UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 10 Development of Social and National Consciousness (सामाजिक चेतना व राष्ट्रीय भावना का विकास)

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 10 Development of Social and National Consciousness

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 10
Chapter NameDevelopment of Social and
National Consciousness
(सामाजिक चेतना व राष्ट्रीय
भावना का विकास)
Number of Questions Solved24
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 10 Development of Social and National Consciousness (सामाजिक चेतना व राष्ट्रीय भावना का विकास)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धार्मिक सुधार के क्षेत्र में आर्य समाज की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने हिन्दुओं को उपदेश देकर उन्हें अत्यन्त सरलता से प्राचीन धर्म की विशेषताओं, भारतीय संस्कृति की अच्छाईयों और शुद्ध जीवन के लाभों से परिचित कराया तथा उनकी सुप्त चेतना को जाग्रत किया।

प्रश्न 2.
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के प्रमुख सिद्धान्तों की तुलनात्मक विवेचना कीजिए।
उतर:
मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म, ये ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त थे। आर्य समाज ने निराकार परमेश्वर की सत्ता को महत्व दिया और मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तथा बाहरी दिखाने का डटकर विरोध किया। ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज दोनों ही छुआछूत, बाल विवाह, कन्या वध सती प्रथा अंधविश्वास आदि कुरीतियों का खण्डन कर भारत को धर्म, समाज, शिक्षा एवं राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 3.
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की किन्हीं दो विभिन्नताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की दो विभिन्नताएँ निम्न प्रकार हैं

  1. ब्रह्म समाज के अनुसार सभी धर्मों के उपदेश सत्य हैं, उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जबकि आर्य समाज के अनुसार वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक हैं। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है।
  2. ब्रह्म समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक ही सीमित है जबकि आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव समाज के छोटे तथा निम्न से निम्न वर्ग तक है।

प्रश्न 4.
19वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की दो प्रमुख विशेषताएँ

  1. 19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलनों ने भारत में समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया।
  2. पुनर्जागरण से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ भारतीय विदेशी दासता से मुक्ति पाने हेतु अंग्रेजों से संघर्ष करने को तत्पर हो गए।

प्रश्न 5.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन एवं कार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में 1824 ई० के हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। 21 वर्ष की अवस्था में मन की अशांति को दूर करने तथा ज्ञान की खोज में ग्रह-त्याग दिया। पाणिनी व्याकरण के विद्वान विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण कर संस्कृत व्याकरण, दर्शन, धर्मशास्त्र और वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय लोग अनेक रुढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वरभक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी। शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द सरस्वती का उल्लेखनीय योगदान रहा। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।

प्रश्न 6.
स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियों के नाम लिखिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं|

  • सत्यार्थ प्रकाश
  • वेदभाष्य भूमिका
  • वेदभाष्य।

प्रश्न 7.
स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के क्या कारण थे?
उतर:
शिकागों में सर्व – धर्म विश्व सम्मेलन में प्राप्त प्रतिष्ठा, रामकृष्ण मिशन की स्थापना और समाज सेवा स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के कारण थे।

प्रश्न 8.
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
उतर:
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे|

  • धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन
  • राजनीतिक एकता की स्थापना
  • पाश्चात्य साहित्य
  • पाश्चात्य शिक्षा
  • समाचार पत्रों का प्रभाव
  • आर्थिक शोषण
  • जातीय भेदभाव की नीति का प्रभाव
  • अन्य देशों की जागृति का प्रभाव
  • सरकार के असन्तोषजनक कार्य
  • प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध

प्रश्न 9.
स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं

  • सब सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका मूल परमेश्वर है।
  • ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, अजन्मा, सर्वव्यापकता, अजर-अमर, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी चाहिए।
  • वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदों को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है।
  • सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सदा उद्यत रहना चाहिए।
  • सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
  • संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
  • व्यक्ति के साथ उसके गुणों के अनुरूप प्रेम तथा न्याय का व्यवहार करना चाहिए।
  • अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
  • प्रत्येक को अपनी उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
  • व्यक्ति को आचरण की स्वतन्त्रता व्यक्तिगत क्षेत्र में होनी चाहिए, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में लोककल्याण को सर्वोपरि मानना चाहिए। सार्वजनिक हित के समक्ष व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का महत्त्व नहीं है।

