UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे

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UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि घुमंतू समुदायों को बार-बार एक जगह से दूसरी जगह क्यों जाना पड़ता है? इस निरंतर आवागमन से पर्यावरण को क्या लाभ है?
उत्तर:
ऐसे लोगों को घुमंतू या खानाबदोश कहते हैं जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते बल्कि अपनी जीविका के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। इन घुमंतू लोगों का जीवन इनके पशुओं पर निर्भर होता है। वर्ष भर किसी एक स्थान पर पशुओं के लिए पेयजल और चारे की व्यवस्था सुलभ नहीं हो पाती ऐसे में ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमणशील रहते हैं। जब तक एक स्थान पर चरागाह उपलब्ध रहता है तब तक ये वहाँ रहते हैं, परन्तु चरागाह समाप्त होने पर पुनः दूसरे नए स्थान की ओर चले जाते हैं।
घुमंतू लोगों के निरंतर आवागमन से पर्यावरण को निम्न लाभ होते हैं-

  1. यह खानाबदोश कबीलों को बहुत से काम जैसे कि खेती, व्यापार एवं पशुपालन करने का अवसर प्रदान करता है।
  2. उनके पशु मृदा को खाद उपलब्ध कराने में सहायता करते हैं।
  3. यह चरागाहों को पुनः हरा-भरा होने और उसके अति-चारण से बचाने में सहायता करता है क्योंकि चरागाहें अतिचारण एवं लम्बे प्रयोग के कारण बंजर नहीं बनतीं।
  4. यह विभिन्न क्षेत्रों की चरागाहों के प्रभावशाली प्रयोग में सहायता करता है।
  5. निरंतर स्थान परिवर्तन के कारण किसी एक स्थान की वनस्पति का अत्यधिक दोहन नहीं होता है।
  6. चरागाहों की गुणवत्ता बनी रहती है।
  7. लगातार स्थान परिवर्तन से भूमि की उर्वरता बनी रहती है।

प्रश्न 2.
इस बारे में चर्चा कीजिए कि औपनिवेशिक सरकार ने निम्नलिखित कानून क्यों बनाए? यह भी बताइए कि इन कानूनों से चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा?

  1. परती भूमि नियमावली
  2. वन अधिनियम
  3. अपराधी जनजाति अधिनियम
  4. चराई कर।

उत्तर:
1. परती भूमि नियमावली बनाने के कारण – अंग्रेज सरकार परती भूमि को व्यर्थ मानती थी, क्योंकि परती भूमि से उसे कोई लगान प्राप्त नहीं होती थी। साथ ही परती भूमि का उत्पादन में कोई योगदान नहीं होता था। यही कारण था कि अंग्रेज सरकार ने परती भूमि का विकास करने के लिए अनेक नियम बनाए जिन्हें परती भूमि नियमावली के नाम से जाना जाता है।
परती भूमि नियमावली का चरवाहों के जीवन पर प्रभाव-

  1. चरवाहे अपने पशुओं को अब निश्चित चरागाहों में ही चराते थे जिससे चारा कम पड़ने लगा।
  2. चारे की कमी के कारण पशुओं की सेहत और संख्या घटने लगी।
  3. चरागाहों का आकार सिमटकर बहुत छोटा रह गया।
  4. बचे हुए चरागाहों पर पशुओं का दबाव बहुत अधिक बढ़ गया।

2. वन अधिनियम बनाने के कारण – अंग्रेज वन अधिकारी ऐसा मानते थे कि वनों में पशुओं को चराने के अनेक नुकसान हैं। पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधों और वृक्षों की नयी कोपलें नष्ट हो जाती हैं जिससे नए पेड़ों का विकास रुक जाता है। इसलिए औपनिवेशिक सरकार ने अनेक वन अधिनियम पारित किए जिसके द्वारा वनों को आरक्षित तथा पशुचारण को नियमित किया जा सके।
वन अधिनियम का चरवाहों पर प्रभाव-

  1. वनों में उनके प्रवेश और वापसी का समय निश्चित कर दिया गया।
  2. वन नियमों का उल्लंघन करने पर भारी जुर्माने की व्यवस्था लागू की गई।
  3. घने वन जो बहुमूल्य चारे के स्रोत थे, उनमें पशुओं को चराने पर रोक लगा दी गई।
  4. कम घने वनों में पशुओं को चराने के लिए परमिट लेना अनिवार्य कर दिया गया।

3. “अपराधी जनजाति अधिनियम बनाने के कारण – अंग्रेज अधिकारी घुमंतू लोगों को शक की निगाह से देखते थे। अंग्रेजों का ऐसा मानना था कि इन लोगों के बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण इन लोगों की पहचान करना तथा इनका विश्वास करना कठिन कार्य है। घुमंतू लोगों से कर संग्रह करना और कर निर्धारण दोनों कठिन कार्य हैं। उक्त कारणों से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने 1871 ई० में अनेक घुमंतू समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में डाल दिया और उनकी बिना परमिट आवागमन को प्रतिबन्धित कर दिया।
अपराधी जनजाति अधिनियम को घुमंतू लोगों पर प्रभाव-

  1. अनेक समुदायों ने पशुपालन के स्थान पर वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना आरंभ कर दिया।
  2. अपराधी सूची में शामिल किए गए घुमंतू समुदाय एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने के लिए विवश हो गए।
  3. स्थायी रूप से बसने के कारण अब वे स्थानीय चरागाहों पर ही निर्भर ही गए जिसके कारण उनके पशुओं की संख्या में तेजी से कमी आई।

