UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 2
Chapter NameShershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved22
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1540 ई०
2. 1542 ई०
3. 1543 ई० से मई 1544 ई०
4. 1545 ई०
5. 1556 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 पर ‘तिथि सार’ का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए। लघु

उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शेरशाह की प्रमुख विजयों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी की प्रमुख विजयों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् हैं

  1. गक्खर प्रदेश की विजय – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई कर उनके प्रदेश को बुरी तरक से रोंद डाला।
  2. बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने खिज्र खाँ को कैद करके बंगाल को जिलों में बाँटकर प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियंत्रण में दे दिया।
  3. मालवा की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने मालवा के शासक कादिरशाह को हराकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया।।
  4. रायसीना की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने रायसीना के शासक पूरनमल को हराया।
  5. मुल्तान व सिंध की विजय – सन् 1543 ई० में शेरशाह के सूबेदार हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान एवं सिंध पर अधिकार कर लिया।
  6. मारवाड़ पर विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने मालदेव के सेनापति नैता और कैंपा को हराया।
  7. मेवाड विजय – सन् 1544 ई० में मारवाड़ पर विजय प्राप्त करके वापस लौटते समय शेरशाह ने मेवाड़ को अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया।
  8. कालिंजर की विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने शासक कीरत सिंह को हराकर कालिंजर पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 2.
शेरशाह की सफलता के चार कारण लिखिए।
उतर.
शेरशाह की सफलता के चार प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं

  1. दृढ़-संकल्पी – शेरशाह दृढ़-संकल्पी व्यक्ति था। हुमायूँ को भारत की सीमा से बाहर निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।
  2. हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताएँ – हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं का लाभ उठाकर, शेरशाह दिल्ली का सिंहासन अपनी योग्यता के द्वारा छीनने में सफल रहा।।
  3. सैनिक प्रतिभा – शेरशाह ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, जिसमें उसकी सैनिक योग्यता की प्रमुख भूमिका थी।
  4. कूटनीतिज्ञ – चौसा और बिलग्राम के युद्धों में सैनिक प्रतिभा से अधिक शेरशाह ने अपनी कूटनीति से विजय प्राप्त की।

प्रश्न 3.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषाएँ लिखिए।
उतर.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. न्यायप्रियता – शेरशाह न्याय प्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय निष्पक्ष था तथा नियम भंग करने वाले अपराधी को | कठोर दण्ड मिलता था, चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो।
  2. प्रजा का भौतिक एवं नैतिक विकास – शेरशाह हालाँकि निरकुंश सुल्तान था तदापि उसने अपने सम्मुख प्रजाहित का आदर्श रखा। उसका विश्वास था कि सुल्तान को भगवान ने प्रजा का प्रधान बनाकर भेजा है तथा प्रजा का सर्वांगीण विकास करने का भार सुल्तान पर है।

प्रश्न 4.
शेरशाह के द्वारा भू-राजस्व के क्षेत्र में किए गए सुधारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह राज्य के किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था अच्छी मानी जाती थी। शेरशाह की लगान-व्यवस्था मुख्यतया रैवतवाडी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों- उत्तम, मध्यम और निम्न में बाँटा गया। लगान निश्चित करने की प्रणालियाँ निर्धारित की गई थीं। किसान लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे। यदि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि हो जाती थी तो उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

प्रश्न 5.
शेरशाह के चरित्र पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम् सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ तुलना की जाती है। शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। प्रजा के साथ वह उदारता एवं दयालुता पूर्ण व्यवहार करता था। उसके राज्य में प्रतिदिन भिखारियों का दान दिया जाता था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। शेरशाह मुस्लिम सम्राट था तदापि उसने हिन्दू व मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया। शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्य को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन करता था। शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह शासन के समस्त विभागों पर नियत्रंण रखता था।

शेरशाह विद्यानुरागी था। सुल्तान बनने के बाद उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। वह एक कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ था। हुमायूं के साथ उसने उच्चकोटि के सेनापति की तरह युद्ध लड़े। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा विजय प्राप्त की। शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। शेरशाह एक महत्वकांक्षी सुल्तान था, मुगलों को भारत से निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।

प्रश्न 6.
शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना कहाँ तक उचित है?
उतर.
शेरशाह को धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धान्त अपनाया था। वह ऐसा प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसकी दृष्टि में सम्पूर्ण प्रजा एक समान थी, चाहे वह किसी भी धर्म की अनुयायी क्यों न हो। एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते वह इस बात को भली-भाँति समझ चुका था कि हिन्दुओं के देश भारत में, जहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू है, धार्मिक अत्याचारों के आधार पर राज्य को
स्थायी नहीं किया जा सकता इस नीति के आधार पर शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना उचित है।

प्रश्न 7.
अकबर के अग्रगामी के रूप में शेरशाह का स्थान निर्धारित कीजिए।
उतर.
शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। यद्यपि दण्ड देने में वह कठोर एवं अनुदार था। अपनी दरिद्र जनता एवं कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था, तदापि भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों के साथ उसने समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर का अग्रगामी मान सकते हैं।

