जैन, सिक्ख, पारसी आदि अनेक धर्मावलम्बियों के सम्पर्क में आया, जिससे उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार होता गया तथा अन्त में उसने एक नवीन धर्म की स्थापना भी की, जिसके अनुसरण के लिए किसी भी धर्म का बन्धन आवश्यक नहीं था। अकबर के धार्मिक विचारों में क्रमिक परिवर्तन हुआ।

आरम्भ से वह उतना उदार एवं सहिष्णु नहीं वरन् इस्लाम में उसे पूरी आस्था थी तथा इस्लाम का वह सच्चा अनुयायी था, किन्तु हिन्दुओं के प्रति उसकी उदार नीति ने उसके धार्मिक दृष्टिकोण में धीरे-धीरे परिवर्तन लाना आरम्भ किया। स्मिथ के मत में उसके धार्मिक विचारों के विकास की तीन प्रमुख सीढ़ियाँ है- (i) 1556 से 1575 ई० तक, जिसमें वह इस्लाम का अनुयायी था। (ii) 1575 से 1581 ई० तक, जब उसने इबादतखाने में होने वाले वाद-विवादों को ध्यानपूर्वक सुनकर अन्य धर्मों की ओर आकर्षित होना एवं धर्म के विषय में चिन्तन करना आरम्भ कर दिया था। (iii) 1582 ई० के पश्चात् जब उसने ‘दीन-ए-इलाही’ नामक धर्म की स्थापना की तथा सभी धर्मों को समभाव देखना आरम्भ किया।

अकबर के धार्मिक विचारों में परिवर्तन
(i) 1556 से 1575 ई० तक का काल – आरम्भिक काल में अकबर एक सच्चे मुसलमान की भाँति आचरण करता था। वह रोज नमाज पढ़ता था, मुल्ला तथा मौलवियों का आदर करता था और पीरों की दरगाहों के दर्शनार्थ जाता था। उसने कई मसजिदों का भी निर्माण कराया, वह हिन्दुओं से जजिया कर भी लेता था, इस प्रकार वह सच्चे मुसलमान सम्राट का प्रतिरूप था। तब भी हम उसे कट्टर एवं धर्मान्ध मुसलमान नहीं कर सकते, क्योंकि उसने धार्मिक अत्याचार की नीति को कभी भी नहीं अपनाया। परन्तु 15 मार्च, 1564 ई० से उसने जजिया कर लेना बन्द कर दिया था। वह आरम्भ से ही उदार हृदय था, किन्तु पहले उदार नहीं था जितना कि बाद में हो गया। इस प्रकार अपने जीवन के प्रथम काल में अकबर एक मुसलमान होने के नाते इस्लाम में पूरी आस्था रखने वाला तथा अपने धर्म का सच्चा अनुयायी सम्राट था।

(ii) सन् 1575 से 1581 ई० तक का काल – यह अकबर के जीवन का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल था। वास्वत में इसी काल में उसके धार्मिक विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ।
(क) इबादतखाने की स्थापना – अनेक धर्मों से प्रभावित होकर अकबर ने फतेहपुर सीकरी में, 1575 ई० में एक इबादतखाना अथवा पूजागृह निर्मित करवाया जिसमें सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्म के विषय में बतलाने तथा अन्य धर्मावलम्बियों से तर्क करने की स्वतन्त्रता थी। आरम्भ में इस इबादतखाने में केवल मुसलमानों को ही भाग लेने का अधिकार था किन्तु उनकी कट्टरता, धर्मान्धता तथा असहिष्णुता से अकबर असन्तुष्ट हो उठा और सभी धर्मों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की उसकी जिज्ञासा प्रबल हो उठी। इसी समय मुसलमान मौलवियों के दो वर्ग हो गए। एक दल का नेता मखदूम-उल-मुल्क अब्दुल्ला सुल्तानपुरी था तथा दूसरे का शेख अब्दुल नबी था। इसमें परस्पर ईष्र्या, द्वेष होने के कारण संघर्ष आरम्भ हो गया, जिससे अकबर की इस्लाम के प्रति श्रद्धा कम होने लगी और उसने हिन्दू, जैन, सिक्ख, ईसाई तथा पारसी सभी मतावलम्बियों के लिए इबादतखाने के द्वार खोल दिया। सम्राट स्वयं इबादतखाने में होने वाले वाद-विवाद में भाग लेता था। पारसी एवं पुर्तगाली पादरियों से वह काफी प्रभावित हुआ था। एक पारसी पादरी दस्तूर मेहर जी राना ने सम्राट को यह सिखाया कि दरबार में सदैव अग्नि जलती रहनी चाहिए। उसी के प्रभाव से उसने सूर्य की उपासना भी करनी आरम्भ कर दी।

(ख) एक नए धर्म का विचार – निरन्तर धार्मिक चिन्तन एवं मनन के उपरान्त सम्राट इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सभी धर्मों के मूल तत्त्व समान हैं तथा धर्म के नाम पर झगड़े एवं युद्ध करना व्यर्थ है। उसने यह सोचना आरम्भ किया कि वह एक ऐसा धर्म चलाएगा जिसे संसार के सभी धर्मों के अनुयायी अपना सकें तथा जो सब धर्मों का सार हो। धर्माचार्य बनने के लिए प्रथम कदम सम्राट ने 22 जून, 1579 ई० में उठाया, जब मुहम्मद साहब के जन्मदिन पर उसने स्वयं खुतबा पढ़ा। यद्यपि यह खुतबा पढ़ने का अधिकार केवल मुहम्मद साहब एवं उनके खलीफाओं को ही था। अकबर ने खुतबे के अन्त में ‘अल्ला हो अकबर’ शब्द का उच्चारण किया, जिसका अर्थ है कि अल्लाह सबसे बड़ा है और इस प्रकार उसने अपनी धार्मिक नीति को प्रचलित रखा।

