UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 18 Stages of Child Development (बाल-विकास की अवस्थाएँ)

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 18 Stages of Child Development

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectPedagogy
ChapterChapter 18
Chapter NameStages of Child Development (बाल-विकास की अवस्थाएँ)
Number of Questions Solved55
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 18 Stages of Child Development (बाल-विकास की अवस्थाएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था से क्या आशय है ? शैशवावस्था की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था का अर्थ
(Meaning of Infancy)

शिशु होने की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। जो बालक अपने आप जीवन की सभी क्रियाओं को नहीं कर पाता, उसे शिशु कहा जाता है। ऐसा बालक अपने अस्तित्व एवं विकास के लिए दूसरों पर आश्रित होता है। शाब्दिक अर्थ में शिशु एक अबोध प्राणी है, जो अपने लिए कुछ कर नहीं सकता अर्थात् दूसरों पर आश्रित रहने वाला प्राणी है। शैशवावस्था को पराश्रितता तथा असहायावस्था भी कहते हैं। क्रो और क्रो के अनुसार, “शैशवावस्था वह अवस्था है जिसमें इन्द्रिय प्रणालियाँ कार्य करने लगती हैं और शिशु रेंगना, चलना और बोलना सीखता है। सामान्य रूप से जन्म से 2-3 वर्ष की आयु तक के काल को शैशवावस्था माना जाता है। कुछ विद्वानों ने जन्म से 6 वर्ष की आयु तक के काल को शैशवावस्था माना है।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Infancy)

शैशवावस्था में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं-

1. पराश्रयिता- जन्म से लेकर;6 वर्ष की आयु तक शिशु अपने माता-पिता एवं अन्य लोगों पर आश्रित होता है, क्योंकि डेढ़-दो वर्ष तक तो शिशु की शारीरिक स्थिति ऐसी होती है कि वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता। बाद में भी माँ उसे साफ करती, नहलाती, धुलाती, कपड़े पहनाती तथा भोजन कराती है। अपनी रक्षा, ज्ञानार्जन एवं प्रशिक्षण के लिए शिशु अपने से बड़ों पर आश्रित होता है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ यह पराश्रितता कम हो जाती है।

2. अपरिपक्वता- जन्म के समय शिशु सर्वथा अशक्त एवं असहाय होता है। रोने, चिल्लाने व हाथ-पैर हिलाने के अतिरिक्त वह कुछ दिन तक और कुछ नहीं कर सकता। मानसिक क्रिया करने में भी वह अशक्त रहता है। भाषा बोलने में वह असमर्थ पाया जाता है। संवेगात्मक रूप से भी वह अपरिपक्व होता है। धीरे-धीरे शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक क्षमताओं की परिपक्वता आती है।

3. अभिवृद्धि और विकास की निरन्तरता- जन्म के समय अत्यन्त अपरिपक्वता होते हुए भी शिशु में निरन्तर अभिवृद्धि और विकास होता है। उसके शरीर का आकार, ‘भार, मांसपेशियों का गठन, हड्डियों की वृद्धि एवं परिपक्वता तथा सिर से लेकर पैर तक सभी अंगों का बढ़ना और पुष्ट होना निरन्तर चलता रहता है। सम्पर्क से वह भाषा सीखता है, बीत करना जानता है और उसकी अन्य मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। अपने माता-पिता, भाई-बहन, पास-पड़ोस के लोगों से प्रेम, सहानुभूति, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों को भी वह प्रकट करता है।

4. सीखने की तीव्रता- इस अवस्था में सीखने की क्रिया तेजी से होती है। अनुभव बढ़ने के साथ भाषा का ज्ञान बढ़ता है। प्रथम. छह वर्षों में भाषा की वृद्धि तेजी से होती है और शब्द भण्डार बहुत बड़ा हो जाता है। लगभग 15 हजार शब्द वह सीख लेता है, जो आगामी 12 वर्ष की दुगुनी मात्रा होती है। चलना, फिरना, दौड़ना, लोगों के साथ व्यवहार करना, अपने विचार-भाव व्यक्त करना भी तेजी से पाया जाता है और ये सब इसी अवस्था में सीखे जाते हैं।

5. अन्य मानसिक क्रियाओं की तीव्रता- शिशु में संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण और विस्मरण भी तीव्र गति से होता है। अवधान में चंचलता पायी जाती है और किसी एक बिन्दु पर वह बहुत थोड़ी देर तक ही ध्यान दे पाता है। तर्क का अभाव अवश्य होता है, परन्तु फिर भी मानसिक क्रियाओं में तीव्रता पायी जाती है।

6. कल्पना का बाहुल्य- शिशु काल्पनिक और वास्तविक जगत में भेद नहीं कर पाता है। इसलिए उसमें कल्पना की अधिकता पायी जाती है। खेल में, बातचीत में तथा प्रेम व्यवहार में वह कल्पना का ही प्रयोग करता है। रॉस (Ross) के अनुसार, “जीवन की विषम परिस्थितियों की चोट से अपने को बचाने की वह कोशिश करता है। इसी कारण वह कल्पनाशील होता है। झूठ भी वह कल्पना की अधिकता के कारण ही बोलता है। अज्ञानता ही इसका कारण है, जो बाद में दूर हो जाता है और वह झूठ का प्रयोग नहीं करता है।

7. एकान्तप्रियता-शिशु आरम्भ में अकेले रहना पसन्द करता है। कोई साथी न रहने पर भी वह अकेले खेलता है। वह गुड्डे-गुड़ियों को ही अपने साथी होने की कल्पना कर लेता है। धीरे-धीरे उसमें समवयस्कों के साथ खेलने की इच्छा बढ़ती है। आरम्भ से इस प्रकार वह अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाला कहा जाता है।

8. अनुकरण की प्रवृत्ति- शिशु अपने चारों ओर जो कुछ क्रिया अन्य लोगों को करते देखता है, उसे ही दोहराता है और ऐसी स्थिति में उसमें अनुकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। खेल, बोलचाल, खाने-पीने व घरेलू काम-काज करने में शिशु की अनुकरणशीलता पायी जाती है। इसका कारण मानसिक क्षमता में कम वृद्धि होना है।

9. मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार- इस अवस्था में शिशु का व्यवहार मूल-प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। उसकी आवश्यकता ही व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है। भूख लगने पर वह रोता है। मचलना, हठ करना व मनमाना कार्य करना उसके मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार हैं। उसे समाज के रीति-रिवाज, परम्परा, नियम की चिन्ता नहीं रहती है।

10. अपनी क्रियाओं की पुनरावृत्ति- प्रो० भाटिया के अनुसार-“शिशुओं में अपनी गतियों एवं ध्वनियों को दोहराने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वास्तव में शिशु के पास कोई अन्य क्रिया करने को नहीं होती है। इसलिए वह अपनी ही क्रियाओं को दोहराता है। चारपाई पर पड़े अशक्त शिशु के लिए अपने हाथ-पैर मारने की आदत स्वाभाविक है। पड़े-पड़े वह बलबलाती रहता है।”

11. स्नेह की आकांक्षा- शिशु सभी से स्नेह पाने की आकांक्षा रखता है। वह सभी से लिपट जाता है और सभी से स्नेह पाने की कोशिश करता है। स्नेह के अभाव में वह मानसिक आघात का अनुभव करता है, उसके मन में कुण्ठाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा भाव-ग्रन्थियाँ बन जाती हैं। इनका उसके व्यक्तित्व के विकास पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।

12. आत्म के प्रति विशेष प्रेम- शिशु अपने आत्म के लिए विशेष प्रेम रखता है। इस कारण वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हठ करता है। वह अपनी चीजों के लिए बहुत अधिक प्रेम रखता है और दूसरों को छूने नहीं देता। वह माता-पिता, भाई-बहने तथा अन्य सभी सम्बन्धियों को केवल अपने से सम्बन्ध रखने की इच्छा रखता है। अन्य हिस्सेदारों से वह ईर्ष्या भी रखता है। बाद में वह इस प्रेम को दूसरों के साथ बाँट लेता है।

