UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 14 Exertion of Ahimsa in Politics

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 14 Exertion of Ahimsa in Politics

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 14
Chapter NameExertion of Ahimsa in Politics
(राजनीति में अहिंसा का प्रयोग)
Number of Questions Solved16
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 14 Exertion of Ahimsa in Politics (राजनीति में अहिंसा का प्रयोग)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चोरी चौरा काण्ड कहाँ हुआ था?
उतर:
असहयोग आन्दोलन के समय देशभर में किसानों के व्यापक आन्दोलन हो रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के चोरी चौरा नामक ग्राम में 5 फरवरी 1922 ई० में लगभग 3000 सत्याग्रहियों ने एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया। आयोजन शान्ति पूर्ण था। अचानक भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चला दी। भीड़ उत्तेजित हो गई और थाने को घेर लिया गया एवं 22 पुलिसकर्मियों को जिन्दा जला दिया गया। इस घटना को इतिहास में चोरी चौरा काण्ड के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2.
भारत छोड़ो आन्दोलन पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
उतर:
गाँधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध किया गया अन्तिम आन्दोलन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। 8 अगस्त, 1942 को बम्बई (मुम्बई) में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति द्वारा भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया। इस आन्दोलन की विशेषता थी कि यह एक अहिंसात्मक आन्दोलन नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता के आक्रोश का प्रतीक था। महात्मा गाँधी ने इस आन्दोलन में करो या मरो’ का नारा दिया। यही आन्दोलन भारत में ब्रिटिश शासन के सूर्यास्त का कारण बना।

प्रश्न 3.
खिलाफत आन्दोलन के उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
उतर:
खिलाफत आन्दोलन, भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में ब्रिटेन के खिलाफ चलाया। इस आन्दोलन का समर्थन गाँधी जी ने भी किया। इसका उद्देश्य खलीफा की शक्ति को पुनः स्थापित करना तथा भारतीय हिन्दू और मुसलमानों को एक सूत्र में बाँधना था।

प्रश्न 4.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उतर:
रॉलेट ऐक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में रौलेट ऐक्ट का विरोध करने के लिए लगभग 2,000 स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया। उस समय अंग्रेजी सरकार ने किसी भी सामूहिक एकत्रीकरण एवं जुलूस पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर रखी थी। जनरल डायर ने सभा करने वाले लोगों को सबक सिखाना चाहा। उसने वहाँ पहुँचते ही गोली चलाने का आदेश दे दिया। लगभग दस मिनट तक निरन्तर गालियाँ चलती रहीं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार वहाँ 379 लोग मारे गए। जबकि कांग्रेस समिति के अनुसार मरने वालों की संख्या लगभग 1,000 थी।

प्रश्न 5.
रॉलेट ऐक्ट पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को अनेक सुविधाएँ देने का आश्वासन दिया था परन्तु विश्वयुद्ध के पश्चात् भी अंग्रेजों ने अपनी नीतियों को नहीं बदला और पहले से भी अधिक कठोर नियम भारतीयों पर लागू कर दिए। 19 मार्च, 1919 को अंग्रेजी सरकार ने दमनकारी कानून रॉलेट ऐक्ट’ को पारित किया। इस ऐक्ट के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को सन्देह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था, परन्तु उसके विरुद्ध “न कोई अपील, न कोई दलील और न कोई वकील’ किया जा सकता था। इसे काला कानून कहकर पुकारा गया। इस ऐक्ट के विरोध में सम्पूर्ण भारत में हड़ताल आयोजित की गई एवं जुलूस निकाले गए।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो क्रान्तिकारियों का परिचय दीजिए।
उतर:
चन्द्रशेखर आजाद (1906-1931)- चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गाँव में हुआ। ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। इन्होंने हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की स्थापना की। इन्होंने अपने दल के सदस्यों के साथ लाला लाजपत राय की हत्या के लिए उत्तरदायी पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की तथा केन्द्रीय असेम्बली हॉल में बम धमाका किया। चन्द्रशेखर आजाद को 23 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के कम्पनी बाग में पुलिस से लड़ते हुए अपनी ही गोली से वीरगति प्राप्त हुई। वे विदेशी शासन के कभी हाथ न आए, इस प्रकार उन्होंने अपना ‘आजाद’ नाम सार्थक रखा।

सुखदेव (1907-1931)- सुखदेव को बाल्यकाल से ही मातृभूमि से विशेष अनुराग था। रानी लक्ष्मीबाई व अन्य वीरों की वीरगाथा उन्हें प्रभावित करती थी। वे भगत सिंह के बचपन के साथी थे तथा भगत सिंह को क्रान्तिपथ पर लाने वाले सुखदेव ही थे। वे नौजवान भारत सभा’ के संस्थापक थे। 15 अप्रैल को लाहौर बम फैक्ट्री कांड में सुखदेव पकड़े गए तथा 23 मार्च, 1931 को सुखदेव अपने मित्र भगत सिंह व राजगुरु के साथ फाँसी पर चढ़ गए।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“महात्मा गाँधी एक महान् राष्ट्र निर्माता थे।” इस कथन की पुष्टि में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
महात्मा गाँधी का परिचय- महात्मा गाँधी भारत की ही नहीं, वरन् विश्व की महान् विभूतियों में से एक थे। उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई० को काठियावाड़ के एक नगर पोरबन्दर में हुआ था। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। उनके पिता का नाम करमचन्द गाँधी और माता का नाम पुतलीबाई था। उनके पिता और दादा काठियावाड़ की एक छोटी-सी रियासत के दीवान थे। मैट्रीकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे वकालत की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए और तीन वर्ष पश्चात् वहाँ से सफल बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।