प्रश्न 10.
थियोसोफिकल सोसायटी के विषय से आप क्या समझते हैं?
उतर:
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1857 ई० में अमेरिकी कर्नल हेनरी स्टील अल्काट तथा एक रूसी महिला मैडम हेलेन पेट्रोवना ब्लेवस्ट्स्की द्वारा, न्यूयार्क में की गई। भारत में इस संस्था का मुख्यालय 1893 ई० में मद्रास के समीप अड्यार नामक स्थान पर खोला गया। भारत में इस संस्था की अध्यक्ष एक आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट बनी। थियोसोफिकल सोसायटी का गठन सभी प्राचीन धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इस संस्था ने प्राचीन हिन्दू धर्म को अत्यधिक गूढ़ व आध्यात्मिक माना। थियोसोफिकल सोसायटी के प्रचारकों ने हिन्दू धर्म की बहुत प्रशंसा की तथा इस धर्म के विचारों का प्रचार किया। इस संस्था ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का भी प्रयत्न किया। इस संस्था का विश्वास सभी धर्मों के मूल सिद्धान्तों में था।

प्रश्न 11.
भारत में मुस्लिम समाज के लिए कौन-कौन से सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए?
उतर:
भारत में मुस्लिम समाज के लिए निम्नलिखित सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए

  • अलीगढ़ आन्दोलन
  • बहावी आन्दोलन
  • अहमदिया आन्दोलन
  • देवबन्द आन्दोलन।

प्रश्न 12.
राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए कौन-सी संस्था का गठन किया?
उतर:
राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए ‘ब्रह्म समाज’ नामक संस्था का गठन किया।

प्रश्न 13.
रामकृष्ण परमहंस कौन थे?
उतर:
रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक गुरु थे। वे उन्नीसवीं शताब्दी के महान चिन्तक थे। उनका बचपन का नाम गदाधर चटर्जी था।

प्रश्न 14.
भारत में नवनिर्माण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उतर:
भारत में प्रथम रेलमार्ग 1803 ई० में प्रारम्भ हो गया था, जबकि भारत में इसकी व्यवस्था 1853 ई० में हुई। 1856 ई० तक भारत के विभिन्न भागों में रेल लाइनें बिछ गई। 1852 ई० में भारत में विद्युत टेलीग्राफ पद्धति का सूत्रपात हुआ। पहली टेलीग्राफ लाइन 1854 ई० में कलकत्ता से आगरा तक खोली गई, जो 1857 तक लाहौर और पेशावर तक फैल गई। टेलीग्राफ पद्धति द्वारा दूर स्थानों पर बैठे व्यक्तियों के विचारों और संदेशों के आदान-प्रदान से भारतीयों में नवचेतना का विकास हुआ। सन् 1854 ई० में लॉर्ड डलहौजी ने भारतीयों व विदेशियों के साथ नियमित डाक व्यवस्था के लिए पोस्ट ऑफिस ऐक्ट लागू किया। इसी क्रम में डाक टिकटों का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार ब्रिटिश शासनकाल में भारत का नवनिर्माण हुआ, जिसने भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास कर दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज सुधारक एवं धर्म सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के राधानगर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जा सकता है। वे एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों में अपने धर्म एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रति चेतना उत्पन्न की और अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार भी किए। धार्मिक सुधार- आधुनिक भारत के धार्मिक जागरण का प्रारम्भ राजा राममोहन राय से ही होता है। उन्होंने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को अन्धविश्वास तथा आडम्बरों के जाल से मुक्त किया।

उस समय रूढ़ियों, ढोंगों तथा आडम्बरों की भारी तह ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक लिया था। ईसाई पादरी, हिन्दू धर्म के आडम्बरों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़ेलिखे भारतीय नवयुवक द्रुतगति से ईसाइयत की ओर दौड़ रहे थे। राजा राममोहन राय इस स्थिति को देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने हिन्दू धर्म के यज्ञ-सम्बन्धी कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा तथा जातिवाद का खण्डन किया। उन्होंने फारसी में तुहफत-उलमुवाहिदीन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें मूर्तिपूजा का खण्डन तथा एकेश्वरवाद की प्रशंसा की गई थी। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदान्त का टीका सहित अनुवाद किया। वे वेदान्त को हिन्दुत्व का आधार बनाना चाहते थे।