प्रश्न 8.
सूर-साम्राज्य के पतन के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
भारत में दिल्ली पर प्रथम सूर (अफगान) साम्राज्य को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में हुमायूँ को परास्त कर पुनः सूर साम्राज्य स्थापित किया। अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक रहा। सन् 1555 ई० में हुमायूँ ने मच्छीवाड़ा और सरहिन्द के युद्धों को जीतकर द्वितीय सूर साम्राज्य का पतन कर दिया। इस प्रकार सूर-साम्राज्य के पतन के चार प्रमुख कारण निम्नवत् हैं

  1. इस्लामशाह के उत्तराधिकारियों को अयोग्य होना।
  2. अफगानों का एक केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को स्वीकार न करना।
  3. इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात शासन-व्यवस्था का नष्ट होना।
  4. अफगान सरदारों की महत्वकाक्षाएँ एवं स्वतन्त्र प्रवृत्ति।

प्रश्न 9.
शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्गों का वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी का नाम सड़कों और सरायों के निर्माण के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने व्यापार की सुविधा के लिए लम्बी-लम्बी सड़कों का निर्माण कराया तथा देश के प्रमुख नगरों को सड़कों के द्वारा जोड़ दिया। शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्ग अग्रलिखित हैं

  1. ग्रांड-ट्रंक रोड़ जो बंगाल के सोनारगाँव से आगरा, दिल्ली और लाहौर होती हुई सिंध प्रांत तक जाती है।
  2. आगरा से बुरहानपुर तक।

प्रश्न 10.
शेरशाह और हुमायूँ के बीच हुए दो प्रमुख युद्धों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह और हुमायूं के बीच हुए दो प्रमुख युद्ध निम्न प्रकार हैं

  1. चौसा का युद्ध- सन् 1539 ई० में शेरशाह ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया।
  2. कन्नौज ( बिलग्राम ) का युद्ध- सन् 1540 ई० में शेरशाह ने कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

प्रश्न 11.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए क्या-क्या कार्य किए?
उतर.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए निम्नलिखित कार्य किए

  1. उत्तम न्याय व्यवस्था
  2. भूमिकर अथवा लगान में सुधार
  3. जन साधारण के जीवन एवं सम्मान की रक्षा के लिए पुलिस प्रशासन की व्यवस्था
  4. शिक्षा के लिए पाठशालाओं एवं मकतबों का निर्माण
  5. जन साधारण को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना
  6. सड़क एवं सरायों को निर्माण।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘शेरशाह की गणना मध्यकाल के महान् शासकों में की जाती है। इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
उतर.
शेरशाह महान् विजेता था। जूलियस सीजर, आगस्टस, हेनरी द्वितीय, एडवर्ड प्रथम, लुई चतुर्दश, अकबर महान् तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ उसकी तुलना की जा सकती है। वह एक महान् साम्राज्य का निर्माता था जिसे उसने अपनी योग्यता से प्राप्त किया था तथा जिसकी सुव्यवस्था के लिए उसने उच्च कोटि की शासन-व्यवस्था स्थापित की थी। पाँच वर्ष के अल्पकाल में उसने अराजकतापूर्ण एवं अव्यवस्थित देश को सुव्यवस्था एवं सुरक्षा प्रदान की थी।

मध्यकाल भारत के इतिहास में शेरशाह का अपना एक स्थान है। वह एक वीर सैनिक, चतुर सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ था। वह केवल विजय प्राप्त करने में विश्वास करता था और उसका मानना था कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भले-बुरे सभी साधनों का व्यवहार में लाना उचित है। वह एक सफल शासक था। उसे प्रजा के सुख का पूरा ध्यान था और उसकी भलाई के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता था। शासन-व्यवस्था के पुनर्गठन, भूमि का बन्दोबस्त, लगान, मुद्रा और व्यापार वाणिज्य में उसके द्वारा किए गये सुधारों के कारण मध्यकाल के महान् शासन-प्रबन्धकों में उसकी गणना की जाती है। शेरशाह 68 वर्ष की आयु में राजा बना था किन्तु यह वृद्धावस्था भी उसके उत्साह और आकाँक्षाओं को ठण्डा नहीं कर सकी। इस राय पर सभी इतिहासकार एकमत हैं कि शेरशाह सोलह घण्टे प्रतिदिन राजकाज में लगाता था।

अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा अकबर की भाँति उसकी भी यही आदर्श वाक्य था कि महान् व्यक्ति को सदैव चैतन्य रहना आवश्यक है। शेरशाह में एक सैनिक और सेनापति के गुणों का अभाव न था। वह सभी यद्धों में शौर्य के साथ चालाकी का प्रयोग भी करता था। एक धार्मिक मुसलमान की दृष्टि से वह अपने धार्मिक कृत्यों को विषमपूर्वक करता था। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है “कोई भी इतिहासकार अकबर के पहले के मुस्लिम शासकों के मध्य महानता, बुद्धिमानी और कार्यक्षमता के नाते शेरशाह को सर्वोच्च पद से वंचित नही रख सकता।”