13. संवेगशीलता की तीव्रता- शिशु में क्रोध, घृणा, आश्चर्य, प्रेम, ईष्र्या आदि संवेगों का प्रकाशन तीव्रता से होता है, लेकिन ये संवेग क्षणिक, अपरिष्कृत तथा अपरिपक्व होते हैं। इनकी अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से होती है। इसलिए शिशु स्थान, समय एवं व्यक्ति की परवाह इन्हें अभिव्यक्त करते समय नहीं करती। धीरे-धीरे वह इन पर नियन्त्रण करना सीख लेता है।

14.पर्यावरण से अनुकूलन की असमर्थता- अपनी अशक्तता के कारण शिशु अपने वातावरण के साथ अनुकूलन नहीं कर पाता है। इसी बाध्यता के कारण यदि दुर्भाग्यवश उसे समुचित संरक्षण प्राप्त नहीं होता तो वह रोग ग्रस्त हो सकता है तथा परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु भी हो सकती है। सामाजिक रूप से भी वह अनुभवहीन होने के कारण समायोजन करने में समर्थ नहीं होता। इसीलिए अधिकांशत: शिशु अशिष्ट व्यवहार कर देता है।

15. इन्द्रिय संवेदनाओं की तीव्रता- शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रयोग करने की तीव्र इच्छा रखता है। छोटा शिशु खिलौने को अपने मुँह में डाल लेता है और सभी चीजों को पकड़ने की कोशिश करता है। इस प्रकार वह इन्द्रिय संवेदनाओं को तीव्रता से प्रकट करती है।

16. काम-प्रवृत्ति की सुप्तता- फ्रॉयड तथा अनेक मनोविश्लेषणवादियों ने अपनी खोजों के आधार पर सिद्ध किया है कि शिशु में काम-प्रवृत्ति सुप्त होती है और इसीलिए उसका प्रकटीकरण दूसरे तरीके से होता है; जैसे-अँगूठा चूसना, मल-मूत्र त्याग करना, दुग्धपान करते समय माँ के स्तन पकड़ना आदि। इससे उसकी काम-प्रवृत्ति सन्तुष्ट होती है, परन्तु यह कथन पूर्णतया सत्य प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार मनोविश्लेषणवादियों के अनुसार पुत्र का माता के प्रति प्रेम तथा पुत्री का पिता के प्रति प्रेम भी शिशु में पाया जाता है।

17. नैतिक भावना का अभाव- मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु में नैतिकता की भावना नहीं होती अर्थात् वह उचित-अनुचित में अन्तर नहीं कर पाता। वह अपनी इच्छा को स्वतन्त्र रूप से प्रकट करता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है।

प्रश्न 2
शैशवावस्था में दी जाने वाली शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए।
या
शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए? समझाइए।
उत्तर:

शैशवावस्था की शिक्षा
(Infancy of Education)

शैशवावस्था विकास की प्रारम्भिक अवस्था है, इसलिए इस काल को शिक्षा का आधार भी कहें तो अनुचित नहीं होगा। फ्रॉयड के अनुसार, “मनुष्य चार-पाँच वर्षों में ही जो कुछ बनना होता है, बन जाता है। इसी प्रकार एडलर ने कहा है, “शैशवावस्था सम्पूर्ण जीवन का क्रम निर्धारित कर देती हैं।” इस अवस्था की शिक्षा में हमें निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए|

1. शारीरिक विकास का प्रयास- माता-पिता एवं शिक्षक सभी को शिशु को स्वस्थ बनाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। शिशु को सन्तुलित भोजन, उपयुक्त आवास एवं । स्वस्थ क्रियाओं के लिए अवसर देना चाहिए।

2. शिशु की क्षमताओं का ज्ञान- शिशु की शारीरिक, मानसिक ५ शारीरिक विकास का प्रयास एवं भावात्मक क्षमताओं को समझकर उसी के अनुकूल शिक्षा की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए। इस अवस्था में मॉण्टेसरी और किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणालियों को अपनाना चाहिए।

3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- माता-पिता और शिक्षक का कर्तव्य है। कि खिलौने आदि देते समय शिशु उनसे जो प्रश्न पूछे, उनका उत्तर देकर शिशु की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करें तथा उसके मानसिक विकास में सहायता दे।

4. शारीरिक दोषों का निराकरण- शिशु के शारीरिक दोषों को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है।

5. उचित वातावरण- शिशु के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि शिशु के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। खेल की चीजें, ज्ञानात्मक अनुभव की वस्तुएँ, स्वतन्त्र क्रिया के लिए स्थान एव अवसर देने से शिशु को उत्तम विकास होता है।

6. भावात्मक दमन से सुरक्षा- बालक की मूल-प्रवृत्तियों एवं संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें उचित रूप में अभिव्यक्त करने के अवसर देने चाहिए।

7. भाषा का विकास- परस्पर अच्छी भाषा का प्रयोग करने से शिशु में भाषा का अच्छे ढंग से विकास होता है।

8. समाजीकरण व अच्छी आदतों का निर्माण- शिशु के साथ प्रेम, सहानुभूति व सहयोग के द्वारा व्यवहार करके उसमें भी समायोजन करने की आदत डाली जा सकती है।

9. दण्ड व भय से मुक्ति- शिशुओं के साथ दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का भय भी नहीं दिखाना चाहिए, अन्यथा उनमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाएँगी और उनका विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

10. आदर्शों द्वारा चरित्र-निर्माण- बड़े लोगों को चाहिए कि वे शिशु के समक्ष अच्छे आदर्श उपस्थित करें। इससे शिशुओं के चरित्र का निर्माण होता है।

11. अवस्थानुकूल शिक्षा- शिशु की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुकूल ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण-विधि का प्रयोग करना चाहिए।

12. स्वतन्त्रता, सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार- शिशु को स्वतन्त्रता देकर उसके साथ सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार करने से उसका उत्तम विकास होता है।

13. क्रिया द्वारा शिक्षा-शिशु एक क्रिया- प्रधान प्राणी होता है। अत: उसे क्रिया द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे शिशुओं को आत्म-प्रदर्शन का भी अवसर मिलता है और कर्मेन्द्रियों का भी प्रशिक्षण होता है।

14. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी एवं किण्डरगार्टन पद्धतियों में शिशुओं को ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इनके शिक्षा उपकरणों तथा उपहारों का प्रयोग करके शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।

प्रश्न 3
बाल्यावस्था से क्या आशय है ? बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताओं का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
बाल्यावस्था से आप क्या समझते हैं ? इस अवस्था में भाषा के विकास का निरूपण कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था का अर्थ
(Meaning of Childhood)

शैशवावस्था की विशेषताएँ समाप्त होते ही बाल्यावस्था का आगमन हो जाता है। बालक वह व्यक्ति होता है, जो शिशु से बड़ा होता है। हरलॉक के अनुसार, “बाल्यकाल 6 वर्ष की आयु से 11-12 वर्ष की आयु तक होता है। इस अवस्था में बालक नियमित रूप से विद्यालय जाने लगता है और सामूहिक जीवन व्यतीत करता है। इसलिए कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘विद्यालय अवस्था’ और कुछ ने ‘क्षीण बौद्धिक बाधा’ की अवस्था कहा है, जिससे आगामी वयस्क जीवन के लिए सफल प्रयास किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवस्था को चुस्ती की आयु’, ‘गन्दी आयु’ तथा ‘समूह आयु’ आदि नामों से भी जाना जाता है।

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Childhood)