हिन्दू समाज में नए धार्मिक विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) में 1815 ई० में ‘आत्मीय सभा तथा 1816 ई० में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की और अन्त में 20 अगस्त, 1828 को शुद्ध एकेश्वरवादियों की उपासना के लिए उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों का पाठ हुआ करता था। इसमें मूर्तिपूजा तथा अवतार के सिद्धान्तों को नहीं माना गया था। वस्तुतः राममोहन राय विश्व बन्धुत्व तथा मानस प्रेम के पुजारी थे। उनकी निष्ठा किसी सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित न थी। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म ये राममोहन राय के प्रमुख सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर वे हिन्दुत्व का संशोधन करना चाहते थे।

उनकी इच्छा थी कि भारत, यूरोप से विज्ञान को ग्रहण करे और साथ ही अपने धर्म का बुद्धिसम्मत रूप संसार के सामने रखे। प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा आधुनिक प्रगतिवाद के बीच राजा राममोहन राय एक महान् पुल थे। इनकी मृत्यु इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल में 1833 ई० में हुई। मिस काटेल ने उनकी जीवनी में लिखा है- “इतिहास में राममोहन राय का स्थान उस महासेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है।

समाज सुधार- राजा राममोहन राय हिन्दू समाज की दशा सुधारने को बहुत उत्सुक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित बहुविवाह तथा बालविवाह जैसी बुराइयों का खण्डन किया। स्त्री शिक्षा तथा स्त्रियों के समानाधिकार के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध शास्त्रार्थ नामक ग्रन्थ में कई निबन्ध लिखे। 1829 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर इसके विरुद्ध बड़ा कानून बना दिया। यह कानून राममोहन राय के आन्दोलन का ही फल था। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

उपरोक्त विवेचना के आधार पर राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण के महान जनक की संज्ञा दी जा सकती है।

प्रश्न 2.
आधुनिक भारत के पुनर्जागरण में स्वामी दयानन्द के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करने में आर्य समाज का विशेष योगदान है। आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा 1875 ई० में हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का काल समाज में घोर असमानता और अन्याय का युग था। भारतीय लोग अनेक रूढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वर-भक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी।

शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके अनुयायियों के सहयोग से स्थान-स्थान पर डी०ए०वी० स्कूलों, गुरुकुलों एवं कन्या पाठशालाओं की स्थापना की गई। उन्होंने आश्रम-व्यवस्था को महत्व दिया। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था को गुण व कर्म के अनुसार ही मानना चाहिए। ये छुआछूत, बालविवाह, कन्या वध, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के विरोधी थे। दयानन्द ने राष्ट्रीय जागरण के क्षेत्र में स्वभाषा, स्वधर्म और स्वराज्य पर बल दिया। इनका मानना था कि समस्त ज्ञान वेदों में ही नीहित हैं, इसलिए ‘पुनः वेद की ओर चलो’ का नारा दिया। दयानन्द पहले भारतीय थे, जिन्होंने सभी व्यक्तियों को (शूद्रों एवं स्त्रियों को भी) वेदों के अध्ययन एवं इसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया।

आर्यसमाज का राजनीतिक जागृति में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है दयानन्द का लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।” आर०सी० मजूमदार ने लिखा है- “आर्य-समाज प्रारम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। उसका मुख्य स्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था।” इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला।

इस प्रकार आर्य समाज ने भारत को धर्म, समाज, शिक्षा और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया है। इसी कारण ब्रह्म समाज आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया है। रामकृष्ण मिशन का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक सीमित है, आर्य समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है, अपितु हमारे समाज के छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है और एक सीमित क्षेत्र में आज भी उसे एक जन-आन्दोलन स्वीकार किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक चेतना में स्वामी विवेकानन्द के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उतर:
स्वामी विवेकानन्द ने आध्यात्मवाद को पुनर्जन्म देकर हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करके उसे ईसाई तथा इस्लाम के आक्रमणों एवं प्रभाव से बचाया। स्वामी जी राष्ट्रीयता के पोषक थे। उन्होंने देश के नवयुवकों में सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास किया और उन्हें “उठो जागो और तब तक न रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो” का सन्देश दिया।