दीन-ए-इलाही – अकबर ने गम्भीर धार्मिक चिन्तन के उपरान्त ‘दीन-ए-इलाही’ का निर्माण किया तथा 1581 ई० में उसने इस धर्म की घोषणा कर दी। इस धर्म के सिद्धान्त सरल थे तथा प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से इसका सदस्य बन सकता था। अकबर ने किसी भी व्यक्ति को इस धर्म के अनुसरण के लिए बाध्य नहीं किया और इसलिए उसके प्रमुख दरबारियों में से बहुत ही कम व्यक्तियों ने उसके इस धर्म को अंगीकार किया तथा अकबर की मृत्यु के साथ ही उसका धर्म ‘दीन-एइलाही’ भी लगभग समाप्त हो गया। इस धर्म का अन्तिम अनुयायी शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह था, जिसके साथ ही दीन-ए-इलाही का पूर्णतया अन्त हो गया। अकबर के काल में केवल 18 व्यक्ति ही इसके सदस्य थे। राजा मानसिंह, भगवानदास, टोडरमल आदि कोई भी इसका सदस्य नहीं था। हिन्दुओं में केवल बीरबल दीन-ए-इलाही के अनुयायी थे। शेख मुबारक, अबुल फजल, फैजी, अजीज कोका आदि इसके महत्वपूर्ण सदस्य थे।

दीन-ए-इलाही के प्रमुख सिद्धान्त – दीन-ए-इलाही के सिद्धान्त अत्यन्त सरल थे
(अ) इसका प्रथम सिद्धान्त यह था कि ईश्वर एक है और अकबर उसका सबसे बड़ा पुजारी एवं पैगम्बर है।
(ब) दीन-ए-इलाही के अनुयायी को सूर्य तथा अग्नि की पूजा करनी पड़ती थी।
(स) इसके सदस्य को अपने जन्म दिन पर दावत देनी पड़ती थी।
(द) जो दावत मनुष्य के मरने के बाद उसके परिजनों को देनी पड़ती है, वह मनुष्य को अपने जीवनकाल में ही देनी पड़ती थी।
(य) प्रत्येक सदस्य के लिए मांस-भक्षण निषिद्ध था।
(र) परस्पर मिलने पर वे ‘अल्ला हो अकबर’ तथा ‘जल्ले-जलाल हू’ कहकर अभिवादन करते थे।
(ल) निम्न श्रेणियों के व्यक्तियों के साथ उन्हें भोजन करने का निषेध था।
(व) उन्हें सम्राट को सजदा करना पड़ता था।
(श) दीन-ए-इलाही के अनुयायी चार श्रेणियों में विभक्त थे- प्रथम, जो अपनी सम्पत्ति सम्राट पर न्योछावर करने को प्रस्तुत रहते थे, द्वितीय, जो सम्पत्ति तथा जीवन समर्पित करने को उद्यत रहते थे, तृतीय, जो सम्राट के लिए सम्पत्ति, जीवन एवं सम्मान का बलिदान कर सकते थे तथा चतुर्थ जो सम्पत्ति, जीवन, सम्मान एवं धर्म समर्पित करने के लिए उद्यत रहते थे।
(ष) रविवार के दिन सम्राट धर्म की दीक्षा देता था तथा नए व्यक्तियों के धर्म परिवर्तन के लिए भी यही दिन निश्चित था।

प्रश्न 4.
अकबर की सुलह-कुल नीति की विवेचना कीजिए।
उतर.
अकबर ने जिन उदार और नवीन सिद्धान्तों को जन्म दिया उनका इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान हैं उसने सम्पूर्ण प्रजा के साथ शासन के सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार किया। धर्म, जाति और वंश के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया। अकबर प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने हिन्दू-मुसलमानों को निकट लाने का प्रयास किया। दूसरी ओर शासन-प्रणाली, न्याय व्यवस्था, मालगुजारी बन्दोबस्त, एक राज्य भाषा, एक मुद्रा व्यवस्था की स्थापना की। इस प्रकार अकबर की नीति, भावना एवं प्रयास उसे राष्ट्रीय शासक के निकट पहुँचाते हैं।

प्रश्न 5.
‘दीन-ए-इलाही’ अकबर की बुद्धिमत्ता का नहीं, बल्कि उसकी मूर्खता का प्रतीक था। इस कथ के आलोक में अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा कीजिए।
उतर.
दीन-ए-इलाही के बारे में डॉ० श्रीराम शर्मा ने लिखा है “दीन-ए-इलाही को एक धर्म का स्तर देना कोरी अतिशयोक्ति है। यह सम्राट के राष्ट्रीय आदर्शवाद का ज्वलन्त उदाहरण है। इसका कोई धर्म-ग्रन्थ, पुरोहित, संस्कार वास्तविक रूप से कोई धार्मिक विश्वास नहीं थे। इसे धर्म न कहकर एक संस्था अथवा परिपाटी कहना अधिक उपयुक्त होगा जो किसी धार्मिक आन्दोलन के विपरित एक स्वतन्त्र विचारधारा के निकट है।” स्मिथ ने दीन-ए-इलाही को अकबर की बुद्धिमता का नहीं, अपितु उसकी मूर्खता का प्रतीक बताया है। लेकिन इस सम्बन्ध में डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव का मत है कि दीन-ए-इलाही इस उच्च उद्देश्य से प्रेरित होकर चलाया गया था कि इससे देश की विभिन्न जातियाँ एकाकार होकर राष्ट्र का रूप धारण कर लेंगी।

अकबर उत्तरी-भारत में राजनीतिक प्रशासकीय, आर्थिक और कुछ हद तक सांस्कृतिक एकता स्थापित करने में सफल हुआ। अकबर की इस सहनशीलता की नीति की बदायूँनी और जेसुइट पादरियों ने बड़ी आलोचना की है तथा बदायूँनी ने यह आरोप लगाया कि अकबर ने इस्लाम के साथ अन्याय किया। लेकिन उसकी इस आलोचना को सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उस जैसे धर्मान्ध मुल्ला की दृष्टि में वह अक्षम्य अपराध था कि इस्लाम को प्रमुखता की स्थिति से गिराकर उसे अन्य धर्मों के साथ समानता की स्थिति पर ले जाया जाये। जेसुइट पादरी भी जो बादशाह को ईसाई बना देने की आशा में थे किन्तु अन्त में निराश हो गये तो अकबर की आलोचना करना इनके लिए स्वाभाविक ही नहीं अवश्यम्भावी भी था।