गाँधी जी के विचार- महात्मा गाँधी वर्तमान युग के एक महान् चिंतक, विचारक और सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय सामाजिक जीवन की मूल समस्याओं पर गहन चिंतन व मनन किया। गाँधी जी के राजनीतिक विचार धर्म पर आधारित थे। वे राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता, विश्वबन्धुत्व, त्याग और आत्मविश्वास को महत्त्व देते थे। गाँधी जी ने अपने विचार 1909 ई० में ‘हिन्द स्वराज्य’ नामक पुस्तक में लिखे। गाँधी जी ने सत्याग्रह को सर्वोपरि मानते हुए लिखा है कि “सत्याग्रह एक ऐसा आध्यात्मिक सिद्धान्त है, जो मनुष्य-मात्र के प्रेम पर आधारित है।

इसमें विरोधियों के प्रति घृणा की भावना नहीं है।” आगे अहिंसा के बारे में लिखते हैं, “यद्यपि अहिंसा का अर्थ क्रियात्मक रूप से जानबूझकर कष्ट उठाना है….. इस सिद्धान्त को मानने वाला व्यक्ति अपनी इज्जत, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए एक अन्यायपूर्ण साम्राज्य की समस्त शक्तियों को भी चुनौती दे सकता है। अपने पराक्रम द्वारा उसके पतन के बीज भी बो सकता है।” महात्मा गाँधी का साधन और साध्य के बारे में निश्चित मत था कि केवल साध्य ही पवित्र नहीं होना चाहिए बल्कि साधन भी उतना ही पवित्र होना चाहिए। वे साधन और साध्य को बीज और पौधे की भाँति एक-दूसरे से सम्बन्धित मानते थे। उनका मत था कि हिंसा के मार्ग से प्राप्त साधन बाद में नष्ट हो जाएगा। विश्व के इतिहास में उनका यह प्रयोग अलौकिक और कल्पनातीत था।

गाँधी जी का भारतीय राजनीति में प्रवेश- भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में 1919 ई० का वर्ष एक विशिष्ट स्थान रखता है, क्योंकि इसी वर्ष महात्मा गाँधी जैसे महान् व्यक्तित्व ने देश के राजनीतिक आन्दोलन में सक्रिय रूप से पर्दापण किया। उन दिनों प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। युद्ध में गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार की बहुत सहायता की। परन्तु युद्ध की समाप्ति पर रौलेट ऐक्ट के दुष्परिणामों, जलियाँवाला बाग हत्याकांड तथा खिलाफत के प्रश्न के कारण देश में असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया और कुछ ही वर्षों में उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गई।

1919 ई० से लेकर 1947 ई० तक गाँधी जी ने कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन का सफल नेतृत्व किया। इसी कारण उन्हें इसी काल के राष्ट्रीय आन्दोलन का कर्णधार कहा जाता है। देश की राजनीति पर गाँधी जी का व्यापक प्रभाव था। गाँधी जी ने भारत की स्वतन्त्रता के लिए तीन महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चलाए थे‘असहयोग आन्दोलन’, ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’। सत्याग्रह और अहिंसा की नीति से ही उन्होंने विश्व की महान् शक्ति ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया और अन्त में विवश होकर 15 अगस्त, 1947 ई० को अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र कर दिया।

गाँधी जी के कार्य- गाँधी जी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर सर्वप्रथम सत्याग्रह आन्दोलन 1917 ई० में बिहार चम्पारन में तथा दूसरा सत्याग्रह आन्दोलन 1918 ई० में गुजरात के खेड़ा में चलाया। महात्मा गाँधी द्वारा किसानों का समर्थन करने के कारण सरकार को झुकना पड़ा। सन् 1918 ई० में महात्मा गाँधी ने अहमदाबाद मिल मजदूरों की समस्या को अनशन द्वारा समाप्त कर दिया। अपने इन कार्यों के कारण महात्मा गाँधी ने भारतीय समाज के निर्बल वर्ग से अपना तादात्मय स्थापित कर लिया व भारतीय राजनीति में एक नैतिक शक्ति के रूप में सामने आए।

सामाजिक जागरण में महात्मा गाँधी का योगदान- गाँधी जी ने सामाजिक न्याय की भावना बड़ी प्रबल थी। उनके हृदय में भारत की शोषित और दलित जातियों के प्रति विशेष सहानुभूति, प्रेम और सहयोग की भावना थी। उन्होंने अछूतों के पक्ष में आवाज उठाई और उनके हितों को सुरक्षित करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। महात्मा गाँधी ने इन्हें ‘हरिजन’ कहकर सम्मानित किया। उन्होंने इसी उद्देश्य से ‘हरिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित कराई, जिनके माध्यम से वे छुआछूत के विरुद्ध प्रभावशाली लेख प्रकाशित करते रहते थे। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दुओं को हरिजनों के प्रति उदार होने की प्रेरणा दी और मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोल देने को कहा।

गाँधी जी स्वयं भी हरिजनों की बस्तियों में रहे, जिससे उच्च वर्ग के लोग हरिजनों से घृणा करना छोड़ दें। गाँधी जी महिलाओं के उत्थान के समर्थक थे तथा वे विधवा पुनर्विवाह में विश्वास रखते थे। उन्होंने मद्यपान का भी विरोध किया तथा वे समाज से शोषण का अन्त करना चाहते थे। गाँधी जी गौवंश की रक्षा को धार्मिक व आर्थिक दोनों दृष्टियों से आवश्यक मानते थे। अत: उन्होंने गौवध निषेध का समर्थन किया था। महात्मा गाँधी के इन्हीं प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक आदर्शों और समानता की भावना विकसित हुई, जिसने आधुनिक भारत की आधारशिला रखने में बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उल्लेखनीय है कि भारतीय जीवन-पद्धति पर गाँधीवादी दर्शन का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि उनके कुछ सिद्धान्त भारतीय संविधान के भाग IV में राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत समाहित किए गए हैं।

उपर्युक्त सुधारों के अतिरिक्त महात्मा गाँधी साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। उनकी यह पंक्ति आज भी हमारे हृदय को झंकृत कर देती है, “ईश्वर अल्ला एक ही नाम। सब को सन्मति दे भगवान।” वे चाहते थे कि उनके देशवासी प्रेम और शान्ति से रहें। वे मानवता के सच्चे हितैषी थे। इस दृष्टि से महात्मा गाँधी को आधुनिक भारत का युग-पुरुष एवं राष्ट्रनिर्माता कहना सर्वथा उचित है।