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

1. स्थायित्व- बाल्यावस्था में प्रवेश करते ही बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थायित्व आ जाता है। यह स्थायित्व उसे शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दृढ़ बनाता है। अत: बालक मानसिक दृष्टि से प्रौढ़-सा प्रतीत होने लगता है। परन्तु यह परिपक्वता वास्तविक न होकर ‘मिथ्या परिपक्वता होती है।

2. यथार्थ जगत् से सम्बन्ध- स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “बालक अपने को अति व्यापक संसार में पाता है तथा उसके विषय में शीघ्र जानकारी प्राप्त करना चाहता है।” शैशवावस्था का काल्पनिक जगत् इस अवस्था में प्रायः समाप्त हो जाता है और बालक जीवन की यथार्थताओं में प्रवेश करता है। अब वह केवल उन वस्तुओं की ही कल्पना करता है, जो उसके यथार्थ जीवन से सम्बन्धित होती हैं।

3. मानसिक योग्यताओं का विकास- इस अवस्था में बालक की मानसिक शक्ति का तीव्रता से विकास होता है। उसकी प्रत्यक्षीकरण और संवेदना शक्ति पर्याप्त विकसित हो जाती है तथा वह किसी बात पर पर्याप्त काल तक अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है।

4. जिज्ञासा की तीव्रता- बाल्यावस्था में जिज्ञासा प्रवृत्ति और अधिक प्रबल हो जाती है। बालक अपने वातावरण के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानने का प्रयास करता है। माता-पिता तथा शिक्षक से वह प्रश्न किया करता है-यह कैसे हुआ ? ऐसा क्यों है ? इसका अर्थ क्या है ? आदि। जिज्ञासा की तीव्रता उसके मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। माता-पिता तथा अध्यापकों का दायित्व है कि वे बालक की जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करें।

5. स्मरण- शक्ति का विकास-शैशवावस्था में बालक अपने सामने के पदार्थ के विषय में ही सोचता है, परन्तु बाल्यावस्था में बालक उन वस्तुओं के विषय में भी सोच लेता है, जो कि सामने नहीं है। प्रायः 6 से 12 वर्ष के मध्य के बालक पूर्व अनुभवों को याद करने के योग्य हो जाते हैं, और भाषा भी अनुभव द्वारा ज्ञानार्जन करने के लिए सहायता देती है।

6. रचनात्मक कार्यों में रुचि- इस अवस्था में बालकों में सामाजिकता की भावना का तीव्रता से विकास होता है। शैशवावस्था में बालक प्रायः अकेले ही खेलना पसन्द करता है, परन्तु बाल्यकाल में वह अपने साथियों के साथ खेलने में विशेष आनन्द का अनुभव करता है। उसका अधिकांश समय अपने सहयोगियों के साथ व्यतीत होता है।

7. संग्रह प्रवृत्ति का विकास- बाल्यावस्था में संग्रह प्रवृत्ति विशेष रूप से क्रियाशील रहती है। बालक चाक, टिकट, गोलियाँ तथा चित्रों आदि का संग्रह करने में विशेष रुचि लेते हैं। बालिकाएँ गुड़िया, सूई, वस्तुओं के टुकड़े तथा खिलौने आदि के संग्रह में आनन्द का अनुभव करती हैं।

8. अनुकरण प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था के बालकों में अनुकरण प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। बालक अपने बड़ों की नकल करने का प्रयास करते हैं तथा उनके जैसा आचरण करने में रुचि का अनुभव करते हैं। बालिकाएँ अपनी माँ के समान खाना पकाने, झाड़ लगाने तथा साड़ी पहनने का अनुकरण करती हैं।

9. निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति- बर्ट (Burt) महोदय ने अनेक परीक्षण करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि 9वर्ष की आयु के बालक आवारा घूमने, कक्षा से भागने तथा आलस्य में पड़े रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं।

10. रुचियों में परिवर्तन- इस अवस्था में बालकों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होते हैं। रुचियों में परिवर्तन वातावरण के आधार पर होता रहता है।

11. सामूहिक खेलों में रुचि- इस अवस्था में बालक सामूहिक खेलों में विशेष रुचि लेते हैं। बालक गिरोह बनाकर किसी पार्क या मैदान में सामूहिक रूप से खेलना पसन्द करते हैं। वे विभिन्न प्रकार के खेलों द्वारा अनुकरण का पाठ भी सीखते हैं।

12. नैतिक गुणों का विकास- तिक भावना का विकास बाल्यकाल में ही होता है। बालक उचित और अनुचित के बीच अन्तर करने लग जाता है। अब वह किसी कार्य को करने से पूर्व विचार करने लगता है। स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “आठ वर्ष के बालकों में भले-बुरे के ज्ञान का न्यायपूर्ण व्यवहार, न्यायप्रियता तथा सामाजिक मूल्यों का विकास होने लगता है।”

13. भाषा का विकास- इस अवस्था में भाषा का विकास सबसे अधिक तीव्रता के साथ होता है। बालक अब शुद्ध उच्चारण करने लगता है। शब्दों के स्थान पर अब वह वाक्यों का भी प्रयोग सफलता के साथ करता है, परन्तु भाषा में पूर्ण शुद्धता नहीं आती।

14. स्वलिंगीय प्रेम- इस अवस्था में बालक का प्रेम माता-पिता से हटकर अपने मित्रों के प्रति अधिक होता है। बालक प्रायः बालकों के साथ तथा बालिकाएँ बालिकाओं के साथ खेलना पसन्द करती हैं।

15. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास- शैशवावस्था में बालक एकान्तप्रिय होता है और वह केवल अपने में ही रुचि लेता है। इस प्रकार शैशवकाल में उसका व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, परन्तु बाल्यकाल में बालक में बाह्य जगत के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है और वह अन्य व्यक्तियों में रुचि लेने लग जाता है।

प्रश्न 4
बाल्यावस्था में दी जाने वाली शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था की शिक्षा :
(Childhood of Education)

बाल्यावस्था की किसी भी रूप में उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह वह अवस्था है जब कि आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का पर्याप्त सीमा तक निर्माण हो जाता है। अत: बाल्यावस्था में बालक की शिक्षा का स्वरूप निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है

1. अवस्थानुकूल शिक्षा- प्रत्येक बालक की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।

2. भाषा के ज्ञान पर बल- इस अवस्था में बालक की भाषा में विशेष रुचि होती है। अत: उसे भाषा का समुचित ज्ञान कराने की उत्तम व्यवस्था की जानी चाहिए।

3. क्रियाशील शिक्षा- बाल्यावस्था में बालक में क्रियाशीलता की प्रधानता होती है। अतः उसकी शिक्षा का आयोजन क्रियाशीलता के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर किया जाए। किण्डरगार्टन तथा मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणालियाँ इस उद्देश्य को प्राप्त कराने में सहायक हैं। अतः अध्यापक को उनके सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहिए और यथासम्भव उनको प्रयोग करना चाहिए।

4. रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास- इस अवस्था के स बालकों में रचनात्मक कार्यों के प्रति विशेष रुचि होती है। अतः बालक की शिक्षा में हस्त-कार्यों का भी आयोजन किया जाए। बालक से गृहं उपयोगी तथा सजावट की वस्तुएँ बनवायी जा सकती हैं।

5. पाठ्यक्रम के निर्माण में सावधानी- पाठ्यक्रम के निर्माण में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। उन विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए, जो इस अवस्था के बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करते हों। भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, चित्रकला, पुस्तक कला, काष्ठ कला तथा सुलेख, निबन्ध आदि को विशेष स्थान दिया जाए। किसी विदेशी भाषा का भी प्रारम्भ इस स्तर पर किया जा सकता है।