प्रश्न 6.
“अकबर एक राष्ट्रीय शासक था।” इस कथन के आलोक में उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
उतर.
अकबर ने अपने शासन के दौरान ऐसे कार्य किये जिसके आधार पर उसे एक राष्ट्रीय शासक कहा गया है। राष्ट्रीय शासक वह कहलाता है जिसके शासन में उसकी सम्पूर्ण प्रजा के साथ शासन के सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार किया जाये और राज्य की ओर से व्यक्ति-व्यक्ति में धर्म, जाति और वंश के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाये। शासक अपनी प्रजा को पुत्रवत् समझे और राष्ट्र की सारी जनता सम्राट को अपना शासक माने। अकबर ऐसा ही सम्राट था। इस दिशा में राजनीतिक एकता स्थापित करना अकबर का प्रथम कदम था। दूसरा उसने पूरे देश में एक जैसी शासन-प्रणाली, न्याय व्यवस्था तथा मालगुजारी बन्दोबस्त, एक राज्य भाषा, एक मुद्रा व्यवस्था की स्थापना की। अकबर का लक्ष्य सम्पूर्ण भारत को एक राज्य और एक शासन के अन्तर्गत संगठित करने का था।

जिस समय अकबर गद्दी पर बैठा उस समय भारत की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति अशांत थी। केन्द्रीय सत्ता का नामोनिशान नहीं था। स्थानीय तत्त्व ही राजनीति और प्रशासन में अधिक प्रभावशाली थे। प्रशासनिक व्यवस्था ठप्प पड चकी थी। सामाजिक एवं आर्थिक विभेद चरम सीमा पर पहुँच चुके थे। ऐसी विषम परिस्थितियों में अकबर ने साहस नहीं खोया। उसने भारत को ही अपना देश समझा और इसके विकास के लिए अनवरत प्रयास किये। उसके ये कार्य उसे एक राष्ट्रीय शासक बनाते हैं। इस संदर्भ की पुष्टि अकबर के निम्नलिखित कार्यों से की जा सकती है

(i) राजनीतिक एकीकरण – अकबर का सबसे पहला उद्देश्य भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँधकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अकबर ने साम्राज्यवादी नीति अपनाई और पानीपत से लेकर असीरगढ़ के युद्ध तथा सम्पूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत और दक्षिण के एक बड़े भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने राजपूतों और अफगानों की शक्ति को भी नतमस्तक कर दिया। इसके लिए उसने सैनिक शक्ति के अतिरिक्त कूटनीति का भी सहारा लिया। उसके प्रयासों से लगभग सम्पूर्ण भारत एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन आ गया तथा मुगल सैनिक आक्रमणकारी से भारतीय राजवंशी बन गए।

(ii) प्रशासनिक एकीकरण – अकबर ने न सिर्फ सम्पूर्ण भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की, बल्कि उसने पूरे साम्राज्य के लिए समान प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की। उसके प्रशासन का उद्देश्य राजनीति को धर्म से अलग कर साम्राज्य में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण करना एवं उन्हें न्याय तथा समान अवसर प्रदान करना था। इसलिए, उसने तुर्क अफगानयुगीन धार्मिक कट्टरता की नीति त्याग दी और अपने प्रबलतम राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों- राजपूतों को भी प्रशासन और सेना में प्रमुखता दी। राजनीतिक एकता बिना प्रशासनिक एकता के अधूरी रहती। इसलिए, उसने पूरे साम्राज्य में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की। यह उसकी एक महान् उपलब्धि थी।

(iii) धार्मिक एकीकरण – राष्ट्रीय एकता स्थापित करने की दिशा में अकबर का साहसिक और मौलिक कार्य धार्मिक क्षेत्र में था। तुर्क-अफगान शासकों के समय में धर्म एवं राजनीति का अटूट सम्बन्ध था। अकबर इस बात को अच्छी तरह समझता था कि इस्लाम धर्म का सहारा लेकर सम्पूर्ण भारत पर शासन नहीं किया जा सकता। इसलिए, उसने राजनीति और धर्म को पृथक् कर दिया। बलात् धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया बन्द कर दी गई। हिन्दुओं पर से जजिया और तीर्थयात्रा कर हटा लिए गए। उन्हें मंदिरों के निर्माण और मरम्मत की सुविधा एवं आवश्यक सहायता भी प्रदान की गई। अन्य धर्मावलंबियों-सिक्खों, पारसियों, ईसाइयों, मुसलमानों को भी धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई। इस प्रकार अकबर ने धार्मिक विद्वेष, वैमनस्य एवं कटुता की भावना को समाप्त कर आपसी सद्भाव, सहयोग, एकता एवं धर्म-सहिष्णुता की भावना जगाई और एक संगठित राष्ट्र के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया।

(iv) सामाजिक एकता के लिए प्रयास – अकबर का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य था सामाजिक एकता स्थापित करने का प्रयास। उसने समाज के दो बहुसंख्यक वर्गों- हिन्दू और मुसलमानों के उत्थान के लिए समान रूप से प्रयास किए। उसने हिन्दू समाज में प्रचलित सती प्रथा एवं बाल-विवाह को प्रतिबन्धित करने की कोशिश की। इसी प्रकार मुसलमानों के दाढ़ी रखने, गो-मांस भक्षण, शराबखोरी, रमजान का व्रत रखने एवं हज की यात्रा समाप्त करने का प्रयास किया। वह इस्लाम धर्म को मानते हुए भी हिन्दुओं के पर्वो एवं त्योहारों- दशहरा, दीपावली, रक्षाबन्धन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि को पूरी श्रद्धा और उत्साह से मनाता था। अकबर की सुलह-कुल की नीति ने आपसी विभेद को मिटाने एवं एक सुसंगठित राज्य, समाज और राष्ट्र के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया।

