UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception
Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Psychology |
Chapter | Chapter 6 |
Chapter Name | 6 Perception (प्रत्यक्षीकरण) |
Number of Questions Solved | 50 |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception (प्रत्यक्षीकरण)
दीर्घ उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रत्यक्षीकरण (Perception) से आप क्या समझते हैं? प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में निहित क्रियाओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण का अर्थ
(Meaning of Perception)
प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। यह ज्ञानार्जन से सम्बन्धित मानसिक प्रक्रियाओं में विशेष महत्त्व रखती है। ‘संवेदना’ किसी उद्दीपक का प्रथम प्रत्युत्तर है और प्रत्यक्षीकरण’ प्राणी की संवेदना के पश्चात् का द्वितीय प्रत्युत्तर है जो संवेदना से ही सम्बन्धित होता है। वातावरण में उपस्थित किसी उद्दीपक से मिलने वाली उत्तेजना एक संवेदनात्मक प्रत्युत्तर के रूप में अस्तित्व रखती है जिसका प्रथम प्रत्युत्तर संवेदना और द्वितीय प्रत्युत्तर प्रत्यक्षीकरण की शक्ल में प्रस्तुत होता है।
प्रत्यक्षीकरण की परिभाषा
(Definition of Perception)
प्रत्यक्षीकरण को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है –
- कॉलिन्स तथा डुवर के कथनानुसार, “प्रत्यक्षीकरण किसी वस्तु का तात्कालिक ज्ञान है या संवेदना द्वारा सभी ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान है।”
- वुडवर्थ के मतानुसार, “प्रत्यक्षीकरण विभिन्न इन्द्रियों की सहायता से पदार्थ अथवा उनके आधारों का ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है।”
- स्टेगनर के अनुसार, “बाहरी वस्तुओं और घटनाओं का इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण है।”
- मैक्डूगल के अनुसार, “उपस्थित वस्तुओं के बारे में सोचना ही प्रत्यक्षीकरण करना है। एक वस्तु तभी उपस्थित कही जाती है जब तक उससे आने वाली शक्ति (उत्तेजना) हमारी ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करती रहती है।”
प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया
(Process of Perception)
प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए हम कह सकते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्रथम संवेदना, जो किसी वस्तु, प्राणी या घटना के विषय में प्राप्त होती है-मस्तिष्क में एक संस्कार को जन्म देती है। यह संस्कार प्रथम संवेदना का संस्कार होता है। जब वह वस्तु एक बार फिर से तत्सम्बन्धी ज्ञानेन्द्रिय पर प्रभाव डालती है तो मस्तिष्क पूर्व संस्कार के आधार पर दोनों अनुभूतियों की पारस्परिक समानताओं तथा विषमताओं की व्याख्या प्रस्तुत करता है और इस भाँति तुलना द्वारा वस्तु से प्राप्त अनुभूति की पहचान का प्रयत्न करता है। परिणामस्वरूप, प्रथम-संवेदना को उसका वास्तविक अर्थ मिल जाता है और यह अर्थपूर्ण संवेदना ही प्रत्यक्षीकरण है। उदाहरणार्थ–कोई बच्चा एक स्नेहपूर्ण कोमल आवाज पहली बार सुनता है। यह उसके लिए संवेदना है। किन्तु जब बच्चा वही आवाज दूसरी बार सुनता है तो उसकी तुलना अपनी माँ की पहली आवाज से करता है। फलस्वरूप वह दोनों आवाजों में गहरी समानता पाता है और उस आवाज का अपनी माँ की आवाज के रूप में प्रत्यक्षीकरण करता है।
प्रत्यक्षीकरण की क्रियाएँ
(Actions of Perception)
प्रत्यक्षीकरण वर्तमान वस्तु से प्राप्त संवेदना को अर्थ प्रदान करने का कार्य करता है। अर्थ प्रदान करने में निम्नलिखित मुख्य क्रियाएँ पायी जाती हैं –
(1) संग्राहक क्रियाएँ – संग्राहक क्रियाएँ प्रथम मुख्य क्रियाएँ हैं जो विभिन्न संग्राहकों या ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सम्पन्न होती हैं। प्रत्येक सम्बन्धित ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तेजना को ग्रहण करके उसे स्नायु-संस्थान के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। मस्तिष्क में इस प्रथम ज्ञान अर्थात् संवेदना की अनुभूति होती है जिसके पश्चात् प्रत्यक्षीकरण होता है।
(2) प्रतीकात्मक क्रियाएँ – प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया की द्वितीय मुख्य क्रियाएँ प्रतीकात्मक क्रियाएँ हैं जिनके माध्यम से अन्य क्रियाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है। प्रतीक (Symbol)’को देखकर उससे सम्बन्धित अनुक्रिया का अनुभव होने लगता है। ‘मोहन’ यह शब्द किसी व्यक्ति का प्रतीक बनकर उनका प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार रसगुल्ले को देखकर उससे सम्बन्धित स्वाद का अनुभव होने लगता है, इमली को देखकर मुँह खट्टा हो जाता है।
(3) भावात्मक क्रियाएँ – तीसरी महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ भावात्मक क्रियाएँ हैं। हम जानते हैं कि विविध वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण द्वारा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। भावनाएँ व्यक्ति से व्यक्ति तक परिवर्तित होती जाती हैं। उदाहरण के लिए-मन्दिर में रखे शिवलिंग को आस्तिक श्रद्धा एवं भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं, नास्तिक उसके लिए एक पत्थर का भाव रखता है।
(4) एकीकरण क्रियाएँ – इस चौथी क्रिया के अन्तर्गत वर्तमान संवेदना का पूर्व संवेदनाओं के साथ एकीकरण कर देते हैं। प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में एकीकरण का सोपान अत्यन्तावश्यक है जो मस्तिष्क में सम्पन्न होता है।
(5) विभेदीकरण क्रियाएँ – कभी-कभी प्राप्त संवेदना को अन्य संवेदनाओं से पृथक् भी करना पड़ता है; जैसे-बच्चे अपने पिता के स्कूटर का हॉर्न सुनकर उसकी तुलना या विभेदीकरण अन्य आवाजों से करते हैं और इस प्रकार उसे दूसरी आवाजों से अलग कर लेते हैं।
प्रश्न 2.