प्रश्न 2.
महात्मा गाँधी की विचारधारा व कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पर टिप्पणी कीजिए
(क) असहयोग आन्दोलन
(ख) सविनय अवज्ञा आन्दोलन
(ग) साइमन कमीशन
(घ) भारत छोड़ो आन्दोलन
उतर:
(क) असहयोग आन्दोलन- रॉलेट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग काण्ड और खिलाफत आन्दोलन के उत्तर में गाँधी जी ने 1 अगस्त, 1920 ई० को असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। सितम्बर, 1920 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) के विशेष अधिवेशन में और पुनः दिसम्बर, 1920 ई० में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में इसका समर्थन किया गया। कांग्रेस का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन की बजाय स्वराज्य घोषित करना था। मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेण्ट और विपिन चन्द्र कांग्रेस के इस असहयोग से सहमत न थे, अत: उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। असहयोग आन्दोलन कार्यक्रम के दो मुख्य पक्ष थे- ध्वंसात्मक और रचनात्मक।।

(i) ध्वंसात्मक कार्यक्रम- इसमें उपाधियों और अवैतनिक पदों का परित्याग, सरकारी और गैर सरकारी समारोहों का बहिष्कार, सरकारी नियन्त्रण वाले विद्यार्थियों तथा कॉलेजों का त्याग, वकीलों तथा मुवक्किलों द्वारा ब्रिटिश न्यायालयों का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार आदि शामिल थे।

(ii) रचनात्मक कार्यक्रम- इसमें राष्ट्रीय न्यायालयों और विद्यालयों की स्थापना, स्वदेशी को बढ़ावा देना, चरखा और खादी को लोकप्रिय बनाना, स्वयं सेवक दल का गठन तथा तिलक स्मारक के लिए स्वराज कोष के रूप में एक करोड़ रुपए एकत्र करना मुख्य कार्य थे। आन्दोलन का प्रारम्भ महात्मा गाँधी ने अपनी उपाधियाँ त्यागकर किया। देश के अन्य नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों ने भी अपनी उपाधियाँ और पदवियाँ छोड़ दीं। विद्यार्थियों ने स्कूल और कॉलेज छोड़े। इस दौरान काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामिया, गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हुई। देश के सभी बड़े नेताओं ने अपनी वकालत छोड़ दी। विधानमण्डलों का बहिष्कार किया गया। कोई भी कांग्रेसी विधानमण्डल के चुनाव में खड़ा नहीं हुआ। नवम्बर, 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार किया गया। सरकार ने कांग्रेस और खिलाफत कमेटियों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और स्वदेशी का प्रचार किया गया। गाँधी जी ने लोगों को ‘तिलक स्वराज्य फंड’ दान देने का आग्रह किया परिणामस्वरूप एक करोड़ रुपए से भी अधिक धनराशि इकट्ठी हो गई।

(ख) सविनय अवज्ञा आन्दोलन- सविनय अवज्ञा का अर्थ अंग्रेजी शासन के कानून की शान्तिपूर्ण ढंग से अवहेलना करना था। महात्मा गाँधी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कार्यक्रमों की घोषणा करने का अधिकार 1 फरवरी, 1930 ई० की कांग्रेस कार्यकारिणी से मिल चुका था, फिर भी गाँधी जी इस प्रयास में रहे कि संघर्ष का रास्ता टल जाए। इसके लिए गाँधी जी ने न्यूनतम कार्यक्रम के अनुसार 11 सूत्री माँग-पत्र लॉर्ड डरविन के सम्मुख रखा और कहा कि अगर सरकार उनकी माँगों पर ध्यान नहीं देती है, तो वह नमक कानून भंग कर सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर देंगे। सरकारी प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं थी। परिणामस्वरूप गाँधी जी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ब्रिटिश सरकार की संगठित हिंसा को रोकने का एकमात्र रास्ता संगठित अहिंसा ही हो सकती है।” गाँधी जी ने नमक कानून तोड़कर इस आन्दोलन को शुरू करने का विचार किया।

गाँधी जी ने नमक कानून तोड़ने के लिए यादगार दाण्डी यात्रा अपने 78 अनुयायियों के साथ 12 मार्च, 1930 ई० को शुरू की। 200 मील की पदयात्रा कर 5 अप्रैल को दाण्डी पहुँचे और 6 अप्रैल को समुद्र के किनारे उन्होंने नमक कानून तोड़कर देशव्यापी आन्दोलन कर दिया। इस प्रकार नमक कानून को तोड़ना दमनकारी ब्रिटिश कानूनों के प्रति भारतीय जनता के विरोध का प्रतीक था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कार्यक्रम

  • गाँव-गाँव में गैर-कानूनी नमक बनाया जाए।
  • महिलाओं द्वारा शराब, अफीम और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना दिया जाए।
  • विदेशी कपड़ों को जलाया जाए।
  • सरकारी कर्मचारी नौकरियों से त्यापत्र दें।
  • छात्रों द्वारा स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया जाए।
  • भू-राजत्व, लगान व अन्य करों का भुगतान न किया जाए।
  • व्यापक हड़तालों और प्रदर्शनों का संयोजन किया जाए।

शीघ्र ही यह आन्दोलन तेजी से फैला। छात्रों, मजदूरों, किसानों और महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। महिलाओं ने परम्परागत पर्दे को छोड़कर शराब की दुकानों पर धरने दिए। किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया। विद्यार्थियों ने स्कूल और कॉलेज छोड़े। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से कई अंग्रेजी मिलें बन्द हो गईं। यह एक ऐसा युग परिवर्तनकारी कदम था जो लीक से हटकर था। सरकार ने दमन की नीति अपनायी जिससे असन्तोष की आग भड़क उठी। गाँधी जी के साथ हजारों लोग गिरफ्तार हुए तथा कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया।