(v) सांस्कृतिक एकता की दिशा में योगदान – सांस्कृतिक उत्थान के क्षेत्र में भी सराहनीय कार्य किए। उसने फारसी के साथ-साथ संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास पर भी पूरा ध्यान दिया। उसने महाभारत, गीता, रामायण, बाइबिल, कुरान, अथर्ववेद, पंचतन्त्र इत्यादि का फारसी में अनुवाद करवाया। कुछ फारसी ग्रन्थों का संस्कृत में भी अनुवाद किया गया। अकबर ने अपने दरबार में अनेक कलाकारों, कवियों, चित्रकारों, संगीतकारों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया। भवन निर्माण के क्षेत्र में भी उसकी महान् उपलब्धियाँ हैं। उसने ऐसे भवनों का निर्माण करवाया जिनमें हिन्दू और इस्लामी शैलियों का मिश्रण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अकबर के प्रयासों से भारत की विभिन्न कला-पद्धतियों का समन्वय एवं विकास हो सका। ईरानी, इस्लामी और हिन्दू कला एक-दूसरे के निकट आ सकीं।

(vi) आर्थिक एकता – अकबर ने व्यवसाय और व्यापार को नियन्त्रित कर देश की आर्थिक समृद्धि का मार्ग भी खोला। अनेक प्रकार की दस्तकारियों को देश में प्रोत्साहन मिला जिसके फलस्वरूप देश विकास एवं समृद्धि की चरम सीमा पर पहुंचकर विदेशी यात्रियों और दूतों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने लगा। इस प्रकार सभी इतिहासकारों यह स्वीकार करते हैं कि अकबर का उद्देश्य भारत की एकता, उसकी उन्नति और उसके सभी निवासियों की समान प्रगति तथा उन्हें सुविधाएँ प्रदान करना था। इस दृष्टि से प्रायः सभी इतिहासकार उसे राष्ट्रीय शासक स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 7.
अकबर की राजपूत नीति का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए एवं मुगल साम्राज्य पर इसके प्रभावों का परीक्षण कीजिए।
उतर.
अकबर की राजपूत नीति – अकबर एक दूरदर्शी सम्राट था। उसने शीघ्र समझ लिया कि राजपूतों की सहायता के बिना हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य स्थायी नहीं रह सकता तथा उनके सक्रिय सहयोग के बिना कोई सामाजिक अथवा राजनैतिक एकता सम्भव नहीं हो सकती। अत: उसने प्रेम, सहानुभूति तथा उदारता से राजपूतों के हृदय को जीतकर उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। इस नीति के परिणामस्वरूप अकबर मुगल साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ कर सका। अकबर की उदार राजपूत नीति अपनाने के कारण- अकबर द्वारा राजपूतों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखने के निम्नलिखित कारण थे

(i) व्यक्तिगत कारण – राजनीतिक एवं साम्राज्यवादी दृष्टिकोण के अतिरिक्त अकबर की राजपूत नीति के व्यक्तिगत कारण भी थे। अकबर ने अनुभव किया था कि उसके बड़े-से-बड़े पदाधिकारी अत्यन्त स्वार्थी हैं तथा वे समय पड़ने पर सदा विद्रोह करने को तत्पर रहते हैं। राज्यारोहण के बाद ही उसने देखा कि उसके सम्बन्धी तथा संरक्षक विश्वसनीय नहीं हैं। उसका भाई मिर्जा मुहम्मद हकीम, उसका संरक्षक बैरम खाँ, उसकी धाय माँ माहम अनगा तथा उसका (माहम अनगा का) पुत्र आधम खाँ सभी शक्ति हस्तगत करने को इच्छुक थे और उन्हें अकबर की कोई चिन्ता न थी। इसी प्रकार भारतीय मुसलमानों पर भी अकबर विश्वास नहीं कर सकता था।

अतः एक कुशल एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते अकबर इस निर्णय पर पहुँचा कि राजपूत ही सबसे अधिक विश्वस्त एवं वीर जाति है, जो एक बार वचनबद्ध होकर कभी धोखा नहीं देती है और उस पर पूरा विश्वास किया जा सकता है। वीरता में भी राजपूत जाति अद्वितीय थी, जिसका उपयोग अकबर अपने हित के लिए कर सकता था। अत: अन्त में उसने राजपूतों एवं मुगलों की शत्रुता का अन्त करने का निश्चय किया, जो कि उसके पिता एवं पितामह के समय से चली आ रही थी। अकबर का यह विश्वास था कि राजपूतों के सहयोग के बिना न तो कोई सुदृढ़ साम्राज्य भारत में स्थापित किया जा सकता है। और न ही उसे स्थायी बनाया जा सकता है; अतः उसने निश्चय किया कि उसका साम्राज्य हिन्दू एवं मुसलमान दोनों जातियों के सहयोग से तथा दोनों के हित पर आधारित होगा। वह चाहता था कि राजपूत तथा हिन्दू मुगलों को विदेशी न समझकर भारतीय समझे।

इस कारण उसने प्रमुख राजपूत राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए, जिससे राजपूतों तथा मुगलों के सम्बन्ध दृढ़ हो जाएँ। राजपूतों तथा हिन्दुओं के लिए उसने उच्च से उच्च पदों के द्वार खोल दिए। योग्यता के अनुसार पदों का वितरण किया गया, धर्म अथवा जाति के आधार पर नहीं। हिन्दुओं की प्रतिष्ठा, सम्पत्ति एवं जीवन की सुरक्षा का भार राज्य ने सँभालने का निश्चय किया तथा हिन्दुओं की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अकबर ने उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता भी प्रदान की। उसके हरम में उसकी हिन्दू रानियों को अपने धर्म का पालन करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। अकबर स्वयं भी कभी-कभी तिलक लगाता एवं सूर्य की उपासना करता था। इस प्रकार उसने राजपूतों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करके उनका पूरा सहयोग प्राप्त किया।