प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों को उदाहरणों सहित वर्णन कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्वों की भली-भाँति व्याख्या कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के प्रमुख निर्धारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारक
या प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्व
(Factors Affecting Perception)
प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों तथा उसके निर्धारक तत्त्वों की व्याख्या करने से पूर्व इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि प्रत्यक्षीकरण किस तरह का मनोवैज्ञानिक प्रक्रम है-जन्मजात या अर्जित ? वस्तुतः इस विवाद को लेकर कई विचार सम्मुख आते हैं। गेस्टाल्टवादियों के अनुसार, प्रत्यक्षीकरण का सम्बन्ध केन्द्रीय स्नायु-संस्थान की जन्मजात विशेषताओं से है। हेब्ब (Hebb) नामक मनोवैज्ञानिक के अनुसार, प्रत्यक्षात्मक संगठन (Perceptual Organization) केन्द्रीय स्नायु संस्थान की संरचना से प्रभावित होकर स्वत: निर्धारित होता है। साहचर्यवादी विचारकों की दृष्टि में प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम, अनुभवों पर आधारित है। प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्वों के विषय में कई मत अवश्य हैं, किन्तु यह निर्विवाद है कि ये निर्धारक तत्त्व प्रत्यक्षीकरण को स्वतन्त्र रूप से प्रभावित नहीं करते बल्कि विशिष्ट दशा में कई कारकों की अन्त:क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती हैं। प्रत्यक्षीकरण के मुख्य निर्धारक तत्त्वों अथवा कारकों को निम्त्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है –
(1) प्रत्यक्षीकरण पर सन्दर्भ का प्रभाव – व्यक्ति प्रत्येक उद्दीपक का प्रत्यक्षीकरण किसी-न-किसी सन्दर्भ में करता है। इस प्रकार सन्दर्भ, प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है। यह प्रभाव दो प्रकार का हो सकता है
(अ) अन्तःइन्द्रिय सन्दर्भ – जब उद्दीपक और उद्दीपक का सन्दर्भ दोनों एक ही ज्ञानेन्द्रिय क्षेत्र में होते हैं तो इस तरह का सन्दर्भ प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक के लिए पृष्ठभूमि का कार्य करता है। इस दशा को अन्त:इन्द्रिय सन्दर्भ का प्रभाव कहा जाता है। यह दशा प्रत्यक्षीकरण में भ्रम भी पैदा कर सकती है।
(ब) अन्तःइन्द्रिय सन्दर्भ – इस अवस्था में प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक ज्ञानेन्द्रिय के एक क्षेत्र में तथा उद्दीपक ज्ञानेन्द्रिय के दूसरे क्षेत्र में होता है। यह दशा अन्त:इन्द्रिय सन्दर्भ कहलाती है और प्रत्यक्षीकरण को अर्थपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।
(2) प्रत्यक्षीकरण पर अभिप्रेरणा का प्रभाव – अभिप्रेरणा से सम्बन्धित व्यवहार का कुछ-न-कुछ लक्ष्य या उद्देश्य होता है। व्यक्ति इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय हो उठता है तथा हर सम्भव प्रयास करता है। निश्चय ही, अभिप्रेरणा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं पर असर डालती है। और इस भाँति अभिप्रेरणा से प्रत्यक्षीकरण का निर्धारित होना भी स्वाभाविक है। अभिप्रेरणा का प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट होता है
(अ) प्रात्यक्षिक सतर्कता – प्रात्यक्षिक सतर्कता की प्रघटना में प्राणी का उद्दीपक पहचान सीमान्त कम हो जाता है। प्रायः प्राणी को कुछ खास उद्दीपकों के प्रति अतिरिक्त रूप से तत्पर पाया जाता है। कभी-कभी यह तत्परता इतनी ज्यादा हो जाती है कि प्राणी उद्दीपक के प्रति उस स्थिति में भी अनुक्रिया प्रकट करने लगता है, जबकि उद्दीपक अस्पष्ट हो और उसमें प्रत्यक्षीकरण के आवश्यक गुण भी न हों।
(ब) प्रात्यक्षिक सुरक्षा – प्रात्यक्षिक सुरक्षा की प्रघटना के अन्तर्गत, जब प्रयोज्यों के सम्मुख कोई दु:खदायी उद्दीपक लाया जाता है तो सामान्य या उदासीन उद्दीपकों की अपेक्षा इन उद्दीपकों की पहचान सीमान्त बढ़ जाती है।
(स) उद्दीपक-गुण – मनोवैज्ञानिक प्रयोग के सम्बन्ध में यह परिकल्पना सत्य सिद्ध हुई कि उदासीन उद्दीपक के प्रत्यक्षित आकार की अपेक्षा प्रयोज्यों को मूल्यवान उद्दीपक का प्रत्यक्षित आकार बड़ा प्रतीत होगा। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि उद्दीपक-गुणों के प्रत्यक्षीकरण पर अभिप्ररेणा का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
(द) उद्दीपक-चयन – मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से पता चला है कि प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में उद्दीपक के चयन पर अभिप्रेरणा का प्रभाव पड़ता है। एक परीक्षण में मुखाकृति के अर्धाशों (Half Parts) को जोड़कर प्रस्तुत किया गया। इन अर्धाशों में से एक को पुरस्कृत किया गया था और दूसरे को दण्डित। प्रयोज्यों ने पुरस्कृत अर्धाश का प्रत्यक्षीकरण अधिक किया।