6. रोचक पाठ्य-सामग्री- बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अत: पाठ्य-सामग्री का चुनाव रोचकता और विभिन्नता के सिद्धान्त के आधार पर किया जाना चाहिए। पाठ्य-पुस्तकों, साहसी गाथाओं, नाटक, वार्तालाप, हास्य प्रसंग व विभिन्न देशों के निवासियों के विवरण आदि को स्थान दिया जाना चाहिए।

7. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- दस वर्ष की अवस्था के बालक के मस्तिष्क का पर्याप्त विकास हो जाता है। अतः उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति काफी तीव्र हो जाती है। वह प्रत्येक बात को समझने का प्रयास करता है और अनेक प्रश्न करता है। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालकों की जिज्ञासु प्रवृत्ति को सन्तोषजनक ढंग से सन्तुष्ट करे, बालक द्वारा किये गये प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दे तथा समय-समय पर उन्हें अजायबघर और चिड़ियाघर ले जाकर उनके सामान्य ज्ञान का विकास करे।

8. संवेगों की अभिव्यक्ति के अवसर- बाल्यावस्था में संवेगों का विकास तीव्रता से होता है। कोल और बुस के अनुसार, “बाल्यावस्था संवेगात्मक विकास का अनोखा काल है। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि बालकों के संवेगों का दमन न करके यथासम्भव उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करे।

9. सामूहिक प्रवृत्ति की तृप्ति- इस अवस्था में बालक समूह में रहना अधिक पसन्द करते हैं। इस प्रवृत्ति की तृप्ति के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों तथा सामूहिक खेलों का आयोजन किया जाए। विद्यालय के समारोहों का आयोजन भी बालकों के द्वारा ही कराया जाए।

10. प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार-इस अवस्था में बालक का हृदय कोमल होता है। अत: वह कठोर अनुशासन को पसन्द नहीं करता। अध्यापक का कर्तव्य है कि इस अवस्था के बालकों के साथ वह यथासम्भव उदारता, प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार करे। शारीरिक दण्ड और बल-प्रयोग का बालक पर इतना अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि प्रेम और सहानुभूति की।

11. उत्तम आचरण की शिक्षा- बाल्यावस्था में बालकों को उत्तम आचरण की विशेष रूप से शिक्षा प्रदान की जाए। नमस्कार व अभिवादन की शिक्षा के साथ-साथ बालकों से उनके साथियों के जन्मदिवस पर बधाई-पत्र, उपहार आदि भिजवाएँ।

12. सामाजिक गुणों का विकास- विद्यालय में उन क्रियाओं और गतिविधियों का आयोजन किया जाए, जिससे बालकों में सामाजिकता का विकास हो सके। किलपैट्रिक के अनुसार, “बाल्यावस्था प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल है। ऐसी दशा में विद्यालय में समय-समय पर उन क्रियाओं का आयोजन किया जाए, जिनसे छात्रों में आत्म-नियन्त्रण, सहानुभूति, प्रतियोगिता, सहयोग आदि गुणों का विकास हो सके।

13. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था- बालकों की विभिन्न रुचियों की सन्तुष्टि के लिए और विभिन्न शक्तियों के प्रदर्शन के लिए विद्यालय में विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना परम ।
आवश्यक है। संगीत प्रतियोगिता, अन्त्याक्षरी, कविता पाठ, वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि का आयोजन विद्यालय में समय-समय पर किया जाना चाहिए।

14. पर्यटन तथा स्काउटिंग की व्यवस्था- इस अवस्था में बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन की समय-समय पर योजनाएँ बनायी जाएँ। बालकों को ऐतिहासिक स्थलों, कल-कारखानों तथा बन्दरगाहों का भ्रमण कराया जाए। विद्यालयों में स्काउटिंग की व्यवस्था भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 5
किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं ? किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख
कीजिए।
या
किशोरावस्था की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। इनकी शिक्षण व्यवस्था में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
या
“किशोरावस्था में मानसिक विकास उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए और इस काल में होने वाले मानसिक विकास का उल्लेख कीजिए।
या
“किशोरावस्था तूफान और तनाव की अवस्था है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
किशोरावस्था को तनाव, तूफान और संघर्ष का काल क्यों कहा जाता है?
या
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
या
किशोरावस्था क्या है? किशोरावस्था की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था का आशय
(Meaning of Adolescence)

किशोरावस्था जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल है। यह अवस्था 12 से 18 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में किशोर न तो बालक होता है और न वह प्रौढ़ होता है। जरसील्ड ने किशोरावस्था की परिभाषा देते हुए लिखा है-“किशोरावस्था वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। ब्लयेर, जोन्स तथा सिम्पसन के अनुसार, “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त से प्रारम्भ होता है तथा प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त हो जाता है।” बालक भावी जीवन में क्या बनेगा, इसका निर्णय बहुत कुछ किशोरावस्था में ही हो जाता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं, “किशोरावस्था में मानसिक विकास उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।”

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Adolescence)

किशोरावस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अतः यह काल परिवर्तन का काल कहलाता है। बिग्स एवं हण्ट (Bigges and Hunt) के अनुसार, “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त करने वाला एक शब्द है-परिवर्तन। यह परिवर्तन शारीरिक; मानसिक और मनोवैज्ञानिक होता है।” किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का विवरण निम्नलिखित है-

1. शारीरिक परिवर्तन- इस अवस्था में किशोरों में पर्याप्त परिपक्वता आ जाती है। यह परिपक्वता लड़कों में 16 वर्ष तथा लड़कियों में 14 वर्ष तक आ जाती है। बालक तथा बालिकाओं की ऊँचाई में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था के प्रारम्भ में लड़कियों का विकास तीव्रता से होता है, परन्तु 16 वर्ष की आयु तक बालकों का कद लड़कियों की अपेक्षा अधिक हो जाता है। भार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। लड़कों की आवाज में भारीपन आने लगता है। उनकी दाढ़ी, मूछों, बगल तथा गुप्तांगों पर बाल चमकने लगते हैं। किशोरियों के स्तन उभरने लगते हैं तथा रजोदर्शन का आरम्भ भी इस अवस्था में हो जाता है। ये शारीरिक परिवर्तन किशोर तथा किशोरियों के मन में हलचल उत्पन्न कर देते हैं।

2. मानसिक परिवर्तन- इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी तीव्रता से होते हैं। बालक की वृद्धि, कल्पना, विचार तथा तर्क शक्तियाँ पर्याप्त विकसित हो जाती हैं। ये परिवर्तन इतनी तीव्रता से होते हैं कि बालक को ऐसा ज्ञान होने लगता है कि मानो वह उन परिस्थितियों में लाकर खड़ा कर दिया गया हो, जिनके लिए वह पहले से तैयार नहीं था।

3. आत्म-सम्मान का विकास- किशोर का मानसिक विकास पर्याप्त हो जाने से वह बालकों के मध्य अधिक रहना पसन्द नहीं करता। यदि माता-पिता अब भी उसके साथ बालक जैसा व्यवहार करते हैं तो उसे ठेस लगती है। इस अवस्था तक उसमें आत्म-सम्मान का विकास हो जाता है और वह अपने को बालक न मानकर वयस्क मानने लगता है।

4. स्थायित्व का अभाव- किशोर में स्थायित्व और समायोजन का अभाव रहता है। उसका मन शिशु के समान ही स्थिर नहीं होता। वह कभी कुछ विचार करता है, कभी कुछ। वह वातावरण में समायोजन नहीं कर पाता।

5. कल्पना की प्रधानता- इस अवस्था में किशोर में कल्पना की प्रधानता होती है। उसकी कल्पना-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और उसका अधिकांश समय दिवा-स्वप्न देखने में ही व्यतीत होता है। किशोर तथा किशोरियाँ उपन्यास तथा कहानियों में विशेष रुचि लेते हैं। साहित्य रचना के बीज इस अवस्था में अंकुरित होते हैं। कल्पना की प्रधानता के कारण किशोरों की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है।