4. चराई कर लागू किए जाने के कारण – अंग्रेज सरकार ने अपनी आय बढ़ाने के लिए यथासंभव प्रयास किया। इसी क्रम में चरवाहों पर चराई कर लगाया गया। चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले एक-एक जानवर पर करे वसूल किया जाने लगा। देश के अधिकतर चरवाही इलाकों में 19वीं सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था। प्रति मवेशी कर की देर तेजी से बढ़ती चली गयी और कर वसूली की व्यवस्था दिनोंदिन सुदृढ़ होती गयी। 1850 से 1880 ई० के दशकों के बीच टैक्स वसूली का काम बाकायदा बोली लगाकर ठेकेदारों को सौंप जाता था।

ठेकेदारी पाने के लिए ठेकेदार सरकार को जो पैसा देते थे उसे वसूल करने और साल भर में ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा बनाने के लिए वे जितना चाहे उतना कर वसूल सकते थे। 1880 ई० के दशक तक आते-आते सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू कर दिया। हरेक चरवाहे को एक ‘पास’ जारी कर दिया गया। किसी भी चरागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले टैक्स अदा करना पड़ता था। चरवाहे के साथ कितने जानवर हैं और उसने कितना टैक्स चुकाया है, इस बात को उसके पास में दर्ज कर दिया जाता था।

चरवाहों पर चराई कर का प्रभाव–प्रति मवेशी कर लागू होने पर चरवाहों ने पशुओं की संख्या को सीमित कर दिया। अनेक चरवाहों ने अवर्गीकृत चरागाहों की खोज में स्थान परिवर्तन कर लिया। अनेक चरवाहा समुदायों ने पशुपालन के साथसाथ वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना आरंभ कर दिया। इससे पशुपालन करने वालों की कठिनाई को समझा जा सकता है।

प्रश्न 3.
मसाई समुदाय के चरागाह उनसे क्यों छिन गए? कारण बताएँ।।
उत्तर:
‘मासाई’, पूर्वी अफ्रीका का एक प्रमुख चरवाहा समुदाय है। औपनिवेशिक शासनकाल में मसाई समुदाय के चरागाहों को सीमित कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तथा प्रतिबन्धों ने उनकी चरवाही एवं व्यापारिक दोनों ही गतिविधियों पर विपरीत प्रभाव डाला। मासाई समुदाय के अधिकतर चरागाह उस समय छिन गए जब यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका को 1885 ई० में विभिन्न उपनिवेशों में बाँट दिया।

श्वेतों के लिए बस्तियाँ बनाने के लिए मासाई लोगों की सर्वश्रेष्ठ चरागाहों को छीन लिया गया और मासाई लोगों को दक्षिण केन्या एवं उत्तर तंजानिया के छोटे से क्षेत्र में धकेल दिया गया। उन्होंने अपने चरागाहों का लगभग 60 प्रतिशत भाग खो दिया। औपनिवेशिक सरकार ने उनके आवागमन पर विभिन्न बंदिशें लगाना प्रारंभ कर दिया। चरवाहों को भी विशेष आरक्षित स्थानों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना उन्हें उन सीमाओं से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। क्योंकि मासाई लोगों को एक निश्चित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया था, इसलिए वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कट गए और एक ऐसी अर्द्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर

मजबूर कर दिया गया जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में पूर्व अफ्रीका में औपनिवेशिक सरकार ने स्थानीय किसान समुदायों को अपनी खेती की भूमि बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके परिणामस्वरूप मासाई लोगों के चरागाह खेती की जमीन में तब्दील हो गए।
मासाई लोगों के रेवड़ (भेड़-बकरियों वाले लोग) चराने के विशाल क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया (उदाहरणतः कीनिया में मासाई मारा व साम्बूरू नैशनल पार्क और तंजानिया में सेरेनगेटी पार्क। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों को आना मना था। वे इन इलाकों में न तो शिकार कर सकते थे और न अपने जानवरों को ही चरा सकते थे। 14,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला सेरेनगेटी नैशनल पार्क भी मसाईयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।

प्रश्न 4.
आधुनिक विश्व ने भारत और पूर्वी अफ्रीकी चरवाहा समुदायों के जीवन में जिन परिवर्तनों को जन्म दिया उनमें कई समानताएँ थीं। ऐसे दो परिवर्तनों के बारे में लिखिए जो भारतीय चरवाहों और मासाई गड़रियों, दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।
उत्तर:
भारत और पूर्वी अफ्रीका दोनों ही उस समय औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन थे, इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें संदेह की दृष्टि से देखती थीं। इन दोनों देशों में औपनिवेशिक शोषण के तरीके में भी समानता थी।
मासाई गड़रियों और भारतीय चरवाहों को हम निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-
(i) भारत और अफ्रीका दोनों में ही जंगल यूरोपीय शासकों द्वारा आरक्षित कर दिए गए और चरवाहों का इन जंगलों में प्रवेश निषेध कर दिया गया। ये आरक्षित जंगल इन दोनों देशों में अधिकतर उन क्षेत्रों में थे जो पारंपरिक रूप से खानाबदोश चरवाहों की चरगाह थे। इस प्रकार, दोनों ही मामलों में औपनिवेशिक शासकों ने खेतीबाड़ी को प्रोत्साहन दिया जो अंततः चरवाहों की चरागाहों के पतन का कारण बनी।