(ग) साइमन कमीशन- 1919 ई० के सुधार अधिनियम के अनुसार 10 वर्ष के बाद शासन सुधारों की समीक्षा के लिए कमीशन नियुक्त करने की व्यवस्था थी। अतः यह आयोग 1929 ई० में बैठना था, किन्तु इंग्लैण्ड की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण वहाँ की अनुदार पार्टी ने यह कमीशन 1927 ई० में ही नियुक्त कर दिया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन के कारण यह ‘साइमन कमीशन’ के नाम से जाना जाता है। इसमें कुल सात सदस्य थे जिनमें कोई भी भारतीय न था। अतः इसे ‘वाटर मैन कमीशन’ भी कहते हैं।

कमीशन के आगमन से पूर्व ही इनका विरोध प्रारम्भ हो गया था। कांग्रेस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग सभी ने इसका विरोध करने का निर्णय लिया। जब यह कमीशन 3 फरवरी, 1928 ई० को बम्बई (मुम्बई) पहुँचा तो इसे जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। देश के सभी प्रमुख नगरों में नवयुवकों ने हड़ताल करके काली झण्डियाँ दिखाकर और ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारों से इसका स्वागत किया। लाहौर में विद्यार्थियों ने लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकाला। पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लाजपतराय पर लाठी से प्रहार किया।

उनको सख्त चोटें आईं और एक महीने के बाद उनका देहान्त हो गया। मृत्यु से पूर्व उन्होंने भाषण देते हुए कहा, “मेरे शरीर पर लगी एक-एक चोट ब्रिटिश राज्य के कफन की कील सिद्ध होगी।” लाजपतराय की मृत्यु से युवा क्रान्तिकारी क्रोधित हो गए और साण्डर्स की हत्या कर दी। लखनऊ में भी पं० जवाहरलाल नेहरू और गोविन्द वल्लभपन्त के नेतृत्व में प्रदर्शन हुआ। कमीशन का विरोध प्रायः सभी दलों व वर्गों के बावजूद भी साइमन कमीशन ने दो बार भारत का दौरा किया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट मई, 1930 ई० में प्रकाशित हुई, जिसमें निम्नलिखित बातें कही गईं

  • प्रान्तों में दोहरा शासन समाप्त करके उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए।
  • भारत के लिए संघीय शासक की स्थापना की जाए।
  • उच्च न्यायालय को भारतीय सरकार के अधीन कर दिया जाए।
  • अल्पसंख्यकों के हितों के लिए गर्वनर व गर्वनर जनरल को विशेष शक्तियाँ प्रदान की जाएँ।
  • सेना का भारतीयकरण हो।
  • बर्मा (म्यांमार) को भारत से पृथक् कर दिया जाए तथा सिन्ध एवं उड़ीसा (ओडिशा) को नये प्रान्त के रूप में मान्यता प्रदान की जाए।
  • प्रत्येक दस वर्ष पश्चात् भारत की संवैधानिक प्रगति की जाँच को समाप्त कर दिया जाए तथा ऐसा नवीन लचीला संविधान बनाया जाए, जो स्वत: विकसित होता रहे।

भारतीयों ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें आकाँक्षाओं के अनुरूप कहीं भी औपनिवेशिक स्वराज्य स्थापना की बात नहीं कही गई। साइमन कमीशन का आगमन और बहिष्कार सम्पूर्ण देश की बिखरी हुई राजनीतिक भावना को जोड़ने में सहायक सिद्ध हुआ। लाला लाजपत राय की मृत्यु ने देश के नवयुवकों को उत्साहित किया। सर शिवस्वामी अय्यर ने इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बताया, किन्तु फिर भी इस कमीशन की अनेक बातों को 1935 ई० के अधिनियम में अपना लिया गया।

(घ) भारत छोड़ो आन्दोलन- ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ गाँधी जी द्वारा आयोजित अन्तिम आन्दोलन था। इस आन्दोलन की विशेषता थी कि यह एक अहिंसात्मक आन्दोलन नहीं था, बल्कि भारतीय जनता के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चरम आक्रोश का प्रतीक था। अन्ततोगत्वा यही आन्दोलन भारत में ब्रिटिश राज्य के सूर्यास्त का कारण बना था।

वर्धा प्रस्ताव ( जुलाई 1942 ई०)- अप्रैल 1942 ई० में इलाहाबाद में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में यह निश्चित किया गया कि कांग्रेस किसी ऐसी स्थिति को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं कर सकती, जिसमें भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के दास के रूप में कार्य करना पड़े। जुलाई 1942 ई० में कांग्रेस कार्य-समिति की वर्धा में सम्पन्न बैठक में गाँधी जी के इन विचारों का समथर्न किया गया कि भारत समस्या का समाधान अंग्रेजों के भारत छोड़ देने में ही है।

भारत छोड़ो प्रस्ताव- वर्धा प्रस्ताव के निश्चय के अनुसार 7 अगस्त, 1942 ई० को बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व की निगाहें इस अधिवेशन पर लगी हुई थीं। भविष्य के इतिहास तथा घटनाओं ने इस अधिवेशन को ऐतिहासिक अधिवेशन की संज्ञा प्रदान की। इस समिति ने पर्याप्त विचारविमर्श के उपरान्त भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया था, “यह समिति कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के 14 जुलाई, 1942 ई० के प्रस्ताव का समर्थन करती है तथा उसका यह विश्वास है कि बाद की घटनाओं ने इसे और अधिक औचित्य प्रदान किया है और इस बात को स्पष्ट कर दिखाया है कि भारत में ब्रिटिश शासन का तत्काल ही अन्त भारत के लिए और मित्र-राष्ट्रों के आदर्शों की पूर्ति के लिए अति आवश्यक है। इसी पर युद्ध का भविष्य और स्वतन्त्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता निर्भर है।”