6. रुचियों में परिवर्तन तथा स्थिरता- प्रारम्भ में किशोर और किशोरियों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु बाद में स्थिरता आ जाती है। किशोर और किशोरियों की रुचियों में समानता भी होती है और असमानता भी। उपन्यास कहानियाँ, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने, सिनेमा देखने फैशन आदि में किशोर और किशोरियाँ समान रुचि रखते हैं, परन्तु लड़कों को यदि शारीरिक व्यायाम, खेलकूद तथा दौड़-भाग में विशेष रुचि होती है तो लड़कियों में सीने, काढ़ने, बुनने तथा नृत्य और संगीत में विशेष रुचि होती है।

7. व्यवहार में भिन्नता- इस अवस्था में संवेगों की प्रबलता होती है। किशोर भावुकता, अस्थिरता, उत्साह तथा उदासीनता में ग्रसित होता है। वह कभी एकदम उत्साहित हो जाते हैं तो कभी निरुत्साहित। उसके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है।

8. घनिष्ठ मित्रता पर बल- वेलेण्टाइन के अनुसार, “घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।” किशोर यद्यपि किसी समूह का सदस्य होता है, परन्तु इस पर भी वह .. किसी-न-किसी को अपना घनिष्ठ मित्र बनाता है। घनिष्ठ मित्र से अपने मन की बात कहकर वह विशेष आत्म-सन्तोष का अनुभव करता है।

9. वीर पूजा- किशोर काल में वीर पूजा की भावना प्रबल होती है। शैशवावस्था में बालक का अनुराग अपनी माता की ओर अधिक रहता है, परन्तु किशोरकाल में माता-पिता का स्थान कोई महान नेता, वैज्ञानिक या आदर्श अध्यापक ले लेता है। प्रत्येक किशोर किसी उपन्यास, नाटक या सिनेमा के नायक को अपना इष्ट मान लेता है और उसके प्रति श्रद्धा रखता है।

10.धार्मिक चेतना का विकास- वीर पूजा के समान इस अवस्था के किशोर धर्म के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने लगते हैं। मानसिक अस्थिरता किशोरों में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करती है। ईश्वर के प्रति निष्ठा की भावना इस काल में ही उत्पन्न होती है।

11. तार्किक भावना का विकास- किशोर किसी भी बात को आँख बन्द करके स्वीकार नहीं करते। उनमें तर्कात्मक-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और वे किसी भी बात को स्वीकार करने से पूर्व काफी तर्क-वितर्क करते हैं।

12. भावी व्यवसाय की चिन्ता- किशोर प्राय: भावी व्यवसाय की समस्या से चिंतित हो जाते हैं। ये विद्यार्थी जीवन में ही अपनी व्यावसायिक समस्या का निराकरण करने का प्रयास करते हैं, परन्तु उन्हें जब इस विषय में कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता तो वे चिंतित हो जाते हैं। स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “जब विद्यार्थी हाईस्कूल में होता है तो वह किसी व्यवसाय का चुनाव करने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने तथा उसमें प्रगति करने के लिए अधिक-से-अधिक चिन्तनशील होता जाता है।”

13. अपराध प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था में दिवास्वप्न देखने के कारण बालकों में अपराध प्रवृत्ति का विकास होता है। बर्ट (Bert) के अनुसार, “प्राय: सभी बाल-अपराधी किशोर दिवास्वप्न-दृष्टा होते हैं।” दूसरे संवेगों की अस्थिरता और बलता, निराशा और प्रेम में असफलता भी बालकों को अपराधी बना देती है। वेलेण्टाइन के अनुसार, “किशोरकाल, अपराध प्रवृत्ति में विकास का नाजुक काल है।” अधिकांश अपराधी किशोरकाल में ही अपराधों में प्रवीण हो चुके होते हैं।

14. समाज सेवा की भावना- किशोरों में सामाजिक सेवा की भावना को तीव्रता से विकास होता है। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए वे समाज सेवा में विशेष रुचि लेते हैं। रॉस (Ross) के अनुसार, किशोर, समाज-सेवा के आदर्शों को निर्मित तथा पोषित करता है। उसका उदार हृदय मानव-जाति के प्रेम से ओत-प्रोत हो जाता है तथा आदर्श समाज के निर्माण में सहायता करने की इच्छा से व्यग्र हो जाता है।”

15. मानसिक स्वतन्त्रता और विद्रोह की भावना- किशोर स्वभाव से परम्पराओं और रूढ़ियों के विरोधी तथा स्वतन्त्रता-प्रेमी होते हैं। वे प्राचीन परम्पराओं, अन्धविश्वासों तथा रूढ़ियों के बन्धन में न रहकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना पसन्द करते हैं।

16. समूह या दल को महत्त्व- किशोर की अपने समूह या दल के प्रति विशेष श्रद्धा होती है। वह अपने समूह या दल को विद्यालय तथा परिवार से भी अधिक महत्त्व देता है तथा उससे ही सबसे अधिक प्रभावित होता है। ब्रिग्स तथा हण्ट के अनुसार, “जिन समूहों से किशोर सम्बन्धित होते हैं, उनसे उनके प्राय: सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र धारण करने की आदतों तथा भोजन करने की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।”

17. काम भावना का विकास- बाल्यावस्था में समलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। बालक बालकों के प्रति तथा बालिकाएँ-बालिकाओं के प्रति आकर्षित होती हैं। किशोरावस्था में इसके विपरीत विषमलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। प्रत्येक लड़का किसी लड़की के सम्पर्क में आना चाहता है और इसी प्रकार लड़कियाँ भी किसी-न-किसी लड़के का सम्पर्क चाहती हैं। प्रेम भावना के साथ-साथ किशोरकाल में काम-भावना का भी विशेष वेग होता है। प्राय: लड़के-लड़कियों में परस्पर काम-सम्बन्धों की स्थापना हो जाती है।
(नोट-किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप के लिए प्रश्न संख्या 6 देखें)।

प्रश्न 6
किशोरावस्था में शिक्षा की किस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए? विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिएँ।
या
किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था की शिक्षा
(Adolescence of Education)

शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था का अपना विशेष महत्त्व है। यह वह अवस्था हैं, जबकि बालक संवेगात्मक अस्थिरता तथा यौवन आवेग से ग्रसित होने के साथ-साथ एक नवीन उत्साह और आदर्श से प्रेरित होते हैं। यदि किशोरों को उचित मार्गदर्शन मिल जाता है तो भावी जीवन में वे बहुत कुछ कर सकते हैं। इसके विपरीत उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे निराशा, अपराध तथा असफलताओं के शिकार हो जाते हैं। किशोरावस्था में बालकों की शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्नांकित बातों पर ध्यान देना अति आवश्यक है

1. शारीरिक विकास सम्बन्धी शिक्षा- किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। उनमें शक्ति का अतिरिक्त प्रवाह होता है। अत: इस अतिरिक्त शक्ति के उचित प्रयोग तथा उनके शारीरिक विकास के लिए व्यायाम तथा विभिन्न शारीरिक परिश्रम वाले खेलों का आयोजन किया जाए। बालकों के लिए दौड़-धूप वाले खेल विशेष रूप से उपयोगी होते हैं। लड़कियों के नृत्य तथा हल्के शारीरिक व्यायाम अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

2. समुचित पाठ्यक्रम का निर्माण- किशोर के उचित मानसिक विकास के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय उनकी रुचियों, अभिरुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए। इस उद्देश्य से पाठ्यक्रम में गणित, कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास, नागरिकशास्त्र तथा हस्तशिल्प को अवश्य शामिल किया जाए।