(ii) भारत और पूर्वी अफ्रीका के चरवाहा समुदाय खानाबदोश थे और इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें अत्यधिक संदेह की दृष्टि से देखती थीं । यह उनके और अधिक पतन का कारण बना।

(iii) दोनों स्थानों के चरवाहा समुदाय अपनी-अपनी चरागाहें कृषि-भूमि को तरजीह दिए जाने के कारण खो बैठे। भारत में चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील करने के लिए उन्हें कुछ चुनिंदा लोगों को दिया गया। जो जमीन इस प्रकार छीनी गई थी वे अधिकतर चरवाहों की चरागाहें थीं। ऐसे बदलाव चरागाहों के पतन एवं चरवाहों के लिए बहुत-सी समस्याओं का कारण बन गए। इसी प्रकार अफ्रीका में भी मासाई लोगों की चरागाहें श्वेत बस्ती बसाने वाले लोगों द्वारा उनसे छीन ली गईं और उन्हें खेती की जमीन बढ़ाने के लिए स्थानीय किसान समुदायों को हस्तांतरित कर दिया गया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक सरकार ने ‘अपराधी जनजाति अधिनियम’ कब पारित किया?
उत्तर:
सन् 1871 में।

प्रश्न 2.
गुज्जर बकरवाल समुदाय किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
गुज्जर बकरवाल समुदाय भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य से सम्बन्धित है।

प्रश्न 3.
कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के प्रमुख चरवाहा समुदायों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के प्रमुख चरवाहा समुदाय हैं-गोल्ला, कुरूमा, कुरूबा आदि।

प्रश्न 4.
राइका समुदाय भारत के किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
‘राइका’ समुदाय भारत के राजस्थान राज्य से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5.
बंजारा समुदाय के लोग देश के किन राज्यों में पाए जाते हैं?
उत्तर:
बंजारा समुदाय के लोग भारत के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र राज्यों में पाए जाते हैं।

प्रश्न 6.
गद्दी समुदाय किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
गद्दी समुदाय के लोग देश के हिमाचल प्रदेश राज्य से सम्बन्धित हैं।

प्रश्न 7.
बुग्याल से क्या आशय है?
उत्तर:
ऊँचे पहाड़ों पर स्थित घास के हरे-भरे मैदानों को बुग्याल कहते हैं।

प्रश्न 8.
धंगर समुदाय बारिश शुरू होते ही सूखे पठारों की ओर क्यों लौट जाते हैं?
उत्तर:
धंगर समुदाय के लोग प्रमुख रूप से भेड़-बकरियाँ पालते हैं। भेड़ें मानसून के गीले मौसम को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं इसलिए वे इस मौसम में सूखे पठारों की ओर चले जाते हैं।

प्रश्न 9.
अफ्रीका के प्रमुख चरवाहा समुदाय और उनके द्वारा पालित मवेशियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विश्व की आधी से अधिक चरवाही जनसंख्या अफ्रीका में निवास करती है। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर अब अर्द्ध शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेरिनों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत कठिन है। ये ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे जैसे पशु पालते हैं और दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं।

प्रश्न 10.
नोमड़ किन्हें कहते हैं?
उत्तर:
नोमड़ वे लोग हैं जो एक स्थान पर नहीं रहते अपितु अपनी आजीविका कमाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं। भारत के कई हिस्सों में हम प्रायः खानाबदोश चरवाहों को उनके बकरियों और भेड़ों या ऊँटों और अन्य पशुओं के साथ घूमते हुए देखते हैं।

प्रश्न 11.
अपराधी जनजाति अधिनियम 1871 के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार खानाबदोश कबीलों को अपराधी की नजर से देखती थी। भारत की औपनिवेशिक सरकार द्वारा सन् 1871 में अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम ने दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया। बिना किसी वैध परिमट के इन समुदायों को उनकी विशिष्ट ग्रामीण बस्तियों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।

प्रश्न 12.
भारत के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले चरवाहों के नाम लिखिए।
उत्तर:
गुज्जर बकरवाल जम्मू कश्मीर के घुमन्तू चरवाहे, गद्दी हिमाचल प्रदेश के घुमंतू चरवाहे, धंगर महाराष्ट्र के घुमंतू चरवाहे, कुरुमा, कुरुबा तथा गोल्ला कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के चरवाहे, बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के घुमंतू चरवाहे, राइका राजस्थान के घुमंतू चरवाहे आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 13.
औपनिवेशिक शासन का चरवाहों की जिन्दगी पर प्रभाव बताइए।
उत्तर:
औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में गहरे बदलाव आए। उनके चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने जाने पर बंदिशें लगने लगीं और उनसे जो लगान वसूल किया जाता था उसमें भी वृद्धि हुई। खेती में उनका हिस्सा घटने लगा और उनके पेशे और हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।

प्रश्न 14.
कुरुबा, कुरुमा और गोल्ला चरवाही के अलावा और कौन-सा व्यवसाय करते हैं?
उत्तर:
गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे जबकि कुरुमा और कुरुबा समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते थे और हाथ के बुने कम्बल बेचते थे। ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे खेतों के आस-पास रहते थे। वे अपने जानवरों की देखभाल के साथ-साथ कई दूसरे काम-धंधे भी करते थे।