(ii) राजनीति तथा साम्राज्यवादी दृष्टिकोण – अकबर एक दूरदर्शी तथा साम्राज्यवादी सम्राट था। वह यह भली प्रकार जानता था कि उसके पूर्व के मुस्लिम सुल्तानों के वंशों का अल्पकालीन होने का एक प्रमुख कारण राजपूतों की शत्रुता थी। वीर राजपूत जाति अभी तक मुसलमानों को अपना शत्रु समझती थी तथा उनको देश के बाहर निकालने के लिए प्रयत्नशील थी। खानवा के युद्ध में राणा साँगा के नेतृत्व में राजपूतों ने एक महान् किन्तु असफल प्रयास इसीलिए किया था। अकबर यह भी जानता था कि राजपूत स्वभाव के सच्चे, ईमानदार एवं स्वामिभक्त होते हैं और उनको मित्र बनाकर भारी लाभ प्राप्त किया जा सकता है, अत: एक कुशल कूटनीतिज्ञ की दृष्टि से अकबर ने राजपूतों को मुगलों का मित्र बनाने में अपने तथा अपने वंश का कल्याण समझा। इसी उद्देश्य को लेकर उसने ‘राजपूत नीति’ को जन्म दिया। किन्तु अकबर की राजपूत नीति का केवल यही एकमात्र कारण नहीं था जैसा कि कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। वास्तव में यदि यही एक कारण रहा होता तो अकबर के पाखण्ड का भण्डाफोड़ उसके जीवनकाल में कभी-न-कभी अवश्य हो गया होता और राजपूतों के सहयोग को प्राप्त करने में वह असफल रहता। अकबर यह जानता था कि बलबन, अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक जैसे वीर एवं योग्य सुल्तान भी भारत में स्थायी राज्य स्थापित नहीं कर सके थे। इसका प्रमख कारण राजपत थे, जिनके साथ सल्तानों का व्यवहार हमेशा शत्रतापर्ण रहा था। अतः यदि इन रा मैत्रीपर्ण व्यवहार किया जाए तो इनकी शक्ति का उपयोग मगल साम्राज्य को दृढ़ बनाने के लिए किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से अकबर ने राजपूतों के प्रति सहृदयता एवं मैत्रीपूर्ण व्यवहार का नीति को जन्म दिया।

राजपूत नीति सम्बन्धी कार्य – अकबर ने राजपूतों से निकट का सम्बन्ध स्थापित करने तथा उन्हें प्रेमपूर्वक तथा सद्भावना सहित अपनी अधीनता स्वीकार करने हेतु जो ढंग अपनाए वे प्रधानतया चार प्रकार के थे
(i) धार्मिक सहिष्णुता की नीति – अकबर ने हिन्दुओं को पूर्णत: धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की, यहाँ तक कि उसके हरम की हिन्दू स्त्रियों को मूर्ति पूजा करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। अकबर स्वयं भी कभी-कभी हिन्दुओं के रीति-रिवाजों को मनाता था। उसने तीर्थ यात्रा कर तथा जजिया कर हटा दिया, अत: राजपूत ऐसे सम्राट को सहयोग देने को सहर्ष प्रस्तुत हो गए, जो उनके धर्म तथा गुणों को मान्यता एवं प्रतिष्ठा प्रदान करता था।

(ii) उच्च पदों पर नियुक्ति – अकबर ने उच्च पदों के द्वार सबके लिए खोल दिए। उसने योग्यता के आधार पर, धार्मिक भेदभाव किए बिना, पदों का वितरण किया। उसके नवरत्नों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मावलम्बी सम्मिलित थे। उसने कछवाहा-नरेश बिहारीमल को पंचहजारी मनसबदार बनाया तथा उसके पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह को भी सेना एवं प्रशासन सम्बन्धी उच्च पद प्रदान किए। अकबर के अन्य हिन्दू पदाधिकारियों में राजा टोडरमल तथा राजा बीबरल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अकबर ने 1582 ई० में राजा टोडरमल को दीवान-ए-अशरफ अर्थात भू-विभाग का अध्यक्ष बना दिया। राजा बीरबल को उसने अपने नवरत्नों में स्थान दिया और उन्हें सेनापति का भार सौंपकर अपनी साथ नीति को आगे बढ़ाया। जनता ने बीरबल को विनोदप्रियता का प्रतीक मानकर अकबर-बीरबल सम्बन्धी हजारों-लाखों किंवदन्तियाँ गढ़ लीं। इस प्रकार उसकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई। यही नहीं, अकबर की सेना में भी आधे हिन्दू थे तथा उनमें से अनेक सेना में उच्च पदों पर आसीन थे। अकबर ने बाद में यह अनुभव किया कि हिन्दुओं एवं राजपूतों पर विश्वास करके उसने कोई भूल नहीं की थी।

(iii) वैवाहिक सम्बन्ध – अकबर ने प्रमुख राजपूत राजवंशों की राजकुमारियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए, जिससे राजपूतों के साथ अपने सम्बन्ध सुदृढ़ करने में अकबर को सहायता प्राप्त हुई। नार्मन जीग्लर तथा डिक हर्बर्ट आरनॉल्ड कोफ के अनुसार, राजस्थान तथा अन्य स्थानों पर राजपूत सरदारों के साथ राजनीतिक सम्बन्धों को निश्चित रूप प्रदान करने में इन वैवाहिक सम्बन्धों का विशिष्ट योगदान था। डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में- “इन वैवाहिक सम्बन्धों से भारत के राजनीतिक इतिहास में एक नए युग का प्रादुर्भाव हुआ। इससे देश को प्रसिद्ध सम्राटों की एक परम्परा प्राप्त हुई और मुगल साम्राज्य की चारों पीढ़ियों को मध्यकालीन भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों और योग्य राजनीतिज्ञों की सेवाएँ प्राप्त होती रही।

(iv) अनाक्रमण तथा सामाजिक सुधार – अकबर ने अन्य राज्यों को आत्मसात करने तथा उन पर आक्रमण करने की नीति का परित्याग कर दिया। उसने अपने धन व शक्ति को जनता के कल्याण में लगा दिया। अकबर ने मुस्लिम समाज के साथसाथ हिन्दू समाज के दोषों के निराकरण का भी प्रयास किया, जिससे वह हिन्दुओं के और भी निकट आ गया। उसने अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देकर देहज प्रथा, सती प्रथा, जाति की जटिलता, बाल-विवाह, शिशु हत्या आदि का विरोध किया तथा इनको सुधारने के लिए नियम भी बनाए। उसने विधवा पुनर्विवाह को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। 1562 ई० के आरम्भ से ही उसने राजाज्ञा देकर युद्धबन्दियों को गुलाम बनाने की प्रथा पर रोक लगा दी। मथुरा के तीर्थयात्रियों पर कर लगाना उसे अनुचित लगा, अतः 1563 ई० में उसने सर्वत्र यात्री-कर समाप्त करने का आदेश दिया। फिर 1564 ई० में उसने जजिया कर को बन्द करवा दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण देश के एक विशाल बहुमत की सहानुभूति और शुभकामनाएँ उसे प्राप्त हो गई। अबुल फजल ने लिखा है – “इस प्रकार सम्राट ने लोगों के आचरण को सुधारने का प्रयास किया।