1893 ई० में, वे शिकागो में सर्व-धर्म विश्व सम्मेलन में भाग लेने गए। वहाँ उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी में अपने विचारों और सिद्धान्तों को व्यक्त किया, जिसका वहाँ उपस्थित सभी धर्मों के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा हिन्दू धर्म अति महान् है, क्योंकि यह सभी धर्मों की अच्छाइयों को समान रूप से स्वीकार करता है।” उन्होंने अमेरिकी लोगों की नीति की आलोचना करते हुए लिखा है- “आप लोग अपने ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए तो भारत में असीम धन व्यय कर सकते हैं, लेकिन भारतवासियों की गरीबी और भुखमरी को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर सकते। भारत में धर्म का अभाव नहीं, धन का अभाव है।” उन्होंने गर्वपूर्वक घोषणा की थी कि यदि विश्वमण्डल के किसी भू-क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जा सकता है, तो निश्चित रूप से वह भारतवर्ष ही है।

विदेशों से लौटने के बाद विवेकानन्द ने समाजसेवा को व्यवस्थित रूप देने के उद्देश्य से ‘रामकृष्ण मिशन’ नाम से एक नया संगठन 5 मई 1897 में स्थापित किया। इस संगठन की ओर से दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़ आदि आपदाओं के समय सहायता कार्य किये गये। विवेकानन्द ने बताया कि मोक्ष संन्यास से नहीं बल्कि मानव मात्र की सेवा से प्राप्त होता है। उनका तर्क था कि शिक्षा सामाजिक बुराईयों को दूर करने का सबसे सशक्त माध्यम है। सत्य के बारे में उनका मानना था कि किसी बात पर यह सोचकर विश्वास न करो कि तुमने उसको किसी पुस्तक में पढ़ा है अथवा किसी ने ऐसा कहा है, अपितु स्वयं सत्य की खोज करो।”

विवेकानन्द ने कभी भी सीधे तौर पर ब्रिटिश नीतियों के विरोध में अथवा राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में प्रचार नहीं किया लेकिन सुधार, एकता, जागरण और स्वतन्त्रता के प्रति उनके सभी प्रवचनों के परिणामस्वरूप ही राष्ट्रवाद की सशक्त भावना प्रवाहित हुई। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को सम्बोधित करते हुए कहा, “जब तक भारत में करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से ग्रसित होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तब तक मैं प्रत्येक उस व्यक्ति को देशद्रोही समझेंगा, जो उनके खर्च से शिक्षित होने के बाद उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।” रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विवेकानन्द को ‘सृजन की प्रतिभा’ कहा है। वे अमेरिका में तूफानी हिन्दू’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है कि “उनमें बुद्ध का हृदय और शंकराचार्य की बुद्धि थी तथा वह आधुनिक भारत के निर्माता थे।

इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, गौरव, समाज और राष्ट्रीयता के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कारण रामकृष्णन मिशन, भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन गया और आधुनिक समय में वह विभिन्न क्षेत्रों में भारत की सेवा कर रहा है।

प्रश्न 4.
“राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के जनक थे।”इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के राधानगर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जा सकता है। वे एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों में अपने धर्म एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रति चेतना उत्पन्न की और अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार भी किए। धार्मिक सुधार- आधुनिक भारत के धार्मिक जागरण का प्रारम्भ राजा राममोहन राय से ही होता है। उन्होंने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को अन्धविश्वास तथा आडम्बरों के जाल से मुक्त किया।

उस समय रूढ़ियों, ढोंगों तथा आडम्बरों की भारी तह ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक लिया था। ईसाई पादरी, हिन्दू धर्म के आडम्बरों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़ेलिखे भारतीय नवयुवक द्रुतगति से ईसाइयत की ओर दौड़ रहे थे। राजा राममोहन राय इस स्थिति को देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने हिन्दू धर्म के यज्ञ-सम्बन्धी कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा तथा जातिवाद का खण्डन किया। उन्होंने फारसी में तुहफत-उलमुवाहिदीन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें मूर्तिपूजा का खण्डन तथा एकेश्वरवाद की प्रशंसा की गई थी। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदान्त का टीका सहित अनुवाद किया। वे वेदान्त को हिन्दुत्व का आधार बनाना चाहते थे।