प्रश्न 15.
किन्नौरी, शेरपा और भोटिया किस तरह के चरवाहे हैं?
उत्तर:
हिमालय के पर्वतीय भागों में रहने वाले भोटिया, शेरपा और किन्नौरी समुदाय के लोग अपने मवेशियों को चराने के काम हेतु मौसमी बदलावों के हिसाब से खुद को ढालते थे और अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का बेहतरीन इस्तेमाल करते थे। जब एक चरागाह की हरियाली खत्म हो जाती थी या इस्तेमाल के काबिल नहीं रह जाती थी तो वे किसी और चरागाह की तरफ चले जाते थे।

प्रश्न 16.
गद्दी चरवाहे किस तरह अपने मवेशियों को चराते थे? उत्तर- हिमाचल प्रदेश के गद्दी चरवाहे मौसमी
उतार:
चढ़ाव का सामना करने के लिए इसी तरह सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे। वे भी शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में चराते हुए जाड़ा बिताते थे। अप्रैल आते-आते वे उत्तर की तरफ चल पड़ते और पूरी गर्मियाँ लाहौल और स्पीति में बिता देते। जब बर्फ पिघलती और ऊँचे दरें खुल जाते तो उनमें से बहुत सारे ऊपरी पहाड़ों में स्थित घास के मैदानों में जा पहुँचते थे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अफ्रीका के निर्धन चरवाहों का जीवन उनके मुखिक से किस तरह अलग था?
उत्तर:
मुखियाओं के पास नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, सामान और जमीन खरीद सकते थे। वे युद्ध एवं अकाल की विभीषिका को झेल कर बचे रह सकते थे। उन्हें अब चरवाही एवं गैर-चरवाही दोनों तरह की आमदनी होती थी और अगर उनके जानवर किसी वजह से घट जाते तो वे और जानवर खरीद सकते थे। किन्तु ऐसे चरवाहों का जीवन इतिहास अलग था जो केवल अपने पशुओं पर ही निर्भर थे। प्रायः उनके पास बुरे सैमय में बचे रहने के लिए संसाधन नहीं होते थे। युद्ध एवं अकाल के दिनों में वे अपना लगभग सब कुँछ आँवा बैठते थे।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक सरकार ने अफ्रीकी चरवाहों पैर कौन-से प्रतिबन्ध लगाए थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार ने अफ्रीकी चरवाहों पर निम्न प्रतिबन्ध लगाए-

  1. मासीई लोगों के रेवेंड़ चराने के विशील क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों को आना मना था।
  2. मूल निवासियों को भी पास जारी किए गए थे जिन्हें दिखाए बिना उन्हें प्रतिबंधित क्षेत्रों में प्रवेश करने नहीं दिया जाता था।
  3. औपनिवेशिक सरकार ने उनके आने-जाने पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए।
  4. चरवाहा समुदाय को विशेष रूप से निर्धारित स्थानों पर निवास करने के लिए बाध्य किया गया।
  5. बिना किसी वैधं परमिट के ईनं समुदायों को उनकी विशिष्ट ग्रामीण बस्तियों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।
  6. वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कैट गए और उन्हें एक ऐसी अर्द्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिये गये जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।

प्रश्न 3.
औपनिवेशिक सरकार ने भीरत में परेती भूमि नियमावली क्यों लागू की तथा इसका क्या प्रभाव हुआ?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार परती भूमि को बैंकार मानती थी, क्योंकि इससे उसे कोई राजस्व प्राप्त नहीं होता था। अतः वह सभी चरागाहों को कृषि भूमि में परिवर्तित कैरनी चाहती थी। उसका मानना था कि यदि ऐसा कर दिया जाए तो भू-राजस्व भी बढ़ेगा और जूट (पटसन), कपास, गेहूँ जैसी फसलों के उत्पादन में भी वृद्धि होगी। सभी चरागाहों को अंग्रेज सरकार परती भूमि मानती थी क्योंकि उससे उन्हें कोई लंगान नहीं मिलती था। उन्नीसवीं सदी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास के लिए नियम बनाए जाने लगे। इन नियमों की सहायता से सरकार गैर-खेतिहर जमीन को अपने अधिकार में लेकर कुछ विशेष लोगों को सौंपने लगी। इन लोगों को विभिन्न प्रकार की छूट प्रदान की गई और ऐसी भूमि पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इनमें से कुछ लोगों को इस नई जमीन पर बसे गाँव का मुखिया बना दिया गया। इस तरह कब्जे में ली गई ज्यादातर जमीन वास्तव में चरागाहों की थी जिनका चरवाहे नियमित रूप से इस्तेमाल किया करते थे। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह सिमटने लगे जिसने चरवाहों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाली।

प्रश्न 4.
राइको समुदाय के जीवन-विधि को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राइका देश के पश्चिमी राज्य राजस्थान का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। यह क्षेत्र वर्ष में बहुत कम हैं #प्त करता है। इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फल होती ही नहीं थी। इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम करते थे। बरसात में तो बाड़मेर, जैसलमेर, औध और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे क्योंकि इस दौरान उन्हें वहीं चारा मिल जाता था। लेकिन अक्टूबर आते-अति ये चरागाह सूखने लगते थे। नतीजतन ये लोग नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ निकल जाते थे और अगंली बरसात में ही वापस लौटते थे। राइकाओं का एक वर्ग ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे।