3. कल्पना-शक्ति का समुचित उपयोग- किशोर और किशोरियाँ अत्यधिक कल्पनाशील होते हैं। उनकी कल्पना-शक्ति का समुचित उपयोग करने के लिए विद्यालय में आवश्यक व्यवस्था की सामाजिक सम्बन्धों की जाए। विद्यालय के पुस्तकालय में किशोरावस्था के अनुकूल साहित्य होना चाहिए। महान् पुरुषों के जीवन-चरित्र, साहित्यिक यात्रा वृतान्त, विभिन्न देशों के भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विवरण, आदि सम्बन्धी पुस्तकें पुस्तकालय में अवश्य मँगवाई जाएँ।

4. संवेगों का उचित शोधन- किशोरावस्था में संवेगों का प्राबल्य होता है। अत: इनका उचित शोधन और मार्गान्तीकरण करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विद्यालय में विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। समय-समय पर साहित्य, कला, संगीत तथा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए। इन क्रियाओं के माध्यम से निकृष्ट संवेगों का शोधन और मार्गान्तीकरण किया जा सकता है।

5. किशोर को महत्त्व देना- प्रत्येक किशोर समाज में अपना महत्त्व चाहता है। अतः इसके महत्त्व को मान्यता देना आवश्यक है। किशोरों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपने चाहिए तथा उन कार्यों के सम्पादन के बाद उनकी प्रशंसा भी की जानी चाहिए। विद्यालय अनुशासन स्थापना में भी छात्रों से हर प्रकार का सहयोग प्राप्त करना उपयोगी सिद्ध होगा।

6. बालक तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रम में अन्तर- शारीरिक, मानसिक और रुचियों के सम्बन्ध में बालक तथा बालिकाओं की आवश्यकताओं में भिन्नता होती है। अत: इनके पाठ्यक्रम में अन्तर होना चाहिए। बी० एन० झा के अनुसार, “लिंग-भेद के कारण तथा इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में भिन्न-भिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रम में विभिन्नता होनी चाहिए।’
यौन-शिक्षा

7. उचित शिक्षण विधियों का प्रयोग- किशोरों को परम्परागत विधियों के आधार पर शिक्षा प्रदान करना। पूर्णतया अनुचित है।. यथासम्भव उन शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए जिससे किशोरों को स्वयं परीक्षण-निरीक्षण, विचार और तर्क करने के अवसर प्राप्त हो सकें। सभी विषयों का शिक्षण पूर्णतया व्यावहारिक और दैनिक जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। साथ ही शिक्षण ऐसा हो जो बालकों की रुचियों को जाग्रत करे तथा उन्हें क्रियाशीलता के अवसर प्रदान करे।

8. व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा- किशोरावस्था में बालक तथा बालिकाओं के दृष्टिकोणों, भावनाओं और रुचियों में भिन्नता आ जाती है। अत: शिक्षा की योजना इस प्रकार की हो कि बालकों की विभिन्न रुचियों और भावनाओं की सन्तुष्टि हो सके। इस उद्देश्य से विद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

9. सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा- किशोर के लिए विद्यालय और परिवार से भी अधिक महत्त्व उस ‘समूह’ का होता है, जिसका वह सदस्य होता है। ऐसी दशा में विद्यालय में ही कुछ समूहों का संगठन किया जाए, जिससे कि छात्र उनके सदस्य बनकर उत्तम आचरण की शिक्षा ग्रहण कर सकें। ये समूह अध्यापकों के निरीक्षण में संगठित किये जाएँ। इसके अतिरिक्त विद्यालय में सामूहिक खेल तथा सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए। इनमें भाग लेकर बालक सामाजिकता की शिक्षा स्वाभाविक ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।

10. स्काउटिंग तथा गर्लगाइड- किशोरों की अतिरिक्त शक्तियों तथा संवेगों को उचित दिशा में लगाने के लिए स्काउटिंग तथा गर्लगाइड जैसी संस्थाओं का संगठन करना अति आवश्यक है। स्काउटिंग किशोरों की पाशविक तथा निरुद्देशीय भ्रमण करने की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण का साधन है। स्काउटिंग उन्हें समाज-सेवा करने का अवसर प्रदान करती है तथा उनकी साहसिक प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करती है। गर्लगाइड की योजना किशोरियों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।

11. व्यावसायिक मार्गदर्शन- किशोरावस्था में बालक व्यवसाय सम्बन्धी चिन्ता करने लगता है। अतः शिक्षक का कर्तव्य है कि वह इस दिशा में बालकों का समुचित मार्गदर्शन करे। किशोर यह निश्चय नहीं कर पाता है कि उसके लिए कौन-सा व्यवसाये उचित है। अत: शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बालकों की रुचियों, झुकावों तथा योग्यताओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन करे तथा उसके आधार पर उनका व्यावसायिक निर्देशन करे। विद्यालयों में भी कुछ व्यवसायों के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना इस उद्देश्य की पूर्ति करती है।

12. धार्मिक और नैतिक शिक्षा- किशोरावस्था में बालकों में जो मानसिक द्वन्द्व होता है, उसको समाप्त करने के लिए धार्मिक और नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है। नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो जिससे बालक उचित और अनुचित के मध्य अन्तर करना सीख सकें। महापुरुषों की जीवनगाथाओं का अध्ययन इस उद्देश्य को प्राप्त करने में विशेष सहायक सिद्ध हो सकता है।

13. यौन-शिक्षा- किशोरावस्था में काम-भावना का विकास होता है। यदि किशोरों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिलता तो वे भटक जाते हैं और अनेक उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं। अत: किसी-न-किसी रूप में यौन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। यौन शिक्षा बिना झिझक के उसी प्रकार प्रदान की जाए जिस प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती है। किशोरों को यौन शिक्षा प्रदान करते समय स्वास्थ्य विज्ञान और शरीर विज्ञान का भी पूरा-पूरा ज्ञान कराया जाए। बालिकाओं को यौन शिक्षा गृह विज्ञान के साथ दी जाए तो उत्तम है।

काम-प्रवृत्ति को यथासम्भव उचित ढंग से शोधून या मार्गान्तीकरण किया जाना अति आवश्यक है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि किशोरावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण और नाजुक अवस्था है। बालक भावी जीवन में जो कुछ बनेगा, वह किशोरावस्था में ही ज्ञात हो जाता है। जो बालक किशोरावस्था में अपराध, अधार्मिकता तथा आवारागर्दी में पड़ गया तो वह भावी जीवन में समाज व देश के लिए एक सिरदर्द बन सकता है। इसके विपरीत यदि उसका झुकाव साहित्य, कला तथा विज्ञान की ओर हो गया तो वह महान् साहित्यकार, कलाकार या वैज्ञानिक कुछ भी बन सकता है। अतः अभिभावकों तथा शिक्षकों का कर्तव्य है। कि वे किशोरों की मूल आवश्यकताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा समस्याओं को भली प्रकार समझें तथा उनका समुचित मार्गदर्शन करें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
हरंलॉक द्वारा किये गये बाल-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

हरलॉक द्वारा किया गया वर्गीकरण
(Classification by Hurlock)

विकास के सिद्धान्त के अनुसार बाल-विकास क्रमशः होता है। इस विकास की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की विशेषताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए तथा विकास की प्रक्रिया का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए विकास की विभिन्न अवस्थाएँ निर्धारित की गयी हैं। यह वर्गीकरण भिन्न-भिन्न रूप में किया गया है। हरलॉक द्वारा किया गया वर्गीकरण निम्नलिखित है

  1. गर्भावस्था- गर्भधारण होने से लेकर शिशु के जन्म तक।
  2. नवजात अवस्था- शिशु के जन्म से 14 दिन तक।
  3. शैशवावस्था- 14 दिन की आयु से दो वर्ष की आयु तक।
  4. बाल्यावस्था- 2 वर्ष की आयु से 11 वर्ष की आयु तक।
  5. किशोरावस्था- 11 वर्ष की आयु से 21 वर्ष की आयु तक।