अकबर की राजपूत नीति के परिणाम – अकबर की राजपूत नीति से मुगल साम्राज्य की बहुमुखी उन्नति हुई। राज्य का विस्तार हुआ, शासन व्यवस्था सुदृढ़ हुई, व्यापार को प्रोत्साहन मिला और सैनिक सम्मान में वृद्धि हुई। इन सबके परिणामस्वरूप देश समृद्ध हुआ और सम्राट को राष्ट्र के निर्माण में राजपूतों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ।

(i) मुगलों की शक्ति में वृद्धि – अकबर की सहिष्णुतापूर्ण नीति मुगल वंश के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुई। युद्ध कौशल में दक्ष राजपूतों से मैत्री-सम्बन्ध जोड़कर अकबर ने एक बहुत बड़ा लाभ यह उठाया कि अब उसे कुशल सैनिकों की भर्ती के लिए पश्चिमोत्तर प्रान्तों का मुँह नहीं ताकना पड़ता था। इससे मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हो गई तथा अकबर के उत्तराधिकारी जब तक इस सहिष्णतापर्ण नीति का अनसरण करते रहे तब तक मगल चलता रहा। इस नीति का परित्याग करते ही मगल वंश का पतन आरम्भ हो गया।

(ii) सद्भावना की प्राप्ति – अकबर की राजपूत नीति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि राजपूत, जो अभी तक मुसलमानों के शत्रु रहे थे तथा जिनसे सभी मुस्लिम सुल्तानों को युद्ध करने पड़ते थे, अब मुगल साम्राज्य के आधार स्तम्भ बन गए। अकबर ने अपनी उदार राजपूत नीति के फलस्वरूप न केवल राजस्थान पर अपना सुदृढ़ अधिकार स्थापित कर लिया, वरन् राजपूतों की सहायता से उसने भारत के विभिन्न मुस्लिम राज्यों तथा पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ राज्यों को पराजित करने में भी अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।

(iii) विद्रोह दमन में सहायता – इतना ही नहीं; विद्रोही राजपूत राज्यों को दबाने में भी उसने मित्र राजपूत राज्यों से पूरी-पूरी सहायता प्राप्त की। पूर्वी और दक्षिणी विजयों में भी अकबर को राजपूतों से पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई।

(iv) राज्य–विस्तार – मेवाड़ के अतिरिक्त राजस्थान के सभी राज्य अकबर के अधीन हो गए। मेड़ता और रणथम्भौर जैसे राज्यों ने भी युद्ध के उपरान्त मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। आमेर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर आदि राज्यों ने अकबर से मित्रता कर ली, जिनको देखकर छोटे-छोटे राज्य जैसे प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा, दुर्गापुर आदि बिना युद्ध के ही अकबर के अधीन हो गए। मेवाड़ के महाराणा प्रताप को इन्हीं राजपूतों की सहायता से अकबर ने 1576 ई० में पराजित किया। अन्य छोटे-छोटे राज्यों को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कराने का श्रेय भी मुख्यत: उन्हीं राजपूतों को है, जो अकबर के सेनापति के रूप में कार्य कर रहे थे, अतः यथाशीघ्र सम्पूर्ण उत्तर भारत में अकबर की वीरता की धाक जम गई और दूसरी और उसकी उदारता का भी व्यापक प्रचार हो गया। अकबर ने राजपूतों की सहायता से केवल एक विशाल साम्राज्य ही अर्जित नहीं किया वरन् उसकी सुव्यवस्थित शासनव्यवस्था भी राजपूतों के सहयोग का ही परिणाम थी। उसने हिन्दुओं को योग्यतानुसार उच्च पदों पर आसीन किया तथा उनकी योग्यता का पूरा लाभ उठाया। राजा टोडरमल उसकी भूमि-व्यवस्था के लिए उत्तरदायी थे, जिनके द्वारा शासक तथा शासित दोनों वर्गों को भारी लाभ पहुँचा। इस प्रकार उसका जाज्वल्यमान युग राजपूतों के सहयोग से ही निर्मित हो सका। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार- “राजपूतों के माध्यम से उत्तर भारत के लाखों हिन्दू, अकबर के शुभचिन्तक बन गए और उसकी उन्नति तथा सफलता की प्रार्थना करने लगे।

प्रश्न 8.
अकबर के चारित्रिक गुणों पर प्रकाश डालिए।
उतर.
अकबर ने विभिन्न कार्यक्षेत्रों में अपनी योग्यता एवं प्रतिभा का परिचय दिया। वह एक वीर सैनिक, महान सेनापति, बुद्धिमान शासन-प्रबन्धक, उदार शासक तथा उचित निर्णायक था। वह मनुष्यों का जन्मजात नेता था और इतिहास के शक्तिशाली सम्राटों में गणना किए जाने की क्षमता रखता था। अकबर के व्यक्तित्व एवं चरित्र के विषय में उसके समकालीन इतिहासकारों ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है। उसके पुत्र जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ में उसके व्यक्तित्व को बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। जहाँगीर लिखता है कि वह वास्तव में बादशाह था। संक्षेप में अकबर के व्यक्तित्व एवं चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

(i) स्वभाव और रुचियाँ – अकबर विनोदी स्वभाव का था और सदा प्रसन्नचित रहता था। मधुर वचन बोलना उसका स्वभाव था और अहंकार एवं दम्भ से उसे घृणा थी। बच्चों से उसे असीम स्नेह था। उसका क्रोध भी अत्यन्त भयंकर था और क्रोध में वह निर्दयतापूर्ण कार्य भी कर देता था, जैसे आधम खाँ को उसने किले की दीवार पर से दो बार गिराने की आज्ञा दी थी, किन्तु साधारणत: उसका स्वभाव दयालु था तथा उसका क्रोध भी शीघ्र ही शान्त हो जाता था। वह अपने सद्व्यवहार के कारण अपने अमीरों, दरबारियों तथा प्रजाजनों में अत्यन्त लोकप्रिय था।। सम्राट को आखेट में विशेष अभिरुचि थी। वह जंगल में भयंकर-से-भयंकर शेर, चीते तथा हाथी का शिकार करता था। हाथियों के युद्ध तथा पोलो खेलने का उसे अत्यधिक शौक था। अकबर साहसी, धैर्यवान, कठोर परिश्रमी तथा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। पराजित शत्रु के प्रति वह मानवोचित उदार व्यवहार करने में विश्वास रखता था, किन्तु विरोधियों के प्रति वह उतना ही कठोर भी हो जाता था और उन्हें कभी क्षमा नहीं करता था।