प्रश्न 5.
घरवाहा समुदाय की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चरवाहा समुदाय का जीवन निरंतर प्रकृति से संघर्ष में बीतता था। उन्हें निरंतर प्राकृतिक एवं मानवीय समस्याओं और बदलती परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, जैसे-
(क) स्थायी संबंधों की स्थापनी – उन्हें अपने प्रवास के प्रत्येक ठिकाने ,पर रहने वाले निवासियों तथा अधिकारियों से घनिष्ठ संपर्क बनाए रखने की आवश्यकता होती है अन्यथा वे उन क्षेत्रों में उनके पशुचारण पर प्रतिबंध लगी कते हैं।

(ख) दिशा का निर्धारण – प्रवास की दिशा निर्धारित करना चरवाहा समुदाय की एक प्रमुख समस्या होती है क्योंकि गलत दिशा का चयन उन्हें तथा उनके पशुओं के लिए भोजन तथा पानी की समस्या उपस्थित कर सकता है।

(ग) प्रवास की समय सीमा का निर्धारण – प्रवास काल में किस स्थान पर कितने समय तक रुकना है जिससे वे चरागाहों तक सही समय पर पहुँच सकें और मौसम बिगड़ने से पहले सही सलामत वापस आ सकें अर्थात् प्रवास की अवधि और रेवड़ के साथ कब और कहाँ ठहरना है आदि, का निर्धारणजी एक कठिन समस्या होती है जिसे एक लंबे अनुभव द्वारा ही हल किया जा सकता है। चरवाहा समुदाय अपनी जीवन सम्बन्धी अनेक आवश्यकताओं के लिए गैर-चरवाहा समुदायों पर भी निर्भर होते हैं, ऐसे में समाज अन्य समूहों से भी उनके मानवीय सम्बन्ध स्थापित होते हैं।

प्रश्न 6.
चराई-कर ने चरवाहा समुदाय पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर:
चराई-कर का चरवाहा समुदाय पर प्रभाव-भारत में अंग्रेज सरकार ने 19वीं शताब्दी के मध्य अपनी आय बढ़ाने के लिए अनेक नए कर लगाए। इन्हीं में से एक चराई-कर था, जो पशुओं पर लगाया गया था। यह कर प्रति पशु पर लिया जाता था। कर वसूली के तरीकों में परिवर्तन के साथ-साथ यह कर निरंतर बढ़ता गया। पहले तो यह कर सरकार स्वयं वसूल करती थी परंतु बाद में यह काम ठेकेदारों को सौंप दिया गया। ठेकेदार बहुत अधिक कर वसूल करते थे और सरकार को एक निश्चित कर ही देते थे। फलस्वरूप खानाबदोशों का शोषण होने लगा। अतः बाध्य होकर उन्हें अपने पशुओं की संख्या कम करनी पड़ी। फलस्वरूप खानाबदोशों के लिए रोजी-रोटी की समस्या उत्पन्न हो गई।
इस प्रकार औपनिवेशिक सरकार द्वारा लागू किए गए इन विभिन्न नियमों ने चरवाहा समुदायों के जीवन को और अधिक कष्टपूर्ण बना दिया।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक प्रतिबन्धों ने चरवाहा समुदाय पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर:
औपनिवेशिक प्रतिबन्धों ने चरवाहा समुदाय को निम्न प्रकार से प्रभावित किया-

  1. चरागाहों की कमी होने के कारण बचे हुए चरागाहों पर दबाव बहुत अधिक बढ़ गया जिससे चरागाहों की गुणवत्ता में कमी आई।
  2. चारे की मात्रा और गुणवत्ता में कमी का प्रभाव पशुओं के स्वास्थ्य एवं संख्या पर भी पड़ा।
  3. इससे चरागाह क्षेत्रों के कमी की समस्या उत्पन्न हो गई जिसके कारण चरवाहा समुदायों के सामने रोजी-रोटी का संकट उपस्थित हो गया।
  4. वनों को आरक्षित कर दिया गया जिसके कारण अब वे वनों में पहले की तरह आजादी से अपने पशुओं को नहीं चरा सकते थे।

प्रश्न 8.
बार-बार पड़ने वाले अकाल का मासाई समुदाय के चरागाहों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अकाल किसी भी स्थान की फसलों, चरागाहों और जन-जीवन पर विनाशकारी प्रभाव डालता है। वर्षा न होने पर चरागाह सूख जाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि चरवाहे स्थानान्तरण न करें तो भोजन के अभाव में जानवरों की मृत्यु निश्चित है। फिर भी औपनिवेशिक प्रशासन में मासाई लोगों को प्रतिबंधित क्षेत्रों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना ये लोग इनकी सीमाओं के बाहर नहीं जा सकते थे।

1933 और 1934 ई0 में पड़े केवल दो साल के भयंकर सूखे में मासाई आरक्षित क्षेत्र के आधे से अधिक जानवर मर चुके थे। जैसे-जैसे चरने की जगह सिकुड़ती गई, सूखे के दुष्परिणाम भयानक रूप लेते चले गए। बार-बार आने वाले बुरे सालों की वजह से चरवाहों के जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई।

प्रश्न 9.
औपनिवेशिक सरकार मासाई समुदाय में मुखिया की नियुक्ति क्यों करती थी?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार ने विभिन्न मासाई समुदाय में मुखिया की नियुक्ति की। मुखिया कबीलों से सम्बन्धित मामलों को देखते थे। ये मुखिया धीरे-धीरे धन संचय करने लगे। उनके पास अपनी नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, सामान और जमीन खरीद सकते थे। वे अपने गरीब पड़ोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज देते थे। उनमें से अधिकतर मुखिया बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे। अब वे युद्ध एवं अकाल की विभीषिका को झेल कर बचे रह सकते थे। उन्हें अब चरवाही एवं गैर-चरवाही दोनों तरह की आमदनी होती थी और अगर उनके जानवर किसी वजह से घट जाते तो वे
और जानवर खरीद सकते थे।