प्रश्न 2.
शेरशाह के प्रशासन की विवेचना कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

(vi) पुलिस प्रशासन – शेरशाह के शासनकाल में सेना ही पुलिस का कार्य करती थी। इस विषय में शेरशाह ने स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर कार्य किया था। जिस क्षेत्र में जो अधिकारी था, उसी का उत्तरदायित्व उस क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित रखना था। विभिन्न सैनिक अपने-अपने क्षेत्रों में शान्ति स्थापित करते थे, चोरों एवं लुटेरों को पकड़ते थे तथा जनसाधारण के जीवन और सम्मान की रक्षा करते थे।

(vii) व्यापार-वाणिज्य – शेरशाह ने स्थान-स्थान पर दिए जाने वाले करों को समाप्त कर दिया। उसने केवल आयात कर और ‘बिक्री कर लेने के आदेश दिए थे। उसके सभी अधिकारियों को यह भी आदेश था कि व्यापारियों की सुरक्षा की जाए और उनके साथ सद्व्यवहार किया जाए।

(viii) न्याय व्यवस्था – शेरशाह स्वयं राज्य का बड़ा न्यायाधीश था और प्रत्येक बुधवार की शाम को स्वयं न्याय के लिए बैठता था। वह न्यायप्रिय शासक था। शेरशाह कहा करता था कि “न्याय करना सभी धार्मिक क्रियाओं में सर्वोत्तम है। इस बात को मुसलमान और काफिर दोनों के बादशाह मानते हैं।” उसने अत्याचारियों का कभी पक्ष नहीं लिया, चाहे वे उसके रिश्तेदार हों, प्रिय पुत्र हों या उसके प्रमुख सरदार हों। अपराध की गम्भीरता के अनुसार कैद, कोड़े, हाथ-पैर काटना, जुर्माना, फाँसी आदि दण्ड दिए जाते थे। शेरशाह के न्याय का आदर्श था- इंसान से इंसान का बर्ताव। शेरशाह के नीचे काजी होता था, जो न्याय विभाग का प्रमुख होता था। प्रत्येक सरकार में मुख्य शिकदार फौजदारी मुकदमे तथा मुख्य मुन्सिफ दीवानी मुकदमों की सुनवाई करते थे। परगनों में यह कार्य अमीन करते थे।

(ix) शेरशाह की इमारतें – इमारतें बनवाने का शेरशाह को बहुत शौक था। उसने अपनी उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नाम का एक दुर्ग बनवाया। दिल्ली का पुराना किला शेरशाह का बनवाया हुआ ही माना जाता है। इसी किले में उसने एक ऊँची मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारतीय और इस्लामी कला का मिला-जुला एक अच्छा उदाहरण है। परन्तु शेरशाह की सर्वश्रेष्ठ कृति सासाराम (बिहार) में स्थित उसका स्वयं का मकबरा है। सहसराम (सासाराम) में झील के बीचोंबीच एक चबूतरे पर बना हुआ शेरशाह का यह मकबरा नि:सन्देह भारत की श्रेष्ठतम इमारतों में से एक है।

(x) गुप्तचर और सूचना विभाग – शेरशाह का गुप्तचर और सूचना विभाग बहुत श्रेष्ठ था। प्रजा की रक्षा के लिए वह अपने अमीरों की प्रत्येक टुकड़ी के साथ विश्वासपात्र गुप्तचर भेजता था। प्रत्येक नगर और राज्य के दूर-दूर भागों में भी गुप्तचर एवं समाचार भेजने वालों की नियुक्ति की गई थी। यह विभाग ऐसी कुशलता से कार्य करता था कि उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को घटना का पता लगने से पहले ही शेरशाह को उसका पता चल जाता था। शेरशाह अपने गुप्तचरों और तेज चलने वाले सन्देशवाहकों के माध्यम से अपने सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियन्त्रण रखता था और यह काफी हद तक उनकी शासन-व्यवस्था की सफलता का आधार था।

(xi) शेरशाह का सैनिक-प्रबन्ध – शेरशाह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। अलाउद्दीन की भाँति उसने केन्द्र पर एक शक्तिशाली सेना रखी, जो सुल्तान की सेना थी। केन्द्र की सेना में 1,50,000 घुड़सवार, 25,000 पैदल और 5,000 हाथी थे। उसकी घुड़सवार सेना में मुख्यतया अफगान थे। बाकी अन्य वर्गों के मुसलमान और हिन्दू भी उसकी सेना में थे। सैनिकों को वेतन नकद दिया जाता था यद्यपि सरदारों को जागीरें दी जाती थी। बेईमानी रोकने के लिए उसने घोड़ों को दागने और सैनिकों का हुलिया लिखे जाने की प्रथाओं को अपनाया। शेरशाह के पास एक अच्छा तोपखाना भी था। इस प्रकार हम देखते हैं कि शेरशाह ने कम समय में एक अच्छी व्यवस्था की स्थापना की। जो इतिहासकार बाबर की प्रशासकीय अयोग्यता को समय की कमी कहकर माफ कर देते हैं, शेरशाह उनके लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण है। इस प्रकार शेरशाह ने अकबर के कार्य को भी सरल कर दिया क्योंकि अपने थोड़े समय में ही शेरशाह ने एक श्रेष्ठ शासन की पृष्ठभूमि का निर्माण किया, जिससे अकबर के लिए एक स्पष्ट रास्ता बन गया।