हिन्दू समाज में नए धार्मिक विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) में 1815 ई० में ‘आत्मीय सभा तथा 1816 ई० में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की और अन्त में 20 अगस्त, 1828 को शुद्ध एकेश्वरवादियों की उपासना के लिए उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों का पाठ हुआ करता था। इसमें मूर्तिपूजा तथा अवतार के सिद्धान्तों को नहीं माना गया था। वस्तुतः राममोहन राय विश्व बन्धुत्व तथा मानस प्रेम के पुजारी थे। उनकी निष्ठा किसी सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित न थी। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म ये राममोहन राय के प्रमुख सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर वे हिन्दुत्व का संशोधन करना चाहते थे।

उनकी इच्छा थी कि भारत, यूरोप से विज्ञान को ग्रहण करे और साथ ही अपने धर्म का बुद्धिसम्मत रूप संसार के सामने रखे। प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा आधुनिक प्रगतिवाद के बीच राजा राममोहन राय एक महान् पुल थे। इनकी मृत्यु इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल में 1833 ई० में हुई। मिस काटेल ने उनकी जीवनी में लिखा है- “इतिहास में राममोहन राय का स्थान उस महासेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है।

समाज सुधार- राजा राममोहन राय हिन्दू समाज की दशा सुधारने को बहुत उत्सुक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित बहुविवाह तथा बालविवाह जैसी बुराइयों का खण्डन किया। स्त्री शिक्षा तथा स्त्रियों के समानाधिकार के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध शास्त्रार्थ नामक ग्रन्थ में कई निबन्ध लिखे। 1829 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर इसके विरुद्ध बड़ा कानून बना दिया। यह कानून राममोहन राय के आन्दोलन का ही फल था। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

उपरोक्त विवेचना के आधार पर राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण के महान जनक की संज्ञा दी जा सकती है।

प्रश्न 5.
स्वामी विवेकानन्द व उनके योगदान पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
स्वामी विवेकानन्द- स्वामी विवेकानन्द का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 ई० को कलकत्ता में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही नरेन्द्रनाथ दत्त प्रत्येक बात को तर्क के आधार पर समझकर ही स्वीकार करते थे। छात्र जीवन में वे पश्चिमी विचार धारा के कट्टर थे। लेकिन भारतीय संस्कृति के अग्रदूत रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने पर उनकी विचारधारा बदल गई। वे इस निर्णय पर पहुँचे कि सत्य या ईश्वर को जानने का सच्चा मार्ग, अनुरागपूर्ण साधना का मार्ग ही है। अपनी इस विचारधारा के कारण, वे रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानन्द के योगदान- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 6.
उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में समाज-सुधार आन्दोलनों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
लगभग दो सौ वर्षों (1757-1947 ई०) तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में अंग्रेज भारतीयों से बहुत आगे थे। यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला, विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में दूरगामी और क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पहले तो पश्चिम सभ्यता के सम्पर्क से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, फिर धर्म-सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ और फिर विदेशी शासन से मुक्ति पाने हेतु भारत के लोग अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। भारत पर अंग्रेजों की विजय से भारत का काफी भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आ गया।

इससे यह सम्पर्क और दृढ़ हो गया। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिन्तन से भारतीयों का परिचय कराया। इसने उन बन्धनों को तोड़ दिया, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया के दरवाजे भारत के लिए बन्द किए हुए थे। प्रारम्भ से ही भारतीय समाज एवं संस्कृति, परिवर्तन और निरन्तरता की प्रक्रिया से गुजरती रही है। 19 वीं शताब्दी के दौरान भारत सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के एक और चरण से गुजरा। इस समय तक भारतीय यूरोपियनों और उनके माध्यम से उनकी संस्कृति के सम्पर्क में आ चुके थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप देश में पहले धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।

ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों, विशेष रूप से शिक्षा और धर्म प्रचार ने भी ईसाई धर्म के आन्तरिक सिद्धान्तों की ओर बहुतसे भारतीयों को आकर्षित किया। इससे भारतीय लोगों का जीवन और चिन्तन धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति और विचारों से प्रभावित हुआ। इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव प्रचलित भारतीय परम्पराओं, विश्वासों और रिवाजों में देखा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध हिन्दुओं ने यह जान लिया कि हिन्दू और ईसाई धर्म बाहरी रूपों में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी आन्तरिक मूल्यों में एक जैसे हैं।

इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। 1857 ई० की क्रान्ति के बाद हमारे देश में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा। यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे-धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया। अन्त में, हमारे देश में पूर्ण रूप से लोकतन्त्रीय शासनव्यवस्था स्थापित हो गई।