प्रश्न 10.
कोंकण के स्थानीय किसान धंगर चरवाहों का स्वागत क्यों करते थे?
उत्तर:
कोंकण एक उपजाऊ क्षेत्र है और यहाँ पर्याप्त वर्षा होती है। यहाँ के किसान चावल की खेती करते हैं।
वे दो कारणों से धंगर चरवाहों का स्वागत करते हैं-

  1. धंगर के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता है, जिससे भूमि पुनः उर्वरता प्राप्त कर लेती है। प्रसन्न होकर कोंकण के किसान धंगरों को चावल देते हैं जो वे वापस लौटते समय अपने साथ ले जाते हैं।
  2. जब धंगर कोंकण पहुँचते हैं तब तक खरीफ की फसल की कटाई हो चुकी होती है। तब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने होते हैं। उनके खेतों में धान के इँठ अभी मिट्टी में फँसे होते हैं। धंगरों के पशु इन इँठों को खा जाते हैं और मिट्टी साफ हो जाती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अफ्रीका में चरवाही पर एक संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए।
उत्तर:
विश्व की आधे से अधिक चरवाही जनसंख्या अफ्रीका में निवास करती है। आज भी अफ्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोजी-रोटी के लिए किसी-न-किसी तरह की चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित हैं। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे जाने-माने समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर अब अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत कठिन है। यहाँ के चरवाहे गाय, बैल, ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे पालते हैं। ये लोग दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं। कुछ चरवाहे व्यापार और यातायात संबंधी काम भी करते हैं। कुछ लोग आमदनी बढ़ाने के लिए चरवाही के साथ-साथ खेती भी करते हैं। कुछ लोग चरवाही से होने वाली मामूली आय से गुजर नहीं हो पाने पर कोई भी धंधा कर लेते हैं। अफ्रीकी चरवाहों को जीवन औपनिवेशिक काल एवं उत्तर-औपनिवेशिक काल में बहुत अधिक बदल गया है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम सालों से ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पूर्वी अफ्रीका में भी स्थानीय किसानों को अपनी खेती के क्षेत्रफल को अधिक से अधिक फैलाने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। जैसे-जैसे खेती का प्रसार हुआ वैसे-वैसे चरागाह खेतों में तब्दील होने लगे। ये चरवाहों के लिए ढेरों कठिनाइयाँ लेकर आए। उनका जीवन बहुत कठिन बन गया।

प्रश्न 2.
मासाई समुदाय के सामाजिक जीवन का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
मासाई लोगों की वास्तविक संपत्ति इनके पशु होते हैं। प्रत्येक मासाई परिवार में बड़ी संख्या में पशु-पालन किया जाता है। पशुओं से दूध निकालने का कार्य महिलाएँ करती हैं। यह कार्य दिन निकलने से पहले और सूर्य डूबने से पहले किया जाता है। ये लोग प्रायः कच्चे दूध का ही उपयोग करते हैं। केवल रोगग्रस्त मासाई ही उबालकर दूध का उपयोग करते हैं। दूध को हिलाकर मक्खन बनाया जाता है किन्तु ये लोग पनीर बनाना नहीं जानते। मासाई लोग भेड़ पालन भी करते हैं। इनसे दूध, ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। परंतु भेड़ों का स्थान इनके सामाजिक जीवन में अधिक महत्त्व का नहीं है, भेड़ों के साथ कुछ बकरियाँ भी पाली जाती हैं। बकरियों से दूध और मांस दोनों प्राप्त होते हैं। अधिकांश परिवारों में कुछ गधे भी पाले जाते हैं, जिन पर बोझा ढोने का काम लिया जाता है। कुछ लोग इस कार्य के लिए ऊँट भी रखते हैं। कुत्तों का प्रयोग पशुओं की देखभाल के लिए किया जाता है।

मासाई समुदाय के सभी सदस्य पशुपालन का कार्य नहीं करते हैं। प्रायः 16 से 30 वर्ष के लोगों को युद्ध के लिए रखा जाता है। इनका कर्त्तव्य अपने दल के लोगों तथा पशुओं की रक्षा करना है। ये सिपाही बड़े आनंद से जीवन बिताते हैं। ये लोग तेज धार वाले बचें, लोहे की तलवार और हड्डी की बनी ढाल का प्रयोग करते हैं।

मासाई समाज की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समय-समय पर युवकों को योद्धाओं के दल में भेजा जाता है। ये उन लोगों का स्थान ग्रहण करते हैं जो प्रौढ़ हो जाते हैं और उन्हें शादी करके परिवार बसाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। युवकों को योद्धावर्ग में सम्मिलित होने से पूर्व योद्धाओं के सब गुण अपनाने पड़ते हैं और बाद में उनका मुंडन-संस्कार होता है। प्रत्येक वर्ग को कुछ नाम दिया जाता है, जैसे-‘लुटेरा’, ‘सफेद तलवार’ इत्यादि। योद्धाओं का आयु के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है। मासाई लोग सदा अपनी संपत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं, जिसमें ये योद्धा बड़े सहायक होते हैं।
मासाई के जीवन की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं-