(3) प्रत्यक्षीकरण पर तत्परता या सेट का प्रभाव – वातावरण में बहुत से उद्दीपक उपस्थित रहते हैं। अनुभव में आता है कि अक्सर प्राणी विशेष उद्दीपकों के प्रति प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से अधिक तत्पर रहता है या कम तत्पर रहता है। यह तत्परता, जिसे सेट (Set) भी कहा जाता है, प्रयोज्य के उन उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है। प्रत्यक्षीकरण पर तत्परता या सेट का प्रभाव दो प्रकार से देखा जा सकता है
(अ) पहचान के आधार पर – प्रत्यक्ष निर्देशों के माध्यम से पहचान के आधार पर सेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि इस आधार पर बने सेट प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव डालते हैं। पोस्टमैन एवं बूनर के अनुसार, जब प्रयोज्यों में निर्देशों के आधार पर एक सेट निर्मित होता है, उस समय पहचान अधिक सुविधाजनक होती है, किन्तु जब इसी आधार पर एक से अधिक सेट बनते हैं तो पहचान मुश्किल व दुविधापूर्ण हो जाती है। |
(ब) आकृति-पृष्ठभूमि के आधार पर – लीपर नामक मनोवैज्ञानिक ने सेट से सम्बन्धित एक प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि आकृति एवं पृष्ठभूमि से सम्बद्ध निर्देशों के आधार पर निर्मित सेट प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं। बूनर द्वारा किये गये अध्ययन के निष्कर्षों से भी पता चलता है कि आकृति के रंग के सम्बन्ध में बना सेट रंग प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है।
(4) प्रत्यक्षीकरण पर अधिगम का प्रभाव – अधिगम अर्थात् सीखना प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम को विशेष रूप से प्रभावित करता है। प्रत्यक्षपरक तादात्मीकरण (Perceptual Identification) अधिगम के कारण ही होता है और अधिगम क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण का शोधन एवं परिमार्जन करती है। यह भी ज्ञात होता है कि व्यक्ति के दीर्घकालीन अनुभव तथा अभ्यास प्रत्यक्षीकरण को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
(5) प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले अन्य कारक – प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक निम्नलिखित हैं
(i) परिचय – व्यक्ति को उन उद्दीपकों या संगठनों का प्रत्यक्षीकरण आसानी से होता है जिनसे वह भली प्रकार परिचित होता है; जैसे–परिचित, रिश्तेदार का प्रत्यक्षीकरण भीड़ के अन्य लोगों के बीच सरलता से हो जाता है।
(ii) पूर्व – अनुभव-जिस व्यक्ति में पूर्व-अनुभवों की अधिकता होती है, वह कम अनुभव वाले व्यक्तियों की अपेक्षा वातावरण में मौजूद उद्दीपकों का शीघ्र और बेहतर प्रत्यक्षीकरण कर लेता है। उदाहरण के लिए—प्रौढ़ व्यक्ति बच्चे की अपेक्षा शीघ्र व अधिक प्रत्यक्षीकरण करता है।
(iii) रंग – आकृति एवं पृष्ठभूमि के रंगों में जितना अधिक विरोध या अन्तर होता है, आकृति एवं पृष्ठभूमि का प्रत्यक्षीकरण उतना ही अधिक स्पष्ट होता है। काली पृष्ठभूमि पर सफेद बिन्दी एकदम साफ चमकती है।
(iv) आकार – बड़े आकार की उत्तेजनाओं को प्रत्यक्षीकरण छोटे आकार की उत्तेजनाओं की अपेक्षा शीघ्र और अधिक होता है।
(v) चमक – यदि आकृति व पृष्ठभूमि की चमक में अधिक अन्तर होगा तो आकृति एवं पृष्ठभूमि का अधिक स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण होगा।
(vi) अवधि – प्रदर्शनकाल भी प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है। लम्बी अवधि के लिए उपस्थित उद्दीपक को हम सरलता से प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं।
(vii) मानसिक तत्परता – मानसिक तत्परता भी प्रत्यक्षीकरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव रखती है। माना, माँ अपने बच्चे के आने की प्रतीक्षा कर रही है तो दरवाजे पर कोई भी आहट बच्चे के आने का संकेत देती है।
(viii) अभिवृत्ति – अभिवृत्ति भी उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है; जैसे-एक दल के लोग अभिवृत्ति (ऋणात्मक) के प्रभाव में विरोधी दल के लोगों का भ्रष्ट व अनैतिक लोगों के रूप में प्रत्यक्षीकरण करते है।
उपर्युक्त विवरण में सभी कारक परस्पर जटिल अन्त:क्रिया के कारण सक्रिय होते हैं तथा परिपक्व व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण में अधिक स्पष्ट होते हैं।
प्रश्न 3.
प्रत्यक्षीकरण में गैस्टाल्ट सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में गैस्टाल्टवादियों के सिद्धान्त क्या हैं?
या
प्रत्यक्षीकरण का क्या अर्थ है? प्रात्यक्षिक संगठन के नियमों का वर्णन कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन के नियमों को विस्तार से लिखिए। आकृतियों में समानता और समीपता के आधार पर प्रत्यक्षीकरण के संगठन की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
गैस्टाल्टवादी मनोविज्ञान
(Gestalt Psychology)