इस प्रकार, अपने धर्म और सदियों पुरानी संस्कृति की महान् परम्पराओं को छोड़े बिना प्रबुद्ध भारतीयों ने अपने समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने के विषय में गम्भीरता से विचार किया। अत: भारतीय इतिहास में 19 वीं शताब्दी महान् मानसिक चिन्तन का युग माना जाता है। इसने अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने नए भारत के उदय को सम्भव बनाया। इन आन्दोलनों ने भारत के समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। इसी भावना और इससे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन के नाम से पुकारते हैं।

भारतीय पुनर्जागरण ने यूरोप की भाँति धर्म, समाज, कला, साहित्य आदि को प्रभावित किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता, प्रगति तथा पश्चिमी सभ्यता के सामने टिकने का साहस ही भारतीय पुनर्जागरण का आधार था। भारतीय जीवन का चहुंमुखी विकास उसका स्वरूप था तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नवीन चेतना की उत्पत्ति उसका परिणाम था। आरम्भ में पुनरुद्धार आन्दोलन एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का आधार बना और अन्तत: भारतीय जीवन का प्रत्येक अंग इससे अछूता न रहा।

प्रश्न 7.
“ब्रह्म समाज एवं प्रार्थना समाज का प्रमुख उद्देश्य समाज सुधार था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
‘बह्म समाज’ की स्थापना 20 अगस्त, 1828 ई० में राजा राममोहन राय द्वारा की गई। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म आदि ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त थे। उन्नीसवीं शताब्दी में अन्धविश्वास रूढ़ियों, ढोंगों एवं आडम्बरों ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक रखा था। ईसाई पादरी, हिन्दू समाज के अडम्बरों की आलोचना कर रहे थे। समाज में जाति प्रथा, छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, निषेध, अन्धविश्वास, शिक्षा का अभाव आदि अनेक बुराइयाँ व्याप्त थी। ब्रह्म समाज ने इन सब बुराइयों का विरोध कर समाज की दशा सुधारने का महत्वपूर्ण कार्य किया। ब्रह्म समाज ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया और सती प्रथा एवं विधवा विवाह निषेध को गैर कानूनी घोषित कर इनके विरुद्ध कड़ा कानून बनवा दिया।

महाराष्ट्र में हिन्दू समाज और धर्म सुधार लाने का सबसे अधिक सफल प्रयास ‘प्रार्थना समाज’ ने किया। जिसकी स्थापना डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग ने मार्च, 1867 ई० में बम्बई में की। प्रार्थना समाज का विकास ब्रह्म समाज की छत्रछाया में हुआ था। प्रार्थना समाज ने जाति-व्यवस्था एवं अस्पृशयता की निन्दा की, अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया। स्त्री-पुरुष के विवाह में वृद्धि, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन, विधवा विवाह का समर्थन प्रार्थना समाज का मुख्य ध्येय था। विधवाओं का पुनर्वास तथा बाल विधवा का संरक्षण आदि का प्रयास भी प्रार्थना समाज के द्वारा किया गया। इस प्रकार उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते है। कि “ब्रह्म समाज एवं प्रार्थना समाज का प्रमुख उद्देश्य समाज सुधार था।”

प्रश्न 8.
“उन्नीसवीं शताब्दी सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का युग था।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उतर:
लगभग दो सौ वर्षों (1757-1947 ई०) तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में अंग्रेज भारतीयों से बहुत आगे थे। यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला, विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में दूरगामी और क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पहले तो पश्चिम सभ्यता के सम्पर्क से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, फिर धर्म-सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ और फिर विदेशी शासन से मुक्ति पाने हेतु भारत के लोग अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। भारत पर अंग्रेजों की विजय से भारत का काफी भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आ गया।

इससे यह सम्पर्क और दृढ़ हो गया। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिन्तन से भारतीयों का परिचय कराया। इसने उन बन्धनों को तोड़ दिया, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया के दरवाजे भारत के लिए बन्द किए हुए थे। प्रारम्भ से ही भारतीय समाज एवं संस्कृति, परिवर्तन और निरन्तरता की प्रक्रिया से गुजरती रही है। 19 वीं शताब्दी के दौरान भारत सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के एक और चरण से गुजरा। इस समय तक भारतीय यूरोपियनों और उनके माध्यम से उनकी संस्कृति के सम्पर्क में आ चुके थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप देश में पहले धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।

ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों, विशेष रूप से शिक्षा और धर्म प्रचार ने भी ईसाई धर्म के आन्तरिक सिद्धान्तों की ओर बहुतसे भारतीयों को आकर्षित किया। इससे भारतीय लोगों का जीवन और चिन्तन धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति और विचारों से प्रभावित हुआ। इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव प्रचलित भारतीय परम्पराओं, विश्वासों और रिवाजों में देखा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध हिन्दुओं ने यह जान लिया कि हिन्दू और ईसाई धर्म बाहरी रूपों में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी आन्तरिक मूल्यों में एक जैसे हैं।

इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। 1857 ई० की क्रान्ति के बाद हमारे देश में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा। यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे-धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया। अन्त में, हमारे देश में पूर्ण रूप से लोकतन्त्रीय शासनव्यवस्था स्थापित हो गई।

इस प्रकार, अपने धर्म और सदियों पुरानी संस्कृति की महान् परम्पराओं को छोड़े बिना प्रबुद्ध भारतीयों ने अपने समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने के विषय में गम्भीरता से विचार किया। अत: भारतीय इतिहास में 19 वीं शताब्दी महान् मानसिक चिन्तन का युग माना जाता है। इसने अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने नए भारत के उदय को सम्भव बनाया। इन आन्दोलनों ने भारत के समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। इसी भावना और इससे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन के नाम से पुकारते हैं।

भारतीय पुनर्जागरण ने यूरोप की भाँति धर्म, समाज, कला, साहित्य आदि को प्रभावित किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता, प्रगति तथा पश्चिमी सभ्यता के सामने टिकने का साहस ही भारतीय पुनर्जागरण का आधार था। भारतीय जीवन का चहुंमुखी विकास उसका स्वरूप था तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नवीन चेतना की उत्पत्ति उसका परिणाम था। आरम्भ में पुनरुद्धार आन्दोलन एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का आधार बना और अन्तत: भारतीय जीवन का प्रत्येक अंग इससे अछूता न रहा।

प्रश्न 9.
“आर्य समाज ने भारत को धर्म, शिक्षा एवं राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया।” स्पष्ट कीजिए।
उतर:
हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करने में आर्य समाज का विशेष योगदान है। आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा 1875 ई० में हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का काल समाज में घोर असमानता और अन्याय का युग था। भारतीय लोग अनेक रूढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वर-भक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी।

शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके अनुयायियों के सहयोग से स्थान-स्थान पर डी०ए०वी० स्कूलों, गुरुकुलों एवं कन्या पाठशालाओं की स्थापना की गई। उन्होंने आश्रम-व्यवस्था को महत्व दिया। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था को गुण व कर्म के अनुसार ही मानना चाहिए। ये छुआछूत, बालविवाह, कन्या वध, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के विरोधी थे। दयानन्द ने राष्ट्रीय जागरण के क्षेत्र में स्वभाषा, स्वधर्म और स्वराज्य पर बल दिया। इनका मानना था कि समस्त ज्ञान वेदों में ही नीहित हैं, इसलिए ‘पुनः वेद की ओर चलो’ का नारा दिया। दयानन्द पहले भारतीय थे, जिन्होंने सभी व्यक्तियों को (शूद्रों एवं स्त्रियों को भी) वेदों के अध्ययन एवं इसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया।

आर्यसमाज का राजनीतिक जागृति में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है दयानन्द का लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।” आर०सी० मजूमदार ने लिखा है- “आर्य-समाज प्रारम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। उसका मुख्य स्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था।” इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला।

इस प्रकार आर्य समाज ने भारत को धर्म, समाज, शिक्षा और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया है। इसी कारण ब्रह्म समाज आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया है। रामकृष्ण मिशन का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक सीमित है, आर्य समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है, अपितु हमारे समाज के छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है और एक सीमित क्षेत्र में आज भी उसे एक जन-आन्दोलन स्वीकार किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
भारत में मुस्लिम आन्दोलनों का क्या प्रभाव पड़ा? विस्तृत रूप से समझाइए।
उतर:
हिन्दू आन्दोलन की प्रतिक्रियास्वरूप, मुस्लिम समाज में भी अनेक सुधार आन्दोलनों की शुरूआत हुई। इन आन्दोलनों का उद्देश्य मुस्लिम समाज और इस्लाम धर्म में प्रविष्ट हो गई बुराइयों को दूर करना था। इन आन्दोलनों ने जहाँ सामाजिक बुराइयों को दूर करने में योगदान दिया, वहीं भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारत के प्रमुख मुस्लिम आन्दोलन निम्नलिखित थे