  1. बालपन,
  2. योद्धापन और
  3. वृद्ध।

प्रश्न 3.
भारत के पठारी क्षेत्र में रहने वाले धंगर चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
धंनगर (धंगर) महाराष्ट्र का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। ये लोग महाराष्ट्र के मध्य पठारी क्षेत्रों में रहते हैं। 20वीं सदी की शुरुआत में इनकी जनसंख्या 4,67,000 थी। इस समुदाय के अधिकांश लोग पशुचारण पर आश्रित हैं परंतु कुछ लोग कंबल और चादरें भी बनाते हैं। महाराष्ट्र का यह भाग कम वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण अर्द्धशुष्क प्रदेश है। यहाँ प्राकृतिक वनस्पति के रूप में काँदेदार झाड़ियाँ मिलती हैं जो पशुओं को चारा जुटाती हैं। अक्टूबर में यहाँ बाजरा की फसल काटने के उपरांत ये लोग पश्चिम में कोंकण क्षेत्र में पहुँच जाते थे। इस यात्रा में लगभग एक महीना लग जाता था। कोंकण एक उपजाऊ प्रदेश है और यहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती है।

अतः यहाँ के किसान चावल की खेती करते थे। ये धंगर चरवाहों का स्वागत करते थे जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे जिसे समय धंगर किसान कोंकण पहुँचते थे उस समय तक खरीफ (चावल) की फसल कट चुकी होती थी। अब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने होते थे। उनके खेतों में धान के नँठ अभी मिट्टी में फँसे होते थे। धांगरों के पशु इन ढूंठों को खा जाते थे और मिट्टी साफ हो जाती थी। धंगरों के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता था। अतः मिट्टी फिर से उर्वरता प्राप्त कर लेती थी। प्रसन्न होकर कोंकणी किसान धांगरों को चावल देते थे जो वे वापसी पर अपने साथ ले जाते थे।

प्रश्न 4.
भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक चरवाहा समुदाय रहते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख समुदायों का विवरण इस प्रकार है-
(1) गुज्जर समुदाय – मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी गुज्जर लोग गाय और भैंस पालते हैं। ये हिमालय के गिरीपद क्षेत्रों (भाबर क्षेत्र) में रहते हैं। ये लोग जंगलों के किनारे झोंपड़ीनुमा आवास बना कर रहते हैं। पशुओं को चराने का कार्य पूरुष करते हैं। पहले दूध, मक्खन और घी इत्यादि को स्थानीय बाजार में बेचने का कार्य महिलाएँ करती थीं परंतु अब ये इन उत्पादों को परिवहन के साधनों (टैंपो, मोटरसाइकिल आदि) की सहायता से निकटवर्ती शहरों में बेचते हैं। इस समुदाय के लोगों ने इस क्षेत्र में स्थायी रूप से बसना आरंभ कर दिया है परंतु अभी भी अनेक परिवार गर्मियों में अपने पशुओं को लेकर ऊँचे पर्वतीय घास के मैदानों (बुग्याल) की ओर चले जाते हैं। इस समुदाय को स्थानीय नाम ‘वन गुज्जर’ के नाम से भी जाना जाता है। अब इस समुदाय ने पशुचारण के साथ-साथ स्थायी रूप से कृषि करना भी आरंभ कर दिया है। हिमाचल के अन्य प्रमुख चरवाहा समुदाय भोटिया, शेरपा तथा किन्नौरी हैं।

(2) गुज्जर बकरवाल – इन लोगों ने 19वीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर में बसना आरंभ कर दिया। ये लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े झुण्ड पालते हैं जिन्हें रेवड़ कहा जाता है। बकरवाल लोग अपने पशुओं के साथ मौसमी स्थानान्तरण करते हैं। सर्दियों के मौसम में यह अपने पशुओं को लेकर शिवालिक पहाड़ियों में चले आते हैं क्योंकि ऊँचे पर्वतीय मैदान इस मौसम में बर्फ से ढक जाते हैं इसलिए उनके पशुओं के लिए चारे का अभाव होने लगता है जबकि हिमालय के दक्षिण में स्थित शिवालिक पहाड़ियों में बर्फ न होने के कारण उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध हो जाता है। सर्दियों के समाप्त होने के साथ ही अप्रैल माह में यह समुदाय अपने काफिले को लेकर उत्तर की ओर चलना शुरू कर देते हैं।

पंजाब के दरों को पार करके जब ये समुदाय कश्मीर की घाटी में पहुँचते हैं तब तक गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुकी होती है तथा चारों तरफ नई घास उगने लगती है। सितम्बर के महीने तक ये इस घाटी में ही डेरा डालते हैं और सितम्बर महीने के अंत में पुनः दक्षिण की ओर लौटने लगते हैं। इस प्रकार यह समुदाय प्रति वर्ष दो बार स्थानांतरण करता है। हिमालय पर्वत में ये ग्रीष्मकालीन चरागाहें, 2,700 मीटर से लेकर 4,120 मीटर तक स्थित हैं।