(ii) मानसिक गुण – अकबर यद्यपि स्वयं विद्वान नहीं था (सम्भवतः वह निरक्षर था), तथापि उसका व्यवहारिक ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसकी व्यवहारिक बुद्धि का लोहा सभी लोग मानते थे। अकबर साहित्य का बड़ा प्रेमी था तथा दूर-दूर के देशों के विद्वान उसके दरबार में आश्रय प्राप्त करते थे। उसके नवरत्नों में अधिकतर विद्वान व्यक्ति ही सम्मिलित थे। अकबर ने एक विशाल पुस्तकालय का निर्माण करवाया था, जिसमें लगभग 24,000 हस्तलिखित पुस्तकें संगृहीत थीं। तर्क करने में वह इतना कुशल था कि उसको तर्क करते देखकर कोई उसके निरक्षर होने पर विश्वास ही नहीं कर सकता था।

(iii) कला प्रेमी – अकबर को केवल साहित्य से ही नहीं, वरन् ललित कलाओं से भी यथेष्ट अनुराग था। सु-लेखन कला, संगीतकला, भवननिर्माण कला, चित्रकला सभी को उसने राजाश्रय प्रदान किया था और उच्चकोटि के कलाकारों को सम्मानित किया था। वह कलपुर्जा का विशेषज्ञ भी था तथा उसने एक ऐसे यन्त्र का निर्माण किया था, जिससे 17 तोप के गोलों को एक साथ दागा जा सकता था।

(iv) धार्मिक उदारता – अकबर के चरित्र का सबसे महत्वपूर्ण गुण उसकी धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता थी। उसने सभी धर्मों के साथ दया, सहानुभूति एवं समानता का व्यवहार किया। वह निष्ठावान तथा ईश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति था, किन्तु उसके धार्मिक विचार संकीर्ण न होकर व्यापक थे, जिनका अन्तिम परिणाम दीन-ए-इलाही’ के रूप में प्रस्फुटित हुआ था।

(v) साहित्य का संरक्षक – अकबर गुणग्राही सम्राट था। वह विद्यानुरागी और साहित्य-प्रेमी बादशाह था। उसने विद्वानों, कवियों, लेखकों और साहित्यकारों को उदारता से आश्रय प्रदान किया। इस राज्याश्रय के परिणामस्वरूप अकबर के शासनकाल में उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना हई। इनमें ऐतिहासिक ग्रन्थ, अनवाद के ग्रन्थ और काव्य-ग्रन्थ है। ऐतिहासिक ग्रन्थों में मुल्ला दाउद की तारीख-ए-अल्फी’, बदायूँनी का मुन्तखब-उत-तवारीख’, निजामुद्दीन अहमद का तबकात-एअकबरी’ तथा शेख अबुल फजल का ‘अकबरनामा’ और ‘आइने-अकबरी’ प्रमुख हैं। उसके काल में संस्कृत, तुर्की, अरबी में लिखे कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद भी किया गया। अकबर के दरबार के ही गिजाली, फैजी, मुहम्मद हुसैन नजीरी, सैयद जमालुद्दीन उर्फी और अब्दुर्रहीम खानखाना ने अनेक काव्य-ग्रन्थों की रचना की।

(vi) शारीरिक गठन, वेशभूषा एवं खानपान – अकबर मझले कद का व्यक्ति था और उसका रंग गेहुंआ था। ऊँचा ललाट, लम्बी भुजाएँ, विशाल वक्षस्थल, सीधी नाक के बाईं ओर सौभाग्य का चिह्न (मस्सा), चमकीले नेत्र, सुदृढ़ तथा निरोग शरीर आदि लक्षण उसे एक सम्राट बना देने के लिए पर्याप्त थे। उसके अंग-प्रत्यंग से उसका महान व्यक्तित्व झलकता था। वह केवल मूंछे रखता था तथा दाढ़ी उसने मुंडवा दी थी। उसकी आवाज तेज और कड़कती हुई थी। वह कठोर परिश्रमी था। एक बार वह एक रात और एक दिन में आगरा से अजमेर तक 240 मील घोड़े पर सवार होकर चला गया था। घड़सवारी का उसे विशेष शौक था। वह बहमल्य वस्त्र धारण करता था और जरी के काम के सन्दर रेशमी वस्त्र तथा रत्नाभूषणों से सुसज्जित पगड़ी पहनता था। अकबर फलों का बहुत शौकीन था। उसने अपनी हिन्दू रानियों का दिल न दुखाने के लिए गो-मांस खाना बन्द कर दिया था, परन्तु सप्ताह में दो बार वह मांस-भक्षण करता था। युवावस्था में वह मद्यपान भी करता था किन्तु बाद में उसने इसका परित्याग कर दिया था। वह पीने के लिए गंगाजल का प्रयोग करता था।

(vii) हँसमुख एवं प्रसन्नचित्त सम्राट – स्वस्थ मनोरंजन अकबर को प्रिय था। फतेहपुर सीकरी में अनेक ऐसे स्थल निर्मित किए गए थे, जहाँ चिन्ताओं से मुक्त होकर सम्राट आमोद-प्रमोद में समय व्यतीत करता था।