(i) अलीगढ़ आन्दोलन- इस आन्दोलन के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खाँ (1817-1893 ई०) थे। अलीगढ़ आन्दोलन ने मुस्लिमों को जागृत करने में पर्याप्त सहयोग दिया। सर सैयद अमहद खाँ ने सरकार और मुसलमानों के बीच की दूरी को समाप्त करने का प्रयत्न किया। वे न्याय विभाग में एक उच्च पद पर आसीन थे। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अंग्रेजों से सहानुभूति पाने के लिए उनसे मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए और राजभक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए। ऐसा कर उन्होंने अंग्रेजों की सहानुभूति प्राप्त कर ली। उन्होंने 1875 ई० में मोहम्मडन एंग्लो-ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की। यही कॉलेज आगे चलकर 1920 ई० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने नारी शिक्षा का समर्थन एवं पर्दा प्रथा का विरोध किया। इस प्रकार सैयद अहमद खाँ ने मुस्लिमों की बहुत सेवा की और उनमें राजनीतिक चेतना जगाई। अलीगढ़ आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, नजीर अहमद तथा मौलाना शिवली नोगानी थे।

(ii) वहाबी आन्दोलन- भारत का वहाबी आन्दोलन अरब के वहाबी आन्दोलन से प्रभावित था। भारत में इसका प्रचलन सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831 ई०) ने किया। इस आन्दोलन ने मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों की ओर मुसलमान वर्ग का ध्यान आकर्षित किया। इस आन्दोलन ने पाश्चात्य सभ्यता एवं शिक्षा की कड़ी आलोचना की और भारत में एक बार फिर से मुस्लिम शासन की स्थापना के लिए लोगों को प्रेरित किया। इस आन्दोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे- अपने धर्म का प्रचार एवं मुस्लिम समाज में सुधार करना। इसके परिणामस्वरूप अनेक लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए और बहुतों ने इस धर्म को अंगीकार भी किया।

(iii) अहमदिया आन्दोलन- इस आन्दोलन के जन्मदाता मिर्जा गुलाम मुहम्मद (1838-1908 ई०) थे। इन्होंने कादियानी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इनका कथन था कि वे मुसलमानों के पैगम्बर, ईसाइयों के मसीहा और हिन्दुओं के अवतार हैं। वे पर्दा प्रथा, बहुविवाह तथा तलाक जैसी कुरीतियों का घोर विरोध करते थे। इनकी पुस्तक का नाम ‘बराहीन-ए अहमदिया है।

(iv) देवबन्द आन्दोलन- एक मुसलमान उलेमा, जो प्राचीन साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, ने देवबन्द आन्दोलन चलाया। उन्होंने मुहम्मद कासिम तथा रशीद अहमद गंगोही के नेतृत्व में देवबन्द (सहारनपुर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में शिक्षण संस्था की स्थापना की। इस आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य रहे- कुरान तथा हदीस की शिक्षाओं का प्रसार करना और विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद’ की भावना को बनाए रखना। देवबन्द आन्दोलन ने 1885 ई० में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वागत किया। इनके अतिरिक्त नदवा-उल-उलूम’ (लखनऊ, 1894 ई०, मौलाना शिवली नोगानी), ‘महलए-हदीस’ (पंजाब, मौलाना सैयद नजीर हुसैन) नामक मुस्लिम संस्थाओं ने भी मुस्लिम समाज को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

योगदान- इन मुस्लिम आन्दोलनों ने मुसलमानों में राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना की वृद्धि की; जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों की स्थिति में पर्याप्त सुधार हुआ। उन्होंने पाश्चात्य रीति-रिवाजों को देखा और उसके प्रभावस्वरूप मुस्लिम समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को समाप्त कर दिया। इन आन्दोलनों के नेताओं ने नारी शिक्षा की ओर भी ध्यान देना प्रारम्भ किया, परन्तु मुसलमानों में इस चेतना के जागने से साम्प्रदायिकता की भावना प्रबल हो गई और देश में हिन्दू-मुसलमानों के मध्य झगड़े होने लगे।

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