प्रश्न 3.
शेरशाह के प्रारम्भिक जीवन का उल्लेख कीजिए। वह भारत का शासक कैसे बना?
उतर.
शेरशाह का जन्म सासाराम शहर में हुआ था, जो अब बिहार के रोहतास जिले में है। शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था उसे शेर खाँ के नाम से जाना जाता था क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर कम उम्र में अकेले ही एक शेर को मारा था। उनका कुलनाम ‘सूरी’ उनके गृहनगर ‘सुर’ से लिया गया था। कन्नौज युद्ध में विजय के बाद शेर खाँ ने आगरा पर अधिकार किया ओर तभी से वह शेरशाह सूरी के नाम से भारत का सम्राट बना। शेरशाह सूरी के दादा इब्राहीम खान सूरी नारनौल क्षेत्र में एक जागीरदार थे, जो उस समय के दिल्ली के शासकों का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पिता हसन पंजाब में एक अफगान रईस जमाल खान की सेवा में थे।

शेरशाह के पिता की चार पत्नियाँ और आठ बच्चे थे। हसन अपनी चौथी पत्नी से अधिक प्रभावित था। शेरशाह को बचपन के दिनों में उसकी सौतेली माँ बहुत सताती थी, जिससे अप्रसन्न होकर उन्होंने घर छोड़ दिया और जौनपुर आकर अपनी पढ़ाई की। पढ़ाई पूरी कर शेरशाह 1522 ई० में जमाल खान की सेवा में चले गए, पर उनकी विमाता को यह पसंद नहीं आया। इसलिए उन्होंने जमाल खान की सेवा छोड़ दी और बिहार के स्वघोषित स्वतन्त्र शासक बहार खान लोहानी के दरबार में चले गए।

अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी जागीर का उत्तराधिकारी बनकर वे पुन: सासाराम वापस आ गए। परन्तु अपने सौतेले भाई के षड्यन्त्र के कारण उन्हें अपनी जागीर पुनः त्यागनी पड़ी। शेर खाँ ने पहले बाबर के लिए एक सैनिक के रूप में काम किया था तथा पूर्व में उसने अफगानों के विरुद्ध बाबर की सहायता भी की थी, जिस कारण से अफगान शेर खाँ से अप्रसन्न हो गए थे। किन्तु इसी समय बहार खाँ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र जलाल खाँ अभी अल्पव्यस्क था। जलाल खाँ की माता ने शेर खाँ को जलाल खाँ का संरक्षक नियुक्त कर दिया।

(i) जलाल खाँ के विरुद्ध विजय – शेर खाँ ने बिहार की इतनी अच्छी व्यवस्था की कि वहाँ की दरिद्र जनता पूर्ण रूप से शेर खाँ की समर्थक बन गई थी, परन्तु उसकी इस प्रसिद्धि से चिढ़कर कुछ सरदारों ने युवक जलाल खाँ के कान शेर खाँ के विरुद्ध भरने आरम्भ कर दिए अतः जलाल खा ने शेर खाँ से सत्ता वापस लेने का निश्चय किया, परन्त शेर खाँ वास्तविक शासक था और उसको सरलतापूर्वक दबाया नहीं जा सकता था। जलाल खाँ ने शेर खाँ से बिहार का राज्य प्राप्त करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया, परन्तु सूरजगढ़ के युद्ध (1534 ई०) में शेर खाँ ने जलाल खाँ को पराजित करके बिहार को पूर्णतया अपने अधिकार में ले लिया।

(ii) बंगाल पर आक्रमण – सूरजगढ़ की विजय से उत्साहित होकर शेर खाँ ने 1535 ई० में बंगाल के सुल्तान महमूद खाँ पर
आक्रमण कर दिया। इस बार महमूद खाँ ने शेर खाँ को धन देकर अपनी प्राण रक्षा की। परन्तु दो वर्ष के उपरान्त 1537 ई० में शेर खाँ ने पुनः बंगाल की राजधानी गौड़ पर घेरा डाल दिया तथा गौड़ पर विजय प्राप्त कर उसने सुल्तान महमूद को हुमायूं की शरण में जाने के लिए बाध्य कर दिया।

(iii) रोहतास के दुर्ग पर अधिकार – गौड़ को अधिकार में लेने के उपरान्त शेर खाँ ने रोहतास दुर्ग पर अधिकार किया। रोहतास दुर्ग उसने विश्वासघात के द्वारा प्राप्त किया। रोहतास दुर्ग के शासक हिन्दू राजा के साथ शेर खाँ के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, परन्तु रोहतास का राजनीतिक महत्व होने के कारण शेर खाँ उस पर अधिकार करना चाहता था। जब हुमायूँ ने गौड़ का घेरा डाला तब शेर खाँ ने राजा से रोहतास का दुर्ग उधार देने की प्रार्थना की। राजा ने शेर खाँ की शक्ति से भयभीत होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। शेर खाँ ने दुर्ग में पहुँचकर किले के सरंक्षकों की हत्या करवा दी और सम्पूर्ण राजकोष पर अधिकार कर लिया।