मनोविज्ञान मानव के स्वभाव व व्यवहार का विधिवत् अध्ययन करता है। 1912 में जब व्यवहारवादी विचारधारा (Behaviourists) के मनोवैज्ञानिक जे० बी० वाटसन अमेरिका में व्यवहारवाद का आन्दोलन चला रहे थे, उन्हीं दिनों जर्मनी में व्यवहारवाद के विरुद्ध प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से मानव स्वभाव को समझने के लिए एक नवीन विचारधारा का जन्म हो रहा था, जिसे गैस्टाल्टवाद या गैस्टाल्टवादी मनोविज्ञान (Gestalt Psychology) का नाम दिया गया है। मैस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रारम्भ तीन मनोवैज्ञानिकों-मैक्स वरदाईमर (Max warthiemer), वोल्फगैंग कोहलर (Wolfgang Kohler) तथा कर्ट कोफ्का (Kurt Koffka) द्वारा किया गया।
गैस्टाल्ट का अर्थ-गैस्टाल्ट’ शब्द का अर्थ है किसी वस्तु का आकार, प्रकार या स्वरूप। पूर्ण को जर्मन भाषा में गैस्टाल्टन (Gestaltan) कहते हैं और अंग्रेजी भाषा में गैस्टाल्ट’ (Gestalt) कहते हैं। गैस्टाल्टवादियों के अनुसार, किसी भी उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण (Perception) उसके पूर्णरूप में होता है तथा वस्तु का वास्तविक रूप उसके पूर्ण में ही दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि इस विचारधारा के अनुयायी वस्तु के पूर्णरूप को लेकर चलते हैं तथा उसे ही सही एवं वास्तविक प्रत्यक्षीकरण स्वीकार करते हैं। ये मनोवैज्ञानिक इस अवधारणा को स्वीकार नहीं करते कि प्रत्यक्षीकरण संवेदनाओं तथा पूर्व अनुभवों का योग होता है। यदि किसी सुन्दर बच्चे के चेहरे का उदाहरण लें तो वह अपने पूर्णरूप में सुन्दर दिखाई देता है। यदि बच्चे की आँख, नाक, होंठ, कान, गाल, मस्तक आदि को अलग-अलग करके देखें तो वह सुन्दरता विलुप्त हो जाती है। कारण यह है । कि सुन्दरता चेहरे के समस्त अंगों में निहित होने के बावजूद भी पूर्णरूप में देखने पर ही दिखाई पड़ती है, अंश या भागों में देखने पर नहीं। वस्तुत: चेहरा इन समस्त अंगों का योग ही नहीं है, वह तो इनका एक विशेष संगठन है और इस विशेष संगठन में ही बच्चे के चेहरे की सुन्दरता को रहस्य छिपा है।
प्रत्यक्षीकरण का गैस्टाल्ट सिद्धान्त (Gestalt Theory of Perception) – गैस्टील्ट सिद्धान्त के अनुसार, किसी वस्तु का प्रत्यक्षीकरण संश्लेषणात्मक विधि के द्वारा पहले होता है, बाद में उसका प्रत्यक्षीकरण विश्लेषणात्मक ढंग से होता है। कोई वस्तु हमें सर्वप्रथम अपने संश्लेषित या पूर्णरूप में दिखाई देती है। धीरे-धीरे, जैसे-ही-जैसे वस्तु के प्रत्यक्षीकरण के चिह्न घटते जाते हैं, वैसे-ही-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग (भागों) का प्रत्यक्षीकरण विश्लेषित या आंशिक रूप में होता है। किसी भव्य इमारत को देखने पर उसका प्रत्यक्षीकरण सम्पूर्ण रूप में किया जाता है, उसके विभिन्न हिस्सों में नहीं। पहली एक दृष्टि में उसके हिस्सों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाता। किन्तु शनैः-शनै: जब उसको कई बार देखा जाता है तो हम उसके किसी भी हिस्से का प्रत्यक्षीकरण करने लगते हैं, यथार्थ या वास्तविक प्रत्यक्षीकरण वस्तु के विभिन्न हिस्सों या अंगों का योग न होकर उस संगठन द्वारा होता है जिसमें विषय-वस्तु संगठित रहती है। यदि उस विषय-वस्तु के विभिन्न अंगों का संगठन परिवर्तित हो जाए तो प्रत्यक्षीकरण में भी परिवर्तन आ जाएगा।
संगठन के नियम
(Laws of Organisation)
अपने मत के समर्थन में गैस्टाल्टवादियों ने संगठन के कुछ नियम प्रतिपादित किये हैं। वे नियम इस प्रकार हैं –
1. समग्रता का नियम (Law of wholes) – समग्रता का नियम प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण नियम है जिसके अनुसार प्रत्यक्षीकरण में समग्र परिस्थिति का प्रत्यक्ष एक साथ होता है। ज्ञान के क्षेत्र में अनेक उत्तेजक तत्त्व स्वयं को विविध प्रकार के आकारों में संगठित कर लेते हैं। जर्मनी भाषा में ये आकार गैस्टाल्टन (Gestaltan) कहलाते हैं। हमारे मस्तिष्क पर इन संगठित आकारों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और इन्हीं का हम प्रत्यक्षीकरण करते हैं। क्योंकि ज्ञान क्षेत्र में सर्वप्रथम हमें समग्र ही दिखाई पड़ता है, अत: बड़े शब्दों के बीच हुई अक्षरों की गलतियाँ अक्सर हम नहीं देख पाते और गलतियों के बावजूद भी शब्द को पूर्णरूप में ही पढ़ते हैं।
उपर्युक्त चित्र में कुल 12 फूल हैं हम जिनका प्रत्यक्षीकरण चार-चार के समूह में करते हैं। कारण यह है कि चार-चार फूल मिलकर एक समग्र या इकाई बना रहे हैं।
2. आकृति और पृष्ठभूमि का नियम (Law of Figure and Background) – इस नियम के अनुसार किसी आकृति या दूसरी उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण हम एक पृष्ठभूमि में करते हैं। चित्रकला में आकृति और पृष्ठभूमि नियम का विशेष ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए कुछ चित्र ऐसे होते हैं जो सिर्फ पृष्ठभूमि के विरोधी रंग के कारण उभर आते हैं। फिल्म देखते समय हम लोग अलग-अलग दृश्यों के साथ संगीत की अलग-अलग पृष्ठभूमि पाते हैं। पृष्ठभूमि की वजह से आकृति (उत्तेजना) का प्रत्यक्षीकरण प्रभावित होता है।
निर्धारक नियम
(Determining Laws)
गैस्टाल्टवादियों ने संगठन के नियमों के अलावा आकृति और पृष्ठभूमि के निर्धारक नियम भी प्रतिपादित किये हैं। ये नियम निम्नलिखित हैं –