(viii) प्रजावत्सल सम्राट- अकबर एक प्रजावत्सल सम्राट था। यद्यपि वह निरंकुशता में विश्वास रखता था तथापि उसकी निरंकुशता प्रजाहित पर आधारित थी, स्वेच्छाचारिता पर नहीं। वह दिन-रात प्रजा के हित के कार्यों में व्यस्त रहता था तथा उसके काल में उसकी प्रजा सुखी व समृद्ध थी। वह न्यायप्रिय था और न्याय के समय सबको समान समझता था। योग्यता तथा प्रतिभा का वह आदर करता था तथा उच्च पदों पर वह योग्य व्यक्तियों को ही नियक्त करता था। सारांश यह है कि अकबर बहुमुखी प्रतिभा वाला सम्राट था। वह कठोर परिश्रमी, उत्साही, धैर्यवान, साहसी, सहिष्णु, उदार, प्रजावत्सल, साहित्य एवं कला का पारखी, राजनीतिज्ञ, गुणग्राही, जिज्ञासु तथा दयावान सम्राट था। उसका स्वभाव नम्र एवं शिष्ट, उसकी बुद्धि कुशाग्र, स्मरण शक्ति विलक्षण तथा उसके आदर्श ऊँचे थे। इन्हीं कारणों से भारत के इतिहास में उसे अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 9.
अकबर मुगल शासकों में सर्वश्रेष्ठ भारतीय शासक था’ इस कथन के आलोक में अकबर का मूल्याकंन कीजिए।
उतर.
अकबर मुगल शासकों में सर्वश्रेष्ठ, भारतीय शासकों में महान् और विश्व के शासकों में एक श्रेष्ठ और सम्मानित पद का अधिकारी है। लेनपूल ने उसे भारत के बादशाहों में सर्वश्रेष्ठ बादशाह’ तथा उसके युग को ‘मुगल साम्राज्य का स्वर्णकाल कहा। इतिहासकार स्मिथ जो कई दृष्टिकोणों से अकबर की आलोचना करता है, इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि वह मनुष्यों का जन्मजात बादशाह था।’ इतिहास के सर्वशक्तिशाली बादशाहों में से एक होने का उसका न्यायपूर्ण अधिकार है।

अकबर का व्यक्तित्व सुन्दर और प्रभावशाली था। वह एक आज्ञाकारी पुत्र, प्रिय पति और आदरणीय पिता था। वह अबुल फजल की मृत्यु पर बहुत रोया था और दो दिन तक उसने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वह शिक्षित न था, परन्तु उसने विद्वानों को सम्मान और आश्रय दिया। उसने एक पुस्तकालय बनाया, जिसमें 24,000 ग्रन्थ थे। उसे खेलकूद और शिकार का शौक था। कठोर परिश्रम करने तथा कठिनाइयों को बर्दाश्त करना उसका स्वभाव था। उसमें साहस और धैर्य कूट-कूटकर भरा हुआ था। वह धार्मिक दृष्टि से अपने युग का प्रवर्तक था। अकबर भी शराब, अफीम आदि मादक द्रव्यों का सेवन करता था परन्तु वह उनका आदी न था। अकबर ने तत्कालीन अन्य शासकों की भाँति बहुत विवाह किए थे। उसके हरम में करीब 5000 स्त्रियाँ थीं और उनमें उसकी रखैलों की संख्या भी बहुत रही होगी परन्तु जैसा कि प्रति सप्ताह मीना बाजार लगाकर सुन्दर स्त्रियों को खोजना और बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर की पत्नी के शील पर आक्रमण करने की चेष्टा आदि किंवदन्तियाँ ठीक प्रतीत नहीं होती।

अकबर एक कुशल और प्रतिभाशाली सेनापति था। उसने सेनापति के रूप में अनेक सैनिक अभियानों में सफलता प्राप्त की। गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए वह जिस तीव्र गति से गया था, वह एक ऐतिहासिक सैनिक अभियान माना गया है। उसके समय में मुगलई सेना अजेय बन गई। संगठन और युद्ध नीति दोनों ही इसके लिए उत्तरदायी थीं और अकबर का इसमें बहुत बड़ा हाथ था। एक शासन-प्रबन्धक की दृष्टि से अकबर में मौलिकता एवं व्यवहारिकता दोनों ही थीं। अकबर के शासन की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उसने साम्राज्य के शासन-सूत्र को एक धागे में पिरो दिया था, जिससे मुगल साम्राज्य राजनीतिक स्थायित्व प्राप्त कर सका। एक शासक और राजनीतिज्ञ की दृष्टि से अकबर की धार्मिक उदारता की नीति और राजपूत नीति अद्वितीय थी।

निश्चय ही अकबर ने भारत की सांस्कृतिक एकता की उन्नति के लिए प्रयत्न किए। फारसी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया और विभिन्न भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया। इसी प्रकार अकबर ललित कलाओं की विभिन्न पद्धतियों में समन्वय स्थापित करने में सफल हुआ। चित्रकला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में इस समय किए गए नवीन प्रयोगों ने भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।

अकबर ने अनेक सामाजिक कुरीतियों के निराकरण के प्रयास किए। दास प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, वृद्ध विवाह आदि को रोकने का प्रयत्न किया। अकबर ने जिन उदार और नवीन सिद्धान्तों को जन्म दिया वे इतिहास में दर्ज करने योग्य हैं। उसने हिन्दू-मुसलमानों को निकट लाने का प्रयत्न किया। यद्यपि वह इस दिशा में अधिक सफल नहीं हो सका, परन्तु वह पहला मुस्लिम शासक था जिसने इस आवश्यकता को समझा और उसके लिए ठोस कदम उठाए। उसकी राजपूत एवं धार्मिक नीति हमारे कथन की पुष्टि करती हैं। उसकी न्यायिक प्रणाली भी इस सन्दर्भ में विचारणीय है। अकबर की नीति, भावना और प्रयत्न उसे एक राष्ट्रीय शासक के निकट ला खड़ा करते हैं।

इस प्रकार अकबर का चरित्र उदार और प्रभावशाली था। एक व्यक्ति, एक विजेता, एक शासक, एक राजनीतिज्ञ और एक बादशाह की दृष्टि से उसका जीवन सफल और प्रेरणा प्रदान करने वाला था। इसी कारण अकबर को ‘महान’ की पदवी से विभूषित किया गया है। डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव का मानना है कि “अकबर मध्ययुगीन भारत का सबसे महान् सम्राट था और वास्तव में इस देश के सम्पूर्ण इतिहास में सर्वश्रेष्ठ शासकों में से एक था।”

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