(iv) हुमायूँ के साथ संघर्ष – शेर खाँ तथा हुमायूँ का संघर्ष 1531 ई० से प्रारम्भ हुआ। 1531 ई० में दक्षिण बिहार पर शेर खाँ ने अधिकार करके सुप्रसिद्ध दुर्ग चुनार पर भी अधिकार कर लिया। जब हुमायूँ को यह सूचना मिली तो उसने शेर खाँ से चुनार त्यागने को कहा। लेकिन शेर खाँ ने चुनार दुर्ग का परित्याग नहीं किया, अतः अवज्ञा के कारण उसे दण्ड देने के लिए हुमायूं स्वयं सेना लेकर बिहार पहुँचा। शेर खाँ ने खुशामद के द्वारा हुमायूँ को राजी कर लिया और हुमायूँ ने चुनार उसी को सौंप दिया। ऐसा करने का कारण यह था कि हुमायूँ इस समय बहादुरशाह के साथ संघर्ष में संलग्न था। जब शेर खाँ ने सूरजगढ़ के युद्ध के द्वारा बिहार को पूर्णतया जीत लिया तथा 1537 ई० तक बंगाल पर भी उसका अधिकार हो गया तब हुमायूँ को उससे संघर्ष करना अनिवार्य हो गया। हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डालकर उसे जीत लिया, किन्तु इसी बीच शेर खाँ ने गौड़ तथा रोहतास के दुर्गों को अपने अधिकार में ले लिया तथा वह दुर्ग में सुरक्षित पहुँच गया।

(v) चौसा और कन्नौज के युद्धों में विजय – अन्त में चौसा के युद्ध (1539 ई०) में शेर खाँ ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया। चौसा का युद्ध शेर खाँ की शक्ति तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। इस युद्ध में विजय प्राप्त करके उसने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की तथा अगले वर्ष 1540 ई० में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

(vi) सूर वंश की स्थापना – 1540 ई० में हुमायूँ को देश निकाला देकर शेरशाह भारत का सम्राट बन गया और भारत में मुगल वंश के स्थान पर उसने सूर वंश की स्थापना की।

प्रश्न 4.
शेरशाह के चरित्र और उपलब्धियों का मूल्याकंन कीजिए तथा सूर-साम्राज्य के पतन के जिम्मेदार महत्वपूर्ण कारणों का भी उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ उसकी तुलना की जाती है। शेरशाह के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) उदारता एवं दयालुता – शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। वह दण्ड देने में यद्यपि कठोर एवं अनुदार था, किन्तु उस युग में कठोरता के बिना अपराध समाप्त नहीं किए जा सकते थे। अपनी दरिद्र जनता के लिए उसका व्यवहार बड़ा ही दयापूर्ण था। कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था तथा उसके | राज्य में प्रतिदिन भिखारियों को दान दिया जाता था।

(ii) धार्मिक सहिष्णुता – शेरशाह प्रथम मुस्लिम सम्राट था, जिसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि वह प्रतिदिन कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था. तथापि उसने भारत में हिन्दुओं व मसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर महान् का अग्रज मान सकते हैं।

(iii) कर्तव्यपरायण – शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्यों को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन भी करता था। बाल्यकाल से ही उसमें यह गुण विद्यमान था। सुल्तान बनने के उपरान्त भी वह अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहता था। वह दिन में 16 घण्टे कठोर परिश्रम करता था तथा अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था।

(iv) कठोर परिश्रमी – शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह दिन-रात परिश्रम करता था। इसी कारण वह अपने विलासी शत्रु हुमायूँ को पराजित कर सका। जिस समय को हुमायूं ने उत्सव और विलासिता में व्यतीत किया, उसी समय का सदुपयोग करके शेरशाह अपनी शक्ति बढ़ाने में सफल हुआ। वह छोटे-से-छोटे राज-काज की स्वयं देखभाल करता था। शासन के समस्त विभागों पर नियन्त्रण रखता था। इसी कारण वह अपने राज्य में सुव्यवस्था बनाए रखने में सफल रहा।

(v) विद्यानुरागी – शेरशाह को अधिक समय विद्याध्ययन के लिए नहीं मिल सका था तथापि उसे अध्ययन का बड़ा शौक था। जौनपुर में रहकर उसने स्वयं अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया तथा अनेक ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पुस्तकों के विषय में उसे पर्याप्त ज्ञान था। सुल्तान बनने के उपरान्त उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। उसके दरबार में अनेक विद्वानों को भी आश्रय प्राप्त था।