(1) समीपता का नियम (Law of Proximity) – देश-काल की किसी पृष्ठभूमि में उन दशाओं, वस्तुओं, पदार्थों तथा प्राणियों का प्रत्यक्षीकरण शीघ्रता से होता है जो अपनी समीपता के कारण एक इकाई या आकृति का रूप धारण कर लेती हैं। इसके विपरीत, अनियमित तथा दूर-दूर बिखरे तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण आसानी से नहीं होता। बगीचे के उन पौधों का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र व सरलता से होता है जो एक-दूसरे के समीप तथा समूह में होते हैं। बगीचे के बाहर खड़े एकाकी पौधे के प्रत्यक्षीकरण में देर लगती है।
(2) निरन्तरता का नियम (Law of Continuity) – उने उत्तेजनाओं का शीघ्र प्रत्यक्षीकरण कर लिया जाता है जो अनवरत रूप से निरन्तर या लगातार आती हैं। इस प्रकार की उत्तेजनाएँ किसी ज्ञानेन्द्रिय को ज्यादा देर तक तथा पूर्णरूप से प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए स्कूटर के रुक-रुककर बजने वाले हॉर्न की अपेक्षा लगातार और निरन्तर बजने वाले हॉर्न का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र होता है।
(3) समानता का नियम (Law of Similarity) – समानता प्रत्यक्षीकरण का एक महत्त्वपूर्ण नियम है। समान आकृति वाली उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र कर लिया जाता है। वस्तुतः नाड़ी-तन्त्र में उन्हीं उत्तेजनाओं (वस्तुओं या व्यक्तियों) की आकृति बनती है जो वातावरण में समान रूप से पायी जाती हैं यानि जिनके विभिन्न अंगों में अधिक समानता दृष्टिगोचर होती है।
(4) सजातीयता का नियम (Law of Homogeneity) – गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, किसी पृष्ठभूमि में एक ही जाति के उत्तेजक या विभिन्न वस्तुएँ पहले दिखाई पड़ती हैं। एक ही दीप्ति के प्रकाश अथवा एक ही तीव्रता की ध्वनियों का प्रत्यक्षीकरण पृष्ठभूमि की अपेक्षा शीघ्रता से होता है। वसन्त ऋतु में फलते-फूलते टेसू के फूलों से लदे पेड़ों को देखकर प्रायः जंगल में आग का, भ्रम हो जाता है। ऐसा इसे कारण होता है क्योंकि एक ही जाति के ढेर सारे फूलों का प्रत्यक्षीकरण इनके एकसमान रंग की दीप्ति के कारण होता है।
(5) तत्परता का नियम (Law of Readiness) – वस्तु या उत्तेजना के संगठन पर मानसिक तत्परता का भी प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति जिस चीज का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए तत्पर होता है उसे वह जल्दी देख अथवा सुन लेता है। उदाहरण के लिए परीक्षार्थी प्रश्न-पत्र में पहले उन प्रश्नों का प्रत्यक्षीकरण करता है जिनके आने की उम्मीद थी, दूसरे प्रश्नों का प्रत्यक्षीकरण वह बाद में करता है।
(6) आच्छादन का नियम (Law of Closure) – कई बार उत्तेजनाएँ रिक्त स्थान (Gaps) छोड़ देती हैं जिन्हें मानव मस्तिष्क द्वारा स्वयं पूरा कर लिया जाता है। यह प्रक्रिया आच्छादन अंग के प्रभाव के कारण है। जब हम कोई ऐसी आकृति देखते हैं जिस का कोई अंग अपूर्ण है तो हम उस अपूर्णता की ओर ध्यान न देकर आकृति का प्रत्यक्षीकरण पूर्ण रूप में ही करते हैं।
(7) प्रेरणा का नियम (Law of Motivation) – किसी व्यक्ति में कार्यरत प्रेरक अपने से सम्बन्धित उत्तेजनाओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण पहले करने की दृष्टि से व्यक्ति को प्रेरित करता है। रिक्शा चलाने वाली सवारियों का प्रत्यक्षीकरण अन्य राहगीरों की अपेक्षा शीघ्र करेगा, जबकि पान वाला पान खाने वालों का।
(8) संगति या सम्बद्धता का नियम (Law of Symmetry) – गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, व्यक्ति किसी वस्तु अथवा उद्दीपक को उसके पूर्ण रूप में देखने की प्रवृत्ति रखता है। वह वस्तु की सम्बद्धता या संगति पर ध्यान देता है तथा छोटी-मोटी असम्बद्धताओं या विसंगतियों पर ध्यान नहीं देता। वस्तुतः संगति की वजह से समस्त उत्तेजना के अंग संगठित हो जाते हैं जिससे उनका सम्पूर्ण प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। कमरे की दीवारों को प्रत्यक्षीकरण इसी संगति या संम्बद्धता के कारण है।
(9) अनुभव का नियम (Law of Experience) – प्रत्यक्षीकरण पर पहले अनुभव का भी । प्रभाव पड़ता है। जिन वस्तुओं अथवा उत्तेजनाओं को व्यक्ति को पहले से अनुभव रहता है उनका प्रत्यक्षीकरण वह शीघ्र करता है। यह इस कारण से होता है क्योंकि प्रत्यक्षीकरण करने वाला व्यक्ति पृष्ठभूमि की अन्य वस्तुओं की अपेक्षा उस वस्तु-विशेष से अधिक परिचित होता है।
(10) मनोवृत्ति का नियम (Law of Attitude) – व्यक्ति की मनोवृत्ति भी उसकी उत्तेजना के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है, क्योंकि व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रवृत्ति के अनुसार ही वस्तु का प्रत्यक्षीकरण करता है। उपवन में सैर कर रहे विभिन्न लोग अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल ही फूल-पौधों का प्रत्यक्षीकरण करेंगे। माली उन्हें उगाने की विधि, मिट्टी की दशा तथा उर्वरकों की दृष्टि से; कवि या लेखक सौन्दर्यानुभूति की प्रवृत्ति से तथा युवती फूल के सौन्दर्य से आकर्षित होकर उसका प्रत्यक्षीकरण करेगी।
प्रश्न 4.