भारत छोड़ो आन्दोलन के कारण- भारत छोड़ो आन्दोलन के अनेक कारण थे, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(i) क्रिप्स मिशन की असफलता- भारत के संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग की समस्याओं को सुलझाने के लिए मार्च 1942 ई० में सर स्टेफर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में क्रिप्स मिशन भारत आया। इस मिशन के प्रस्ताव व सुझाव दोषपूर्ण तथा अपर्याप्त थे।

(ii) युद्ध की भयंकरता व शरणार्थियों के प्रति कठोर व्यवहार-
इधर भारत पर जापान के आक्रमण का भय लगातार बढ़ रहा था। अंग्रेजों द्वारा ऐसी स्थिति में भारतीयों को दिए जाने वाले प्रलोभन को महात्मा गाँधी ने ‘विफल हो रहे बैंक का उत्तर दिनांकित चेक’ कहा और प्रलोभन में न आने के लिए भारतीयों को आगाह किया। बर्मा से जो भारतीय शरणार्थी भारत आ रहे थे, वे दु:खभरी कहानियाँ सुनाते थे। बर्मा में रह रहे अंग्रेजों को बचाने का भरपूर प्रयास किया गया, लेकिन भारतीय मूल के लोगों का अपमान किया गया।

(iii) बंगाल में आतंक का राज्य-
पूर्वी बंगाल में भय और आतंक का साम्राज्य था। वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे थे, मुद्रा पर से विश्वास हटता जा रहा था। गाँधी जी को भी यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज भारत की सुरक्षा करने में असमर्थ है। इसलिए गाँधी जी ने अंग्रेजों को भारत से चले जाने को कहा।

(iv) दयनीय आर्थिक स्थिति-
यूरोप युद्ध के कारण आर्थिक स्थिति बहुत खराब होती जा रही थी, वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे थे और जनता को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। मध्यम वर्ग की स्थिति विशेष रूप से सोचनीय थी।

(v) जापानी आक्रमण का भय तथा असन्तोषजनक ब्रिटिश रक्षा-व्यवस्था-
भारतीयों को यह विश्वास हो गया था कि ब्रिटेनवासी भारत की सुरक्षा करने में असमर्थ हैं। जापान ने सिंगापुर, मलाया तथा बर्मा पर विजय प्राप्त कर ली थी और भारत पर उसके आक्रमण का भय लगातार बढ़ता जा रहा था क्योंकि अंग्रेजों के गृह राज्य इंलैण्ड और जापान के बीच युद्ध चल रहा था और भारत में अंग्रेजी शासन होने के कारण जापान द्वारा भारत पर आक्रमण की आशंका थी। ऐसी स्थिति में भारतीय यह सोचते थे कि यदि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँ तो शायद जापान भारत पर आक्रमण न करे। भारत छोड़ो आन्दोलन का कार्यक्रम- आन्दोलन से सम्बन्धित कर्णधारों के गिरफ्तार हो जाने से जनता दिशाहीन होकर असमंजस में पड़ गई। जनता के समक्ष कोई स्पष्ट निर्देश या कार्यक्रम नहीं था। गाँधी जी के केवल कुछ वाक्य थे- ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो।’ ऐसी दशा में कांग्रेस के शेष नेताओं की ओर से 12- सूत्री कार्यक्रम प्रकाशित कर दिया गया।

इस आन्दोलन के कार्यक्रम के मुख्य आधार निम्नलिखित थे
(अ) ‘करो या मरो’ का नारा लगाया गया।
(ब) 12 सूत्री कार्यक्रम बनाया गया, जिसके द्वारा सार्वजनिक सभाएँ करने, नमक बनाने तथा कर न देने पर विशेष बल दिया गया।
(स) पुलिस थानों व तहसीलों को अहिंसात्मक तरीकों से अकर्मण्य बनाने पर बल दिया गया।
(द) आवागमन के साधनों को हानि पहुँचाने की मनाही की गई।
(य) अंग्रेजों से की गई अपील के बेकार हो जाने की अवस्था में कांग्रेस हिंसा का अनिच्छापूर्वक उपयोग करने के लिए बाध्य हो जाएगी।

प्रश्न 4.
कांग्रेस ने असहयोग आन्दोलन क्यों प्रारम्भ किया? उसके क्या परिणाम हुए?
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 5.
असहयोग आन्दोलन के कारण व उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। इसके स्थगन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
असहयोग आन्दोलन के कारण व उद्देश्य- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए। असहयोग आन्दोलन का स्थगन- असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। देशभर में किसानों द्वारा व्यापक आन्दोलन हो रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में चौरीचौरा गाँव में 5 फरवरी 1922 ई० में लगभग 3,000 सत्याग्रहियों ने एक विशाल प्रदर्शन किया। प्रदर्शन पूरी तरह शान्त था। अचानक पुलिस ने भीड़ पर गोली चला दी। भीड़ उत्तेजित हो गई और थाने को घेर लिया गया एवं 22 पुलिसकर्मियों को जीवित जला दिया। गाँधी जी ने इसे गम्भीरता से लिया और 12 फरवरी, 1922 में इस आन्दोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी।

गाँधी जी की इस घोषणा से सम्पूर्ण देश स्तब्ध रह गया व लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। अंग्रेजों ने अवसर का लाभ उठाकर गाँधी जी को 10 मार्च, 1922 को बन्दी बना लिया व उन्हें छह वर्ष का कठोर दण्ड देकर जेल भेज दिया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कांग्रेस की स्थिति पहले से अधिक सुदृढ़ हो गई व कांग्रेस की पहुँच आम हिन्दुस्तानियों तक हो गई। परन्तु असहयोग आन्दोलन को वापस लेना एक अविवेकपूर्ण निर्णय था। गाँधी जी के इस निर्णय की तत्कालीन नेताओं ने आलोचना की। सुभाष चन्द्र बोस के अनुसार, “यह राष्ट्र के दुर्भाग्य के अलावा कुछ नहीं था।” देशबन्धु चितरंजनदास व मोतीलाल नेहरू भी इस निर्णय से दु:खी थे, क्योंकि उस समय आन्दोलन अपने चरम पर था। ब्रिटिश शासन इस आन्दोलन से घबरा गया था। परन्तु गाँधी जी द्वारा इसे वापस लेने के निर्णय से अंग्रेजों ने चैन की साँस ली।