(vi) कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ – वह एक कुशल सेनापति था। हुमायूं के साथ लड़े गए युद्धों में हमें उसके उच्चकोटि के सेनापति होने के गुण दृष्टिगोचर होते हैं। अपनी कूटनीति के कारण चौसा के युद्ध में कौशल प्रदर्शित किए बिना ही वह विजयी बना। बंगाल एवं बिहार के यद्धों में भी उसने अपने रण-कौशल का परिचय दिया। दिल्ली का सल्तान बनने के उपरान्त भी वह निरन्तर युद्धों में संलग्न रहा तथा अनेक छोटे-छोटे राज्यों पर उसने विजय प्राप्त की। युद्ध में वह छल एवं बल दोनों का उचित प्रयोग जानता था। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा ही विजय प्राप्त की थी।

(vii) न्यायप्रिय – शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय की समुचित व्यवस्था थी। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। वह कठोर दण्ड में विश्वास करता था, जिससे अपराध सदा के लिए समाप्त हो जाएँ।

सूर साम्राज्य के पतन के कारण – भारत में दिल्ली पर प्रथम अफगान सत्ता को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को परास्त करके दिल्ली में मुगल वंश की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में बाबर के उत्तराधिकारी बादशाह हुमायूँ को दो युद्धों में परास्त करके दिल्ली में पुनः द्वितीय अफगान सत्ता स्थापित की। परन्तु अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक ही रहा। 1555 ई० में हुमायूँ ने क्रमश: ‘मच्छीवाड़ा’ और ‘सरहिन्द’ के युद्धों को जीतकर द्वितीय अफगान सत्ता को समाप्त कर दिया। इस प्रकार द्वितीय अफगान (सूर) साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण हैं

(i) इस्लामशाह के अयोग्य उत्तराधिकारी – इस्लामशाह का उत्तराधिकारी उसका अल्पायु पुत्र फीरोज था, जिसको तीन दिन पश्चात् ही उसके मामा मुबारिज खाँ ने मरवा डाला और आदिलशाह के नाम से स्वयं सुल्तान बन गया। परन्तु वह अयोग्य सिद्ध हुआ। इसी प्रकार इब्राहीम शाह और सिकन्दरशाह भी अयोग्य सिद्ध हुए। इनमें से कोई भी सूर साम्राज्य के विघटन को रोकने में सफल नहीं हुआ और सूर साम्राज्य खण्डित हो गया।

(ii) अफगानों की स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति – सूर साम्राज्य की असफलता का मूल कारण अफगानों का एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था को स्वीकार न करना था। अफगान आवश्यकता से अधिक अपने अधिकारों की स्वतन्त्रता पर बल देते थे, जिसके कारण वे एक सुल्तान के शासन के अधीन रहना पसन्द नहीं करते थे। इस कारण सुल्तान के दुर्बल या अयोग्य होते ही उनकी स्वतन्त्रता की महत्वाकाँक्षाएँ सम्मुख आ जाती थीं और वे पारस्परिक संघर्ष में फँस जाते थे। इससे साम्राज्य की एकता को क्षति पहुँचती थी, जो किसी भी साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार होती हैं।

(iii) प्रशासकीय कठिनाइयाँ – शेरशाह ने अपने शासनकाल में ही अपने विशाल साम्राज्य में श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। किन्त उसकी और उसके उत्तराधिकारी इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात् अफगानों में सिंहासन को प्राप्त करने के लिए पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हुआ, जिससे यह व्यवस्था नष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त आर्थिक कठिनाइयाँ भी उत्पन्न हो गई थीं। अफगान साम्राज्य के विभाजित हो जाने के कारण दिल्ली के शासक सिकन्दर लोदी के पास पर्याप्त सैनिक साधन भी उलपब्ध नहीं हो सके। फलत: मुगल सेना अफगान सेना से श्रेष्ठ सिद्ध हुई तथा हुमायूँ ने सिकन्दर लोदी को सरलता से परास्त करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया।

(iv) इस्लामशाह का उत्तरदायित्व – इस्लामशाह नि:सन्देह शेरशाह का योग्य उत्तराधिकारी था, परन्तु उसी के शासनकाल में अफगानों में आपस में तीव्र विभाजन हो गया। वह अपने सरदारों के प्रति शंकालु हो गया था और उसने अपने कई सरदारों को मरवा भी दिया। इसी कारण उसके विरुद्ध विद्रोह हो गया। वह विद्रोह को दबाने में तो सफल रहा किन्तु अफगान सरदारों की वफादारी पाने में असफल रहा। उसकी मृत्यु होते ही अफगान सरदारों की व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ और स्वतन्त्र प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में सामने आ गई, जिनकी परिणति सूर साम्राज्य के पतन के रूप में हुई।