भ्रम अथवा विपर्यय (nlusion) से क्या आशय है? भ्रम की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए तथा इसके कारणों का भी उल्लेख कीजिए।
या
भ्रम क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
या
विपर्यय या भ्रम के कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण में हम किसी उत्तेजना या वस्तु-विशेष के यथार्थ का बोध करते हैं, किन्तु मिथ्या या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण भ्रम कहलाता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से घर के किसी प्रकोष्ठ में रस्सी का प्रत्यक्षीकरण करता है। व्यक्ति को यह यथार्थ ज्ञान हो जाता है कि यह रस्सी है। वह घर में आते-जाते, सुबह-शाम रस्सी का प्रत्यक्ष बोध करता है। एक दिन रात के अन्धेरे में इसके विपरीत घटना घटी और वह रस्सी को साँप समझ बैठा और चीखकर दौड़ पड़ा। व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण यहाँ भी कर रहा है, किन्तु यह यथार्थ या वास्तविक नहीं है। यह विपरीत अर्थात् विपर्यये (उल्टा) प्रत्यक्षीकरण है और इसी कारण भ्रम है।
विपर्यय अथवा भ्रम का अर्थ
(Meaning of Illusion)
विपर्यय अथवा भ्रम (Ilusion) त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण का दूसरा नाम है। प्रत्यक्षीकरण की क्रिया में संवेगात्मक अनुभव को उचित अर्थ प्रदान किया जाता है, किन्तु जब हम अपनी संवेदनाओं को त्रुटिपूर्ण या गलत अर्थ प्रदान कर देते हैं तो हमें विपर्यय (भ्रम) हो जाता है। इसे भाँति, प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी कोई भी त्रुटि विपर्यय के अन्तर्गत शामिल की जा सकती है। हालाँकि ऐसी त्रुटियाँ सामान्यतया होती रहती हैं, किन्तु ‘विपर्यय’ या ‘भ्रम’ शब्द का प्रयोग हम केवल उस दशा में ही करते हैं, जबकि निरीक्षण के दौरान कोई अनोखी तथा बड़ी त्रुटि हो गयी हो। भ्रम किसी स्वप्नावस्था का नाम नहीं है, क्योकि इसमें प्रत्यक्ष वस्तु सामने विद्यमान है। यह कल्पना भी नहीं है। यह तो मिथ्या या भ्रामक प्रत्यक्ष है। नींद से जागने पर अक्सर आदमी सवेरे को शाम या शाम को सवेरा समझ लेता है।
विपर्यय या भ्रम की प्रकृति स्थायी नहीं होती। यह एक क्षणिक और नितान्त अस्थायी प्रक्रिया है। जैसे ही व्यक्ति को उत्तेजक की सच्चाई का ज्ञान प्राप्त होता है, वैसे ही व्यक्ति को अपनी त्रुटि का आभास हो जाता है और उसका भ्रम दूर हो जाता है।
विपर्यय या भ्रम के प्रकार
(kinds of Illusion)
विपर्यय या श्रम साधारणतया दो प्रकार के होते हैं –
- व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम तथा
- सामान्य विपर्यय या भ्रम।
(1) व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम (Personal Illusion) – व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम वे हैं जो सभी व्यक्तियों में एकसमान नहीं होते। ये व्यक्ति से व्यक्ति में बदलते रहते हैं। हर एक व्यक्ति ऐसे भ्रम को अनुभव ही करे, यह अनिवार्य भी नहीं है अर्थात् इन्हें कोई अनुभव कर पाता है। अनुभव का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न होता है। ये भ्रम क्षणिक प्रकृति के होते हैं तथा जल्दी ही दूर हो जाते हैं। उदाहरण के लिए—कुछ व्यक्ति अन्धेरे में रस्सी को साँप समझ सकते हैं, किन्तु जिस किसी ने साँथे । को देखा-सुना नहीं है, वह अन्धेरे में साँप को भी रस्सी ही समझ बैठेगा। यदि किसी ने कभी भूत के बारे में नहीं सुना है तो उसे कोई विचित्र आकृति भूत का भ्रम नहीं दे सकती।
(2) सामान्य विपर्यय’ या भ्रम (General Illusion) – सामान्य विपर्यय सार्वभौम (Universal) होते हैं। यही कारण है कि इन्हें सार्वभौमिक विपर्यय भी कहते हैं। ये दुनिया भर के सभी लोगों को समान रूप से होते हैं। इनका स्वरूप पर्याप्त रूप से स्थायी होता है। इसी कारण वास्तविकता जान लेने पर भी ये भ्रम ही रहते हैं। ऐसे भ्रमों से मुक्ति पाने के लिए अत्यधिक प्रयास करने पड़ते हैं। सामान्य विपर्यय को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है –
(i) गतिभ्रम – गतिभ्रम सामान्य या सार्वभौमिक विपर्यय का एक अच्छा उदाहरण है जिसे ‘फाई-फिनोमिना’ (Phi-Phenomena) कहते हैं। इसका प्रमाण सिनेमाघर में मिलता है। सिनेमा की रोल में थोड़े-थोड़े फासले पर किसी अभिनेता के सैकड़ों-हजारों चित्र होते हैं। रील को प्रोजेक्टर से चलाने पर पर्दे पर व्यक्ति अभिनय करता दीख पड़ता है। अभिनेता वास्तव में पर्दे पर अभिनय नहीं कर रहा है, किन्तु गति भ्रम के कारण यह सजीव जान पड़ता है। शादी-ब्याह, नुमाइश या मेले के अवसर पर बिजली के बल्बों को जला-बुझाकर गतिभ्रम कराया जाता है। कभी चक्र घूमता जान पड़ता है तो कभी बल्बों की माला चलती हुई महसूस होती है।
(ii) अक्सर किसी बस या गाड़ी से यात्रा करते समय नेत्र बन्द कर लेने से अनुभव होता है कि बस या गाड़ी उल्टी दिशा में चल रही है।
(iii) इसी प्रकार किसी वाहन से सफर के दौरान हर एक व्यक्ति अनुभव करता है कि दोनों ओर के मकान, पेड़-पौधे या विभिन्न वस्तुएँ। विपरीत दिशा में भागे जा रहे हैं। टेलीफोन के खम्भों पर खिंचे तार भी ऊपर-नीचे चलते अनुभव होते हैं।
(iv) म्यूलर-लापर विपर्यय (Muller-Lyer Illusion) – म्यूलरलायर विपर्यय या भ्रम को संलग्न चित्र में दिखाया गया है। चित्र को देखकर हर एक व्यक्ति यही बतायेगा कि अ ब रेखा ब स रेखा से बड़ी है जबकि अ * ब रेखा, ब स के एकदम बराबर है। अ सिरे पर अ अ, ब सिरे पर ब ब” तथा स सिरे पर स स रेखाओं के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है।