प्रश्न 6.
स्वाधीनता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 7.
सेल्यूलर जेल के विषय में लिखिए।
उतर:
सेल्यूलर जेल( काले पानी की सजा )- भारत के क्रान्तिकारियों द्वारा आजादी के लिए लड़ी गई लड़ाई वास्तव में रोंगटे खड़े कर देने वाली अविस्मरणीय गौरव गाथा है। देश के असंख्य किशोर-किशोरियों, युवक और नवयौवनाओं ने अपना सर्वस्व देश की खातिर होम कर दिया था। ऐसे क्रान्तिकारियों से ब्रिटिश शासन सदैव भयग्रस्त रहता था। इनमें से अनेक राष्ट्रभक्तों को आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी और भारत की मुख्यभूमि से सुदूर समुद्रपार अण्डमान के टापू पर निर्वासित कर दिया जाता था, इसी को काले पानी की सजा कहा जाता था। वहाँ पर विस्तृत क्षेत्र में कोठरीनुमा जेल थी, उसे कोठरीनुमा होने के कारण अंग्रेजी में Cellular Jail (सेल्यूलर जेल) कहा गया। इसमें तीन प्रकार के कैदी रखे जाते थे- राज्य के विद्रोही, जघन्य अपराधी तथा राजनीतिक बन्दी।

इस जेल का निर्माण 1906 ई० में हुआ था, यहाँ पर क्रान्तिकारियों को भयंकर यातनाएँ दी जाती थीं। यहाँ पर उनके क्रियाकलापों में शामिल था- लकड़ी काटना, पत्थर तोड़ना, एक हफ्ते तक हथकड़ियों को पहनकर खड़े रहना, तन्हाई के दिन बिताना, चार दिनों तक भूखा रहना, दस दिनों तक क्रॉस बार की स्थिति में रहना आदि। क्रान्तिकारियों की जबान सूख जाती थी, दिमाग सुन्न हो जाता था तथा कई कैदी तो जान गंवा बैठते थे। लेकिन इनका अपराध था कि ये अपनी मातृभूमि से बेहद प्यार करते थे और दु:ख सहते हुए भी हँसते-हँसते मातृभूमि के लिए शहीद हो जाते थे।

कालेपानी की सजा काटने वाले कुछ देशभक्तों के नाम हैं- डॉ० दीवान सिंह कालेपानी (इनका उपनाम ही ‘कालेपानी’ हो गया), मौलाना हक, बटुकेश्वर दत्त, बाबाराव सावरकर, विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर- इन्हें दो आजीवन कारावास की सजा हुई थी), भाई परमानन्द, चिदम्बरम पिल्लै, सुब्रह्मण्यम शिव, सोहन सिंह, वामनराव जोशी, नन्द गोपाल। वाघा जतिन के जीवित साथी सतीशचन्द्र पाल को यहाँ भयंकर मानसिक व शारीरिक यातनाएँ दी गई थीं। वीरेन्द्र कुमार घोष, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, वीरेन्द्रचन्द्र सेन को यहाँ कैदी जीवन में भयानक यातनाएँ सहनी पड़ीं। लेकिन ब्रिटिश सरकार इन्हें इनके स्वदेश प्रेम से अलग नहीं कर सकी। महात्मा गाँधी व रवीन्द्रनाथ टैगोर को अनेक मौकों पर इन वीर देशभक्तों के पक्ष में सरकार से बहस करनी पड़ी थी।

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम जननायक नेताजी सुभाष ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अण्डमान टापू को अंग्रेजों से जीत लिया था और इसका नामकरण किया गया ‘शहीद’। अब कैदियों के लिए सुभाष मुक्तिदाता थे तथा टापू कालापानी नहीं अपितु उनका अपना घर’ हो गया था। जेल के अनेक खण्डों को ध्वस्त कर दिया गया, शेष बचे भाग को 1969 ई० से राष्ट्रीय स्मारक में बदल दिया गया। 10 मार्च, 2006 ई० को जेल की शताब्दी मनाई गई और उस काल के उन स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों का भावभीना स्मरण किया गया, जो इस जेल में रहे थे।

प्रश्न 8.
भारतीय क्रान्तिकारियों व उनके बलिदान का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
चन्द्रशेखर आजाद (1906-1931)- चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गाँव में हुआ। ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। इन्होंने हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की स्थापना की। इन्होंने अपने दल के सदस्यों के साथ लाला लाजपत राय की हत्या के लिए उत्तरदायी पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की तथा केन्द्रीय असेम्बली हॉल में बम धमाका किया। चन्द्रशेखर आजाद को 23 फरवरी, 1931 ई० को इलाहाबाद के कम्पनी बाग में पुलिस से लड़ते हुए अपनी ही गोली से वीरगति प्राप्त हुई। वे विदेशी शासन के कभी हाथ न आए, इस प्रकार उन्होंने अपना ‘आजाद’ नाम सार्थक रखा।

सुखदेव (1907-1931)- सुखदेव को बाल्यकाल से ही मातृभूमि से विशेष अनुराग था। रानी लक्ष्मीबाई व अन्य वीरों की वीरगाथा उन्हें प्रभावित करती थी। वे भगत सिंह के बचपन के साथी थे तथा भगत सिंह को क्रान्तिपथ पर लाने वाले सुखदेव ही थे। वे नौजवान भारत सभा’ के संस्थापक थे। 15 अप्रैल को लाहौर बम फैक्ट्री कांड में सुखदेव पकड़े गए तथा 23 मार्च, 1931 ई० को सुखदेव अपने मित्र भगत सिंह व राजगुरु के साथ फॉसी पर चढ़ गए।