प्रश्न 5.
शेरशाह एक कुशल विजेता एवं प्रशासक था।प्रस्तुत कथन के आलोक में उसकी उपलब्धियों की समीक्षा कीजिए।
उतर.
कुशल विजेता एवं प्रशासक के रूप में शेरशाह की उपलब्धियाँ निम्नलिखित थीं
(i) गक्खर प्रदेश की विजय (1541 ई०) – शेरशाह का उद्देश्य बोलन दरें और पेशावर से आने वाले मार्गों को मुगलों के आक्रमण से सुरक्षित करना था। अत: झेलम और सिन्धु नदी के उत्तर में स्थित गक्खर प्रदेश पर अधिकार करना आवश्यक था क्योंकि इसकी स्थिति बड़ी ही महत्वपूर्ण थी। शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई की और उनके प्रदेश को बुरी तरह रौंद डाला, परन्तु उनकी शक्ति को समाप्त न कर सका। अनेक गक्खर सरदार इसके बाद भी शेरशाह का विरोध करते रहे। शेरशाह ने वहाँ रोहतासगढ़ नामक एक विशाल दुर्ग बनाया, जिससे उत्तरी सीमा की रक्षा और गक्खों की रोकथाम कर सके। शेरशाह ने वहाँ हैबत खाँ और खवास खाँ के नेतृत्व में 50,000 अफगान सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैनात की।

(ii) बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था (1541 ई०) – शेरशाह की एक वर्ष से अधिक की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर बंगाल का गवर्नर खिज्र खाँ स्वतन्त्र शासक बनने के स्वप्न देखने लगा। उसने बंगाल के मृत सुल्तान महमूद की लड़की से शादी कर ली और एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा। शेरशाह शीघ्रता से बंगाल आया और गौड़ पहुँचकर उसने खिज्र खाँ को कैद कर लिया। बंगाल जैसे दूरस्थ और धनवान सूबे में विद्रोह की आशंकाओं को समाप्त करने के लिए शेरशाह ने वहाँ एक अन्य प्रकार की शासन-व्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल को सरकारों (जिलों) में बाँटकर उनमें से प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियन्त्रण में दे दिया। इन शिकदारों की नियुक्ति बादशाह ही करता था। इन शिकदारों की देखभाल के लिए फजीलत नामक व्यक्ति को प्रान्त के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बंगाल में किसी भी अधिकारी के पास एक बड़ी सेना न रही, जिससे उनमें से कोई भी विद्रोह की स्थिति में न रहा।

(iii) मालवा की विजय( 1542 ई०) – बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् मालवा के सूबेदार मल्लू खाँ ने 1537 ई० में स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और मालवा पर अधिकार करके कादिरशाह की उपाधि प्राप्त की। सारंगपुर, माण्डू उज्जैन और रणथम्भौर के मजबूत किले उसके अधिकार में थे। उसने शेरशाह के आधिपत्य को मानने से इन्कार कर दिया। शेरशाह ने अपने राज्य की सुरक्षा और एकता के लिए मालवा पर आक्रमण कर दिया। 1542 ई० में कादिरशाह ने डरकर सारंगपुर में आत्मसमर्पण कर दिया। शेरशाह ने मालवा पर अधिकार करके शुजात खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया और कादिरशाह को लखनौती व कालपी की जागीरें दीं। परन्तु कादिरशाह अपनी जान बचाकर गुजरात भाग गया। वापस आते समय शेरशाह ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर उसे अपनी अधीनता में ले लिया। अतः ग्वालियर, माण्डू, उज्जैन, सारंगपुर, रणथम्भौर आदि शेरशाह के अधिकार में आ गए।

(iv) रायसीन की विजय (1543 ई०) – 1542 ई० में रायसीन के शासक पूरनमल ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली थी किन्तु शेरशाह को सूचना मिली कि पूरनमल मुस्लिम लोगों से अच्छा व्यवहार नहीं करता। अत: 1543 ई० में शेरशाह ने रायसीन को घेरे में ले लिया। कई माह तक रायसीन के किले का घेरा पड़ा रहा परन्तु शेरशाह को सफलता न मिली। अन्त । में शेरशाह ने चालाकी से काम लिया। उसने कुरान पर हाथ रखकर शपथ ली कि यदि किला उसे सौंप दिया जाए तो वह पूरनमल, उसके आत्मसम्मान एवं जीवन को हानि नहीं पहुंचाएगा। इस पर पूरनमल ने आत्मसमर्पण कर दिया। किन्तु मुस्लिम जनता के आग्रह पर शेरशाह ने राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूत जी-जान से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक राजपूत स्त्रियों ने जौहर (आत्मदाह) कर लिया किन्तु दुर्भाग्य से थोड़ी-सी राजपूत स्त्रियाँ और बच्चे जीवित रह गए, उन्हें गुलाम बना लिया गया। डा० ए०एल० श्रीवास्तव के अनुसार- पूरनमल के साथ शेरशाह का यह विश्वासघात उसके नाम पर बहुत बड़ा कलंक है।

(v) मुल्तान व सिन्धविजय(1543 ई०) – शेरशाह ने खवास खाँ को पंजाब से वापस बुलाकर वहाँ हैबत खाँ को सूबेदार के रूप में नियुक्त किया। हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने हुमायूँ का पीछा करने के दौरान (1541ई०) ही सिन्ध पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार उत्तर-पश्चिम में शेरशाह के राज्य के अन्तर्गत पंजाब प्रान्त के अतिरिक्त मुल्तान और सिन्ध भी सम्मिलित हो गए।