(v) जुलनर का भ्रम (Zullner’s Illusion)प्रायः हम लोग किसी वस्तु पर देर तक ध्यान केन्द्रित करके अ > तथा उसका विश्लेषण करके ही उसका प्रत्यक्षीकरण कर सट पाते हैं। जब ऐसा करना सम्भव नहीं होता तथा विरोधी उत्तेजनाओं को हम वस्तु से पृथक् नहीं कर पाते तो हमें संलग्न चित्र में प्रदर्शित भ्रम के सदृश विपर्यय हो जात्रा है। अब, सद, यर तथा ल व-ये चार खड़ी समान्तर रेखाएँ हैं, किन्तु तिरछी काटने वाली छोटी रेखाओं के कारण समानान्तर महसूस नहीं होती।
(vi) हैरिंग का विपर्यय (Herring’s Illusion) – संलग्न चित्र में हैरिंग द्वारा प्रस्तुत एक ज्यामितीय आकृति दिखाई गयी है जिसमें अब और स द दो समान्तर पड़ी रेखाओं को कुछ रेखाएँ इस प्रकार काट रही हैं कि ये समानान्तर नहीं जान पड़तीं।
विपर्यय के कारण
(Causes of Illusion)
निःसन्देह किसी वस्तु का मिथ्या प्रत्यक्षीकरण या झूठी भ्रान्ति ही विपर्यय अथवा भ्रम है और इसके अन्तर्गत ऐसी वस्तु का प्रत्यक्षीकरण किया जाता है जो वास्तविक वस्तु से सर्वथा भिन्न है। किन्तु, ऐसा होता क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर की खोज में कई सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। इन सिद्धान्तों के आधार पर ही विपर्यय या भ्रम के मुख्य कारण अग्रलिखित रूप से प्रस्तुत हैं –
(1) पूर्वधारणा या पूर्वानुभव (Preconception) – आमतौर पर लोगों को अपने पुराने अनुभवों या पूर्वधारणाओं के कारण भ्रम पैदा हो जाता है। किसी विषय-वस्तु के सन्दर्भ में पूर्वधारणाओं के कारण प्रत्यक्षीकरण विकृत होकर विपर्यय को जन्म देता है। उदाहरणार्थ-किसी मकान में कभी एक स्त्री का कत्ल कर दिया गया था। यह बात फैल गयी कि रात के समय उस स्त्री का प्रेत मकान में आता है। इस बात को जानकर कोई व्यक्ति यदि उस मकान में रात व्यतीत करे त सम्भव है कि उसे रात में किसी आवाज से प्रेत का भ्रम हो जाये या कोई आकृति भूत जैसी दिखाई पड़े। यह भ्रम सोने वाले व्यक्ति की पूर्वधारणा के कारण होगा।
(2) आशा (Expectation) – प्रायः हम किसी वस्तु या घटना की आशा करते हैं। इस आशा के अनुकूल तथा इसके कारण विपर्यय या भ्रम हो जाते हैं। देखने में आता है कि परीक्षा में किसी प्रश्न के आने की आशा में छात्र उससे मिलते-जुलते किसी अन्य प्रश्न का उत्तर लिख देते हैं। यदि अकेले सफर कर रहे यात्री को आशा हो कि आज डाकू मिलेगा तो सामान्य आदमी को देखकर भी वह भयभीत हो उठेगा। यह भ्रान्त दशा आशा के कारण है।
(3) आदतें (Habits) – यदा-कदा व्यक्ति आदतों के कारण भ्रम का शिकार हो जाता है। यदि हम किसी वस्तु को विशेष रूप में देखने की आदत रखते हैं तो उसी तरह की दूसरी वस्तुएँ देखने पर हमें पहली वस्तुओं का ही बोध होगा। यदि किसी परिचित को एक विशेष पोशाक में देखने की आदत है तो किसी अन्य को उसी पोशाक में देखकर परिचित व्यक्ति का भ्रम होगा।
(4) ज्ञानेन्द्रिय दोष (Defects of Sense Organs) – कुछ विपर्यय या भ्रम ज्ञानेन्द्रिय दोष के कारण उत्पन्न होते हैं। ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को खाने की सभी वस्तुएँ कड़वी या नमकीन लगती हैं, पीलिया (Jaundice) का रोगी प्रत्येक वस्तु को पीला पाता है तथा सुनने का दोषी अद्भुत आवाजें सुना करता है।
(5) नेत्रगति (Eye Movement) – विपर्यय या भ्रम में नेत्रगति की विशेष भूमिका है। चित्रानुसार अ ब रेखा पर स द रेखा लम्बवत् खड़ी है। हालाँकि अ ब और स द आपस में समान लम्बाई की हैं लेकिन अ ब, से स द लम्बी महसूस होती है। यह भ्रम हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों की विशेषताओं के कारण होता है।
(6) नवीनता (Novelty) – नवीनता के कारण भी व्यक्ति को विपर्यय होता है। अक्सर किसी परिस्थिति या वस्तु में परिवर्तन के कारण कोई नवीनता उत्पन्न होने से उसके विषय में भ्रम उत्पन्न हो जाता है। जब हम किसी शहर में एक लम्बे समय बाद आते हैं तो वहाँ किसी खास गली या मुहल्ले के नये मकानों को देखकर उस स्थान-विशेष के बारे में भ्रम हो जाता है।
(7) संवेग (Emotion) – संवेगावस्था में व्यक्ति को बहुधा भ्रम होते हैं। संवेग की दशा में व्यक्ति असामान्य हो जाता है और गलत प्रत्यक्षीकरण करने लगता है। चोर या डाकू की आशंका से उत्पन्न भय की संवेगावस्था में दरवाजे या छत पर होने वाली जरा-सी आहट भी चोर या डाकू की उपस्थिति का भ्रम करा देती है।।
(8) उत्तेजनाओं का विरोध (Contrast of Stimuli) – दो विपरीत गुणों वाली उत्तेजनाओं के सम्मुख आने पर व्यक्ति को उसकी वास्तविकता के विषय में भ्रम हो जाता है। लम्बा व्यक्ति यदि ठिगने व्यक्ति के साथ चले तो ठिगना और अधिक ठिगना दिखाई देगा, किन्तु यदि ठिगना, ठिगने व्यक्तियों के ही साथ चलेगा तो इतना ठिगना नहीं लगेगा। यदि एक साथ बनी चाय को तीन प्यालों में डालकर उन तीन व्यक्तियों को पिलायी जाये जिनमें से एक ने पहले मिठाई खाई हो, दूसरे ने नमकीन और तीसरे ने कुछ भी न खाया-पिया हो, तो मिठाई खाने वाला चाय को कम मीठी (या फीकी), नमकीन खाने वाला अपेक्षाकृत अधिक मीठी तथा बिना कुछ खाये-पिये चाय पीने वाला व्यक्ति उसे वास्तविक रूप से मीठा बतायेगा। ऐसा वस्तुओं के विरोधी गुणों के कारण है।