(3) गद्दी समुदाय – हिमाचल प्रदेश के निवासी गद्दी समुदाय के लोग बकरवाल समुदाय की तरह अप्रैल और सितम्बर के महीने में ऋतु परिवर्तन के साथ अपना निवास स्थान परिवर्तित कर लेते हैं। सर्दियों में जब ऊँचे क्षेत्रों में बर्फ जम जाती है, तो ये अपने पशुओं के साथ शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आ जाते हैं। मार्ग में वे लाहौल और स्पीति में रुककर अपनी गर्मियों की फसल को काटते हैं तथा सर्दियों की फसल की बुवाई करते हैं। अप्रैल के अंत में वे पुनः लाहौल और स्पीति पहुँच जाते हैं और अपनी फसल काटते हैं। इसी बीच बर्फ पिघलने लगती है और दरें साफ हो जाते हैं इसलिए गर्मियों में अपने पशुओं के साथ ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पहुँच जाते हैं। गद्दी समुदाय में भी पशुओं के रूप में भेड़ तथा बकरियों को ही पाला जाता है।

प्रश्न 5.
मासाई समुदाय को औपनिवेशिक शासन ने किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर:
मासाई समुदाय के जीवन को औपनिवेशिक शासन ने निम्न प्रकार से प्रभावित किया-
(1) सामाजिक हस्तक्षेप – औपनिवेशिक शासन ने मासाई की सामाजिक संरचना को भी प्रभावित किया। उन्होंने कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए तथा उनके कबीलों की समस्त जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। विभिन्न समुदायों के मध्य होने वाले युद्धों पर पाबंदी लगा दी गई जिसके कारण योद्धा वर्ग तथा वरिष्ठ जनों की परंपरागत सत्ता कमजोर हो गई। मासाई समाज धीरे-धीरे अमीर तथा गरीब में बँटने लगा क्योंकि मुखिया की नियमित आमदनी के अनेक स्रोत थे परंतु साधारण चरवाहों की आय बहुत सीमित थी जिसके कारण उनके बीच का अंतर निरंतर बढ़ता गया।

(2) सीमाओं का निर्धारण – औपनिवेशिक शासन से पूर्व मासाई चरवाहों पर कोई क्षेत्रीय प्रतिबंध नहीं था। वे अपने रेवड़ के साथ भोजन तथा पानी की खोज में कहीं भी आ-जा सकते थे। परंतु अब सभी चरवाहा समुदायों को भी विशेष आरक्षित इलाकों की सीमाओं में कैद कर दिया गया। अब ये समुदाय इन आरक्षित इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे। वे विशेष पास लिए बिना अपने जानवरों को लेकर बाहर नहीं जा सकते थे। लेकिन परमिट (पास) हासिल करना भी कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्हें तरह-तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता था और उन्हें तंग किया जाता था। अगर कोई नियमों का पालन नहीं करता था तो उसे कड़ी सजा दी जाती थी।

(3) सूखा तथा अकाल की विषम स्थिति – औपनिवेशिक शासन से पूर्व कम वर्षा अथवा अकाल की स्थिति में चरवाहा समुदाय स्थान परिवर्तन के द्वारा इस प्राकृतिक आपदा का सामना सफलतापूर्वक कर लेते थे परंतु चरागाह समुदायों की सीमाओं का निर्धारण हो जाने के पश्चात् सूखे की आशंका सदा बनी रहती थी।

(4) शिकार के लिए चराई क्षेत्र को आरक्षण – मासाइयों के विशाल चराई क्षेत्र पर औपनिवेशिक शासकों ने पशुओं के शिकार के लिए पार्क बना दिए। इन पार्को में कीनिया के मासाई मारा तथा सांबू नेशनल पार्क तथा तंजानिया का सेरेंगेटी नेशनल पार्क के नाम लिए जा सकते हैं। सेरेंगेटी नेशनल पार्क 14,760 किमी से भी अधिक क्षेत्र पर बनाया गया था। मासाई लोग इन पार्को में न तो पशु चरा सकते थे और न ही शिकार कर सकते थे।
अच्छे चराई क्षेत्रों के छिन जाने तथा जल संसाधनों के अभाव से शेष बचे चराई क्षेत्र की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। चारे की आपूर्ति में भारी कमी आई। फलस्वरूप पशुओं के लिए आहार जुटाने की समस्या गंभीर हो गई।

(5) चरागाहों का कम होना – औपनिवेशिक शासन से पहले मासाई लैंड का इलाका उत्तरी कीनिया से लेकर तंजानिया के घास के मैदानों (स्टेपीज) तक फैला हुआ था। उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मारकाट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे उपनिवेशों में तब्दील करके अपने-अपने कब्जे में ले लिया।

1885 ई० में ब्रिटिश, कीनिया और जर्मन के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय टंगानयिका सीमा खींचकर मासाई लैंड के दो बराबरबराबर टुकड़े कर दिए गए। बाद के सालों में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया। मासाईयों को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंजानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया गया। औपनिवेशिक शासन से पहले मासाईयों के पास जितनी जमीन थी उसका लगभग 60 फीसदी हिस्सा उनसे छीन लिया गया। उन्हें ऐसे सूखे इलाकों में कैद कर दिया गया जहाँ न तो अच्छी बारिश होती थी और न ही हरे-भरे चरागाह थे।

(6) कृषि क्षेत्रों का विस्तार – ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने पूर्वी अफ्रीका में स्थानीय किसानों को कृषि क्षेत्र का विस्तार करने के लिए प्रेरित किया। कृषि क्षेत्र बढ़ाने के लिए चरागाहों को कृषि-खेतों में बदला गया जिसके कारण चरागाह क्षेत्र बहुत तेजी से कम होने लगे।

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