भगत सिंह (1907-1931)- भगत सिंह का नाम स्वतन्त्रता संग्राम में सर्वोपरि है। क्रान्तिकारी विचार उन्हें विरासत में मिले। साण्डर्स को गोली मारना तथा केन्द्रीय असेम्बली में बम धमाका करना उनके शौर्य का परिचय देता है। उनका उद्घोष ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ देशभक्तों का प्रमुख नारा बन गया। 23 मार्च, 1931 ई० में यह महान् देशभक्त फाँसी पर चढ़ अमर हो गया।

राजगुरु ( 1909-1931)- इनका जन्म पूना के निकट खेड़ा गाँव में हुआ था। वे बनारस में शारीरिक शिक्षक के रूप में काम करने लगे। यहीं राजगुरु क्रान्तिकारियों के प्रभाव में आए। साण्डर्स को सर्वप्रथम गोली का निशाना बनाने वाले राजगुरु ही थे। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर चढ़े। फाँसी के तख्ते पर भगत सिंह बीच में, राजगुरु दाएँ और सुखदेव बाएँ थे। भगत सिंह कह रहे थे- “दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी वतन की खुशबू आएगी।”

शहीद यतीन्द्रनाथ (1904-1929 ई०)- यतीन्द्रनाथ क्रान्तिकारी विचारों और गतिविधियों के कारण 25 नवम्बर, 1925 को ‘बंगाल फौजदारी कानून के अन्तर्गत पकड़े गए थे। इन्होंने लाहौर केन्द्रीय कारागार में देशभक्तों के साथ जेल के अत्याचारों के विरोध में अनशन भी किया, जिसमें 62 दिन के निरन्तर उपवास के बाद यतीन्द्रनाथ 13 सितम्बर, 1929 ई० को शहीद हो गए। रानी गेंडिनल्यू- पूर्वोत्तर भारत में 1930 से 1932 ई० के मध्य क्रांति की जनक रानी पेंडिनल्यू थी। पूर्वोत्तर सीमा प्रान्त के नागरिकों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जागृत करने में गेंडिनल्यू की मुख्य भूमिका रही।

नागाओं का नेतृत्व करने वाली 13 वर्ष की इस बालिका ने इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन के असफल होने पर रानी ने सशस्त्र क्रान्ति का निश्चय किया। परिणामत: सरकार ने गेंडिनल्यू को गिरफ्तार करने के लिए पुरस्कार की घोषणा की। सेना की मदद से 18 अक्टूबर, 1932 ई० को समोमा ग्राम में रानी को पकड़ लिया गया। उस समय रानी की उम्र 17 वर्ष थी। उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। रानी का पूरा यौवन जेल में व्यतीत हो गया।

रानी देश की आजादी के बाद भी 21 माह तक जेल में रही और 9 अप्रैल, 1949 को रिहा की गई। नेहरू जी ने उसके बारे में सही लिखा था, “एक दिन ऐसा आएगा कि जब भारत उसे स्नेहपर्वक याद करेगा।” स्वतन्त्रता की 25 वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के लाल किले में आयोजित समारोह में जब रानी को ताम्रपत्र प्रदान किया गया तो चारों ओर खुशी की लहर दौड़ गई। इस महान् स्वतन्त्रता सेनानी को नागालैण्ड की ‘जॉन ऑफ ऑर्क’ कहा गया है।

अन्य क्रान्तिकारियों में रासबिहारी बोष और सचिन सान्याल ने दूर दराज के क्षेत्रों, पंजाब, संयुक्त प्रान्त में क्रान्तिकारी गतिविधियों हेतु गुप्त समितियों का गठन किया था, हेमचन्द्र कानूनगो ने सैन्य प्रशिक्षण के लिए विदेश गमन किया था। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के न्यायाधीश की गाड़ी को बम से उड़ा दिया था। वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में महाराष्ट्र के युवाओं ने सशस्त्र विद्रोह द्वारा अंग्रेजों को खदेड़ने की योजना बनाई। तिलक के शिष्यों दामोदर चापेकर व बालकृष्ण चापेकर ने लेफ्टिनेंट एर्स्ट व मिस्टर रैण्ड की हत्या कर पूना में प्लेग फैलने का बदला लिया। लाला लाजपत राय व अजित सिंह के अतिरिक्त भाई परमानन्द, आग हैदर, उर्दू कवि लालचन्द फलक ने भी पंजाब में क्रान्तिकारी गतिविधियों को नई ऊँचाइयाँ दीं।

अजित सिंह को देश से निर्वासित कर दिया गया और वे फ्रांस पहुँचकर सूफी अम्बा प्रसाद, भाई परमानन्द व लाला हरदयाल के सहयोग से मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियों में लगे रहे। इंग्लैण्ड में क्रान्ति की ज्वाला को श्यामजीकृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, मदनलाल ढींगरा ने जलाए रखा। इन क्रान्तिवीरों ने ‘इण्डिया हाउस’ नामक संस्था बनाई, जिसका उद्देश्य भारत में अंग्रेजी शासन को आतंकित कर स्वराज्य प्राप्त करना था। यहीं पर सावरकर ने अपनी कालजयी कृति ‘1857 का स्वतन्त्रता संग्राम’ लिखी। उन्होंने मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया। ढींगरा को

कर्नल विलियम कर्जन की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर फाँसी पर चढ़ा दिया गया तथा सावरकर को नासिक षड्यन्त्र केस में काले पानी (अंडमान में निर्वासन) की सजा दी गई। फ्रांस में क्रान्तिकारी गतिविधियों को सरदार सिंह राणा तथा श्रीमती भीकाजी रुस्तम कामा ने पेरिस से जारी रखा, ‘फ्री इण्डिया सोसायटी’ की स्थापना की तथा वन्दे मातरम् अखबार निकाला। भीकाजी विदेशी महिला थीं लेकिन भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में उन्होंने अतुलनीय योगदान किया। उड़ीसा के तट पर स्थित बालासोर पर बाघा जतिन पुलिस के साथ मुठभेड़ में शहीद हुए।