हरलॉक ने विकास की उपर्युक्त मुख्य अवस्थाएँ मानी हैं। इसके उपरान्त उसने किशोरावस्था का पुनः वर्गीकरण किया है। हरलॉक ने किशोरावस्था को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है

(क) पूर्व किशोरावस्था- 11 वर्ष की आयु से 13 वर्ष की आयु तक का काल।
(ख) मध्य किशोरावस्था- 13 वर्ष की आयु से 17 वर्ष की आयु तक का काल।
(ग) उत्तर किशोरावस्था- 17 वर्ष की आयु से 21 वर्ष तक की आयु तक का काल।

प्रश्न 2
किशोरावस्था के विकास के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
या
किशोरावस्था में बच्चों के, सामाजिक विकास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त
(Theories of Development of Adolescence)

जब बालक बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो उसके अन्दर क्रान्तिकारी, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन शरीर और मन दोनों को प्रभावित करते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में निम्नलिखित दो सिद्धान्त प्रचलित हैं

1. आकस्मिक विकास का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्टेनले हाल (Stenley Hall) हैं। इनके अनुसार किशोरावस्था में प्रवेश करते ही बालक में जो परिवर्तन होते हैं, उनका सम्बन्ध न तो शैशवावस्था से होता है और न बाल्यावस्था से। इस प्रकार किशोरावस्था एक प्रकार से नया जन्म है। इस अवस्था में बालकों में जो परिवर्तन होते हैं, वे सब आकस्मिक होते हैं।

2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त- क्रमिक विकास का सिद्धान्त आकस्मिक विकास के सिद्धान्त के ठीक विपरीत है। थॉर्नडाइक का मत है कि किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन अचानक न होकर क्रमिक होते हैं। किंग (King) के अनुसार, “जिस प्रकार एक ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।”

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्पष्ट कीजिए कि किशोरावस्था में व्यवहार एवं स्वभाव में अस्थिरता पायी जाती है ?
उत्तर:
किशोरावस्था के प्रारम्भिक चरण में ही बालक के व्यवहार एवं स्वभाव में पर्याप्त अस्थिरता एवं चंचलता आ जाती है। इस काल में बालक कल्पनाओं में अधिक रहता है। इस काल में बालक कभी उदास, कभी प्रसन्न, कभी आत्म-विश्वासी तथा इसी प्रकार परस्पर विरोधी मानसिक स्थितियों से गुजरता रहता है। इस काल में यौन-आकर्षण भी प्रारम्भ हो जाता है। यह भी किशोरों के लिए अस्थिरता का एक कारण होता है। इस काल में असुरक्षा की भावना भी काफी प्रबल हो उठती है।

प्रश्न 2
स्पष्ट कीजिए कि किशोरावस्था में कल्पनाओं तथा भावनाओं की अधिकता होती है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाएँ अधिकतर कल्पनाओं में खोये रहते हैं। उनकी कल्पनाएँ। जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होती हैं, जिनका ठोस आधार कुछ भी नहीं होता। इसीलिए अनेक किशोर-किशोरियाँ प्रायः अन्तर्मुखी हो जाते हैं। कल्पनाओं के अतिरिक्त इस काल में कोमल भावनाओं को भी बोलबाला रहता है। भावनाओं के वशीभूत होकर किशोर कभी-कभी ऐसे भी कार्य कर बैठते हैं जिन्हें असाधारण कार्य कहा जाता है।

प्रश्न 3
आडीपस (मातृ भावना) और इलेक्ट्रा (पितृ भावना) काम्प्लेक्स क्या हैं?
उत्तर:
बाल्यावस्था में प्राय: कुछ मनोग्रन्थियाँ विकसित हो जाती हैं। इन मनोग्रन्थियों में दो मुख्य मंनोग्रन्थियाँ हैं-आडीपस (मातृ भावना) तथा इलेक्ट्रा (पितृ भावना)। इन मनोग्रन्थियों का विस्तृत विवरण फ्रॉयड ने प्रस्तुत किया है। फ्रॉयड के अनुसार, आडीपस मनोग्रन्थि से ग्रस्त बालक (लड़की) अपनी माँ के प्रति विशेष रूप से आकृष्ट होता है तथा वह उस पर अधिकार बनाना चाहता है। इस स्थिति में बालक अपने पिता को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानने लगता है तथा माँ पर पिता के अधिकार को सहन नहीं कर पाता। इलेक्ट्रा या पितृ भावना की ग्रन्थि लड़कियों में विकसित होती है। इस ग्रन्थि से ग्रस्त बालिका अर्थात् बेटी अपने पिता के प्रति आकृष्ट होती है तथा पिता पर अपना अधिकार दर्शाना चाहती है। वह पिता पर माँ के अधिकार को सहन नहीं कर पाती।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार विकास की मुख्य अवस्थाएँ कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार विकास की मुख्य अवस्थाएँ हैं-

  1. गर्भावस्था
  2. शैशवावस्था
  3. बाल्यावस्था तथा
  4. किशोरावस्था

प्रश्न 2
हरलॉक ने किशोरावस्था को किन उपवर्गों में बाँटा है ?
उत्तर:
हरलॉक ने किशोरावस्था को तीन उपवर्गों में बाँटा है-

  1. पूर्व किशोरावस्था
  2. मध्य किशोरावस्था तथा
  3. उत्तर किशोरावस्था

प्रश्न 3
“व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन गुडएनफ का है।

प्रश्न 4
विकास की किस अवस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है ?
उत्तर:
विकास की शैशवावस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है।

प्रश्न 5
विकास की किस अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार मुख्य रूप से मूलप्रवृत्यात्मक होता है?
उत्तर:
विकास की शैशवावस्था में व्यक्ति का व्यवहार मुख्य रूप से मूलप्रवृत्यात्मक होता है।

प्रश्न 6
शैशवावस्था में मुख्य रूप से किस विधि द्वारा सीखा जाता है ?
उत्तर:
शैशवावस्था में मुख्य रूप से अनुकरण विधि द्वारा सीखा जाता है।

प्रश्न 7
शैशवावस्था में नैतिक विकास की क्या स्थिति होती है ?
उत्तर:
शैशवावस्था में नैतिक विकास का प्रायः नितान्त अभाव होता है।

प्रश्न 8
विकास की बाल्यावस्था को अन्य किन-किन नामों से भी जाना जाता है ?
उत्तर:
विकास की बाल्यावस्था को क्रमशः ‘चुस्ती की आयु’, ‘गन्दी आयु’, ‘समूह आयु तथा ‘प्राथमिक विद्यालय की आयु’ आदि नामों से भी जाना जाता है।

प्रश्न 9
किन वर्षों के बीच की अवधि को प्रारम्भिक बाल्यकाल कहा जाता है?
उत्तर:
2 से 5 वर्षों के बीच की अवधि को प्रारम्भिक बाल्यकाल कहा जाता है।

प्रश्न 10
5 से 12 वर्ष तक विकास की अवस्था को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
मध्य बाल्यावस्था।

प्रश्न 11
विकास की किस अवस्था में व्यक्ति का नैतिक विकास प्रारम्भ हो जाता है ?
उत्तर:
सामान्य रूप से बाल्यावस्था में व्यक्ति का नैतिक विकास प्रारम्भ हो जाता है।

प्रश्न 12
व्यक्ति की जिज्ञासा वृत्ति विकास की किस अवस्था में प्रबल होती है ?
उत्तर:
व्यक्ति की जिज्ञासा वृत्ति बाल्यावस्था में प्रबन्न होती है।