(vi) मारवाड़ विजय( नवम्बर (1543 से मई 1544 ई० ) – मारवाड़ का शासक इस समय राजा मालदेव था। ईष्र्यांवश कुछ राजपूतों ने शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भड़काया तथा इस युद्ध में उसकी सहायता करने का भी वचन दिया। शेरशाह ने तुरंत ही एक सेना लेकर मारवाड़ की ओर कूच किया तथा 1544 ई० में मारवाड़ की राजधानी जोधपुर को घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु मालदेव के वीर सैनिकों के सम्मुख शेरशाह की एक न चली।। अन्त में बल से विजय प्राप्त करने में असमर्थ शेरशाह ने छल-कपट का आश्रय लिया। शेरशाह अन्त में विजयी रहा। लेकिन इस युद्ध के बाद शेरशाह को यह कहना पड़ा कि मैंने केवल दो मुट्ठी बाजरे के लिए अपना सम्पूर्ण साम्राज्य ही दाँव पर लगा दिया था।

(vii) मेवाड़ विजय (1544 ई०) – मेवाड़ के वीर सम्राट राणा साँगा इस समय मर चुके थे और उनके अल्पव्यस्क पुत्र उदयसिहं मेवाड़ के राजा थे, जिनकी अल्पायु से लाभ उठाकर बनबीर मेवाड़ का सर्वेसर्वा बन बैठा था। ऐसे समय में शेरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

(viii) कालिंजर विजय (1545 ई०) – शेरशाह की अन्तिम विजय कालिंजर पर हुई। कालिंजर का दुर्ग बड़ा सुदृढ़ एवं अभेद्य माना जाता है। नवम्बर 1544 ई० में उसने दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया, लेकिन एक वर्ष तक घेरा डाले रखने पर भी शेरशाह उस पर अधिकार न कर सका। तब उसने दुर्ग की दीवारों को गोला-बारूद से उड़ाने का निश्चय किया तथा दुर्ग के चारों ओर मिट्टी एवं बालू के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगवा दिए। जब ढेर दुर्ग की दीवारों से भी ऊँचे हो गए तब शेरशाह सूरी की आज्ञानुसार 22 मई, 1545 ई० को अफगान सैनिकों ने इन पर चढ़कर दुर्ग में स्थित राजपूतों का संहार करना आरम्भ कर दिया। इसी समय शेरशाह नीचे से तोपखाने का निरीक्षण कर रहा था, तभी एक गोला फटने से उसे बहुत चोट आई; तथापि उसने आक्रमण को निरन्तर जारी रखने की आज्ञा दी तथा शाम तक दुर्ग पर उसका अधिकार हो गया।

(ix) साम्राज्य का विस्तार – शेरशाह ने अपनी मृत्यु के समय तक असोम, कश्मीर और गुजरात को छोड़कर उत्तर-भारत के प्रायः सम्पूर्ण भू-प्रदेश पर अपनी सत्ता को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शेरशाह एक विस्तृत साम्राज्य के संस्थापक के अतिरिक्त एक महान शासन-प्रबन्धक भी था, जिसके कारण उसकी गिनती मध्य युग के श्रेष्ठ शासकों में होती है।

प्रश्न 6.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। उसे अकबर का पथ-प्रदर्शक क्यों कहा गया?
उतर.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था – शेरशाह की शासन-व्यवस्था के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-2 का अवलोकन कीजिए। शेरशाह अकबर का पथ-प्रदर्शक- एक शासन-व्यवस्था की दष्टि से शेरशाह को अकबर का अग्रणी (पथ-प्रदर्शक) माना गया है। शेरशाह के सैनिक प्रबन्ध, सरदारों पर उसके नियन्त्रण, उसकी न्याय की भावना, उसकी प्रजा के हित की भावना और शासन के मूल सिद्धान्त आदि सभी का अकबर ने पूर्ण लाभ उठाया। शेरशाह ने राजपूतों से अधीनता स्वीकार कराकर उनके राज्य उन्हें वापस कर दिये थे। अकबर ने इसको और विस्तार से अपनाया।

शेरशाह की लगान व्यवस्था भी अकबर के लिए मार्गदर्शक बनी। शेरशाह के किसानों, व्यापारियों और जन-हित के कार्यों को अकबर ने यथावत् रूप से स्वीकार कर लिया। नि:सन्देह शेरशाह ने अकबर के शासन की आधारशिला का निर्माण किया और उसका अग्रणी अथवा पथ-प्रदर्शक बना। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने लिखा है “यदि शेरशाह अधिक समय तक जीवित रहता तो सम्भवतया वह अकबर से महान् हो जाता। नि:सन्देह, वह दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ सुल्तान-राजनीतिज्ञों में से एक था। निश्चय ही उसने अकबर की महान् उदार नीति के मार्ग का निर्माण किया और वह सही अर्थों में उसका अग्रणी था।”

प्रश्न 7.
शेरशाह सूरी के शासन-प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

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