क्रान्तिकारियों ने विभिन्न पुस्तकें व पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित कीं, जिनमें देश पर कुर्बान होने वाले जाँबाज किशोर-किशोरियों के त्याग को उकेरा गया। इनमें ‘आत्मशक्ति’, ‘सारथी’, ‘बिजली’ प्रमुख हैं। उपन्यासों में सचिन सान्याल की बन्दी जीवन तथा शरतचन्द्र चटर्जी की पाथेर दाबी उल्लेखनीय हैं। शांतिसुधा घोष ने अध्यापन कार्य जारी रखते हुए नारी शक्तिवाहिनी’ संस्था की स्थापना की, जिसने किशोरियों को अस्त्र संचालन में इतना कुशल बना दिया कि वे साक्षात दुर्गा व चण्डी बन अंग्रेजों का
काल बन गईं तथा क्रान्तिकारियों की ढाल बन उनका संबल बनीं।

प्रश्न 9.
गाँधी जी की ऐतिहासिक डांडी यात्रा के विषय में लिखिए।
उतर:
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रारम्भ डांडी यात्रा की ऐतिहासिक घटना से हुआ। इसमें गाँधी जी और गुजरात विद्यापीठ तथा साबरमती आश्रम के 78 सदस्यों ने भाग लिया। 12 मार्च, 1930 ई० को गाँधी जी ने अपने इन 78 सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से डांडी के लिए प्रस्थान किया। 200 मील की दूरी पैदल ही 24 दिन में तय की गई। स्थान-स्थान पर हजारों नर-नारियों ने सत्याग्रह दस्ते का जय-जयकार किया। सरदार पटेल, जो गाँव का दौरा कर जनता को सजग कर रहे थे, की गिरफ्तारी और सजा ने जनता को भड़का दिया।

इस ऐतिहासिक यात्रा का उल्लेख करते हुए बाम्बे क्रॉनिकल ने लिखा था- “इस विशद् राष्ट्रीय घटना के पूर्व, उसके साथ-साथ तथा उसके बाद भी जो दृश्य देखने में आए, वे इतने उत्साहपूर्ण, शानदार और इतने जीवन्त थे कि वर्णन नहीं किया जा सकता। ….. यह एक शानदार आन्दोलन का प्रारम्भ है और निश्चय ही भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान होगा।” 5 अप्रैल, 1930 ई० को गाँधी जी डांडी पहुँचे तथा 6 अप्रैल को आत्म-शुद्धि के उपरान्त उन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाकर नमक कानून को भंग किया। इस प्रकार गाँधी जी ने नमक कानून का उल्लंघन कर सत्याग्रह का प्रारम्भ किया।

प्रश्न 10.
खिलाफत आन्दोलन से आप क्या समझते हो? इसका भारत की राजनीति में क्या महत्व है?
उतर:
खिलाफत आन्दोलन- खिलाफत आन्दोलन भारतीय मुसलमानों का मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध विशेषकर ब्रिटेन के खिलाफ तुर्की के खलीफा के समर्थन में आन्दोलन था। तुर्की का खलीफा समूचे विश्व में सुन्नी मुसलमानों का धर्म गुरु माना जाता था। प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई०) में तुर्की अंग्रेजों के विरुद्ध जर्मनी के पक्ष में था। जर्मनी की पराजय से तुर्की की पराजय जुड़ी हुई थी। युद्ध के अन्त में तुर्की साम्राज्य को मित्र देशों ने आपस में बाँट लिया। इस तरह तुर्की साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इससे भारतीय मुसलमान बहुत क्षुब्ध हो गये। यहाँ खिलाफत आन्दोलन का मुख्य कारण था।।

उद्देश्य और कार्य- खिलाफत आन्दोलन का उद्देश्य खलीफा की शक्ति को पुनः स्थापित करना था। इस समय भारत में राष्ट्रीय एकता का वातावरण था। लखनऊ समझौते में लीग और कांग्रेस बहुत निकट आ गयी थीं। लीग पर राष्ट्रवादी मुसलमानों का वर्चस्व था। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड में हिन्दुओं और मुसलमानों पर समान रूप से अत्याचार हुए थे। अतः राष्ट्रवादी मुसलमान अली बन्धु, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खाँ तथा हजरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी बनाई गई। अखिल भारतीय खिलाफत कांग्रेस नवम्बर, 1919 ई० को दिल्ली में बुलाई गई। गाँधी जी इसमें शामिल हुए। लोकमान्य तिलक और गाँधी दोनों ही हिन्दू-मुसलमानों की एकता के लिए इस आन्दोलन को आवश्यक समझते थे।

गाँधी जी के शब्दों में “खिलाफत आन्दोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता के सूत्र में बाँधने का अवसर है, जो हमें 100 वर्षों तक नहीं मिलने वाला है।” उन्होंने 1920 ई० में यह भी घोषणा कर दी कि ‘‘खिलाफत का प्रश्न संवैधानिक सुधारों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है’ मार्च, 1920 ई० को विधिवत खिलाफत कमेटी ने असहयोग आन्दोलन की घोषणा कर दी। सर्वप्रथम गाँधी जी इसमें शामिल हुए और युद्धकाल की सेवा के उपलक्ष्य में मिली ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि लौटा दी। नवम्बर, 1919 ई० में गाँधी जी खिलाफत कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। सर्वत्र स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार हुआ। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन हुए जिसमें महिलाओं और बच्चों ने भाग लिया।

असहयोग और खिलाफत आन्दोलन साथ-साथ चले परन्तु असहयोग आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव से खिलाफत आन्दोलन उसके सामने दब गया। उधर तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा द्वारा खलीफा के पद को समाप्त करने के साथ ही खिलाफत का प्रश्न भी समाप्त हो गया।

इस आन्दोलन के सम्बन्ध में आलोचकों ने खिलाफत आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के गाँधी जी के प्रयासों को एक राजनीतिक भूल मानी है, परन्तु खिलाफत आन्दोलन ने थोड़े समय के लिए ही सही, हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को सुदृढ़ किया। खिलाफत आन्दोलन ने उदार राष्ट्रवादी मुसलमानों को राष्ट्रीय संग्राम में शरीक होने का मौका दिया तथा इसने असहयोगा आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

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