प्रश्न 13
किशोरावस्था से क्या आशय है ?
उत्तर:
“किशोरावस्था बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य का परिवर्तन काल है।”

प्रश्न 14
कौन-सी अवस्था संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था कहलाती है?
उत्तर:
किशोरावस्था संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था कहलाती है।

प्रश्न 15
किशोरावस्था की व्याख्या करने वाले मुख्य सिद्धान्त कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था की व्याख्या करने वाले मुख्य सिद्धान्त हैं–

  1. त्वरित विकास का सिद्धान्त अथवा आकस्मिक विकास का सिद्धान्त तथा
  2. क्रमशः विकास का सिद्धान्त।

प्रश्न 16
किशोरावस्था के त्वरित विकास के सिद्धान्त को स्पष्ट करने वाले किसी कथन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
“किशोर में जो शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं, वे एकदम छलाँग मारकर आते हैं।’

प्रश्न 17
किशोरावस्था के क्रमशः विकास के सिद्धान्त को स्पष्ट करने वाले किसी कथन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
“जिस तरह एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के उपरान्त होता है, परन्तु पहली ही ऋतु में दूसरी ऋतु के आने के लक्षण प्रतीत होने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।”

प्रश्न 18
शैशवावस्था को जीवन का महत्त्वपूर्ण काल क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
शैशवावस्था में सम्पूर्ण विकास का प्रारम्भ होता है। शैशवावस्था को सम्पूर्ण विकास का आधार माना जाता है। इस अवस्था में यदि सुचारु विकास हो जाता है तो भावी विकास-प्रक्रिया भी सुचारु रूप में ही चलती है। इसीलिए शैशवावस्था को जीवन का महत्त्वपूर्ण काल कहा जाता है।

प्रश्न 19
शिशु में किस भावना का प्रभुत्व होता है?
उत्तर:
शिशु में स्नेह की भावना का प्रभुत्व होता है।

प्रश्न 20
बालक के विकास की किस अवस्था में पूनरावृत्ति की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है ?
उत्तर:
बालक के विकास की पूर्व-बाल्यावस्था में पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है।

प्रश्न 21
बालक की किस अवस्था को संकट की अवस्था कहते है?
उत्तर:
बालक की किशोरावस्था को संकट की अवस्था कहते हैं।

प्रश्न 22
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. शैशवावस्था में बालक के विकास पर उसके स्वास्थ्य का गम्भीर प्रभाव पड़ता है।
  2. बाल्यावस्था को चुस्ती का काल’ भी कहते हैं।
  3. बाल्यावस्था में कठोर अनुशासन द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए।
  4. बाल्यावस्था संघर्ष और तनाव का काल है।
  5. किशोरावस्था महान तनाव, तूफान तथा विरोध का काल है।
  6. किशोरावस्था में कोई प्रबल समस्या नहीं होती।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य
  6. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1.
शैशवावस्था में कौन-सा विकास तीव्र गति से होता है ?
(क) शारीरिक विकास
(ख) मानसिक विकास
(ग) सामाजिक विकास
(घ) भाषागत विकास

प्रश्न 2.
शैशवावस्था में सुचारु विकास के लिए किस बात का विशेष ध्यान रखना अनिवार्य है ?
(क) आज्ञापालन
(ख) अध्ययन
(ग) नैतिकता
(घ) पोषण

प्रश्न 3.
शैशवावस्था की मुख्य विशेषता है
(क) नैतिक बोध की प्रधानता
(ख) जटिल संवेगों का प्रदर्शन
(ग) काम-प्रवृत्ति का प्रकाशन
(घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता

प्रश्न 4.
विकास की किस अवस्था में यौन-प्रवृत्ति सुप्तावस्था में होती है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 5.
बाल्यावस्था की उल्लेखनीय विशेषता है-
(क) मानसिक विकास की अधिकता
(ख) अनुभव में वृद्धि
(ग) जिज्ञासा में वृद्धि
(घ) खेल की अवहेलना

प्रश्न 6.
विकास की किस अवधि को प्रारम्भिक विद्यालय की आयु’ कहा जाता है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 7.
विकास की किस अवस्था में शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित समस्याएँ प्रबल होती हैं ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

प्रश्न 8.
वीर पूजा की अवस्था कहलाती है
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 9.
किशोरावस्था जीवन का
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण काल है
(ख) महत्त्वपूर्ण काल है
(ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है
(घ) कम महत्त्वपूर्ण काल है

प्रश्न 10.
किशोरावस्था जीवन की सबसे
(क) महत्त्वपूर्ण काल है
(ख) कठिन काल है
(ग) अनोखा काल है
(घ) आदर्श काल है

प्रश्न 11.
अधिक तनाव का काल है-
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

प्रश्न 12.
किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त हैं
(क) तीन
(ख) दो
(ग) चार
(घ) पाँच

प्रश्न 13.
यौन-शिक्षा को सामान्य शिक्षा में अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए
(क) बाल्यावस्था में
(ख) किशोरावस्था में
(ग) युवावस्था में।
(घ) प्रत्येक अवस्था में

प्रश्न 14.
किशोरावस्था सम्बन्धी समस्याएँ हैं
(क) समायोजन की समस्याएँ
(ख) शारीरिक परिवर्तन सम्बन्धी समस्याएँ
(ग) यौन समस्याएँ
(घ) ये सभी समस्याएँ

प्रश्न 15.
किशोरों हेतु सर्वाधिक आवश्यक है
(क) शैक्षिक निर्देशन
(ख) यौन शिक्षा
(ग) कैरियर सम्बन्धी व्यावसायिक निर्देशन
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 16.
जन्म के समय बालकों का औसत भार होता है-
(क) 2.5 किग्रा
(ख) 2.9 किग्रा
(ग) 3.2 किग्रा
(घ) 4.7 किग्रा

प्रश्न 17.
शैशवावस्था की प्रमुख मनोवैज्ञानिक विशेषता है|
(क) सामाजिक व्यवहार
(ख) धार्मिक व्यवहार
(ग) मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार
(घ) अनुकरणात्मक प्रवृत्ति का अभाव

प्रश्न 18.
शैशवावस्था की प्रमुख विशेषता नहीं है-
(क) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति
(ख) मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार
(ग) कल्पनाशीलता
(घ) परिपक्वता

प्रश्न 19.
चुस्त-दुरुस्त अवस्था’ किस अवस्था को कहा जाता है ?
(क) पूर्व शैशवावस्था
(ख) शैशवावस्था
(ग) बाल्यावस्था
(घ) किशोरावस्था

प्रश्न 20.
जीवन का अनोखा काल’ कहा जाता है
(क) किशोरावस्था को
(ख) शैशवावस्था को
(ग) बाल्यावस्था को
(घ) युवावस्था को

प्रश्न 21.
स्वतन्त्रता व विद्रोह की भावना प्रबल होती है
(क) शैशवावस्था में
(ख) बाल्यावस्था में
(ग) किशोरावस्था में
(घ) इन सभी में

उत्तर:

  1. (क) शारीरिक विकास
  2. (घ) पोषण
  3. (घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता
  4. (ख) बाल्यावस्था
  5. (ग) जिज्ञासा में वृद्धि
  6. (ख) बाल्यावस्था
  7. (ग) किशोरावस्था
  8. (ग) किशोरावस्था
  9. (ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है
  10. (ग) अनोखी काल है
  11. (ग) किशोरावस्था
  12. (ख) दो
  13. (ख) किशोरावस्था में
  14. (घ) ये सभी समस्याएँ
  15. (ख) यौन शिक्षा
  16. (ख) 2.9 किग्रा
  17. (ग) मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार
  18. (घ) परिपक्वता
  19. (ग) बाल्यावस्था
  20. (क) किशोरावस्था को
  21. (ग) किशोरावस्था में

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