(9) सम्भ्रान्ति (Confusion) – सम्भ्रान्ति से अभिप्राय है–किसी आकृति के किसी भाग का अशुद्ध या मिथ्या प्रत्यक्षीकरण। किसी आकर्षक वस्तु को देखकर हम उसके सम्पूर्ण रूप में इतना खो जाते हैं कि उसके भागों की कमी पर ध्यान ही नहीं देते। अक्सर सुन्दर आकृति से सम्भ्रान्ति का विपर्यय या भ्रम पैदा हो जाता है।
(10) समग्रतो की प्रवृत्ति (Tendency towards whole) – प्रत्यक्षीकरण में समग्रता की प्रवृत्ति पायी जाती है। किसी चित्र या दृश्य के विभिन्न रूप समग्र के गुणों पर निर्भर होते हैं। इनका अर्थ भी समग्र के अर्थ पर आधारित होता है। बादलों को ध्यानपूर्वक देखने पर उसमें कई प्रकार की आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि बादल को समग्र रूप से देखा जाता है।
(11) परिदृश्य (Perspective) – किसी भी वास्तविक वस्तु में ये सभी माप पायी जाती हैं–लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई अथवा गहराई आदि, किन्तु वस्तु के चित्र में सामान्यतया सिर्फ लम्बाई और चौडाई ही दिखाई पड़ती है। परिदृश्य त्रिमिति (Three Dimensional) होता है। इसी कारण त्रिमित्याकार चित्रों को देखकर वे वास्तविक जैसी लगती हैं, किन्तु यह भ्रम है त्रिमित्याकार फिल्मों को एक विशेष प्रकार का चश्मा लगाकर देखा जाता है और उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि जैसे फिल्म की चीजें हमारे सिर पर आ रही हों। ऐसे भ्रम परिदृश्य के कारण हैं।
उपर्युक्त विभिन्न कारणों से भ्रम या विपर्यय होती है। भ्रम कभी किसी एक कारण या अनेक कारणों से भी हो सकता है। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि इस प्रकार के भ्रमों को निर्मूल या निराधार भ्रम से अलग समझा जाता है।
प्रश्न 5.
विभ्रम (Hallucination) से क्या आशय है? विभ्रम के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
एक निराधार प्रत्यक्षीकरण के रूप में विभ्रम का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा उसके कारणों को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
विभ्रम का अर्थ
(Meaning of Hallucination)
संवेग की अवस्था में प्रत्यक्षीकरण की दशाएँ असामान्य हो जाती हैं, किन्तु संवेग की अवस्था समाप्त हो जाने पर प्रत्यक्षीकरण पुनः सामान्य रूप से होने लगता है। प्रत्यक्षीकरण की असामान्य दशाओं में विभ्रम का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।
विपर्यय अथवा भ्रम की तरह से विभ्रम भी एक त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण है। भ्रम और विभ्रम के बीच अन्तर यह है कि भ्रम बाह्य उत्तेजक का गलत प्रत्यक्षीकरण करने से उत्पन्न होता है जबकि विभ्रम बाह्म उत्तेजक की अनुपस्थिति (अभाव) के प्रत्यक्षीकरण करने से पैदा होता है। इस प्रकार से विभ्रम, वस्तुतः निर्मूल या निराधार प्रत्यक्षीकरण है। जब हम किसी ऐसी वस्तु को देखते हैं जो सचमुच में नहीं है, ऐसी गन्ध को सँघते हैं जो वातावरण में नहीं है और ऐसी ध्वनि को सुनते हैं जो पैदा नहीं हुई तो यही विभ्रम कहलायेगा। उदाहरण के तौर पर–रेगिस्तान में दूर-दूर तक कहीं पानी नहीं है, किन्तु प्यासे हिरन को कुछ दूर पानी का स्रोत होने का निर्मूल प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। प्यासा हिरने पानी की चाह में जैसे ही आगे बढ़ता जाता है, पानी का स्रोत वैसे ही पीछे हटता जाता है। रेगिस्तान में पानी का पूर्ण अभाव है तथापि प्राणी को पानी का प्रत्यक्षीकरण हो रहा है-यह विभ्रम हुआ।
साधारणतया ऐसा माना जाता है कि विभ्रम असामान्य व्यक्तियों में होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, विभ्रम वे अनुभव हैं जिनमें प्रतिमाओं को प्रत्यक्ष समझ लिया गया है। उनकी दृष्टि में विभ्रम एक स्मृति प्रतिमा (Memory Image) है जिसे संवेदना को स्वरूप प्रदान किया गया है। यह हमारे पूर्व-अनुभव पर निर्मित होती है तथा वर्तमान में सत्य लगती है। रस्सी को साँप समझना यही विपर्यय अथवा भ्रम है तो कुछ भी न होने पर साँप देख लेना विभ्रम है। यद्यपि मनुष्य को श्रवण विभ्रम अधिक होते हैं लेकिन विभ्रम हमारी किसी भी ज्ञानेन्द्रिय आँख, नाक, कान, त्वचा, जिह्वा आदि को हो सकते हैं।
विभ्रम के कारण
(Causes of Hallucination)
विभ्रम की असामान्य स्थिति उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं –
(1) मानसिक रोग – विभ्रम सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा एक मानसिक रोगी को अधिक मत्रा में होते हैं। इसमें मानसिक रोगों में से प्रमुख रोग हैं-हिस्टीरिया, शिजोफ्रेनिया और न्यूरिस्थीनिया आदि। इन रोगियों को विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; यथा-वह आकाश में उड़ा चला जा रहा है, उसके कान में तरह-तरह की आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उसकी नाक टेढ़ी हुई जा रही है या हाथ मुड़ रहा है आदि। इस भाँति मानसिक रोग भी विभ्रम के कारण हैं।
(2) तीव्र कल्पना शक्ति – तीव्र कल्पना शक्ति वाले लोग अधिकांशतः कल्पना-जगत् में खोये रहते हैं। ऐसे लोग गहन कल्पनाएँ करते-करते स्वयं को उसी काल्पनिक परिस्थिति में पहुँचा देते हैं। वे वास्तविक विषय-वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसका निराधार, किन्तु वास्तविक प्रत्यक्षीकरण करने लगते हैं। यह बात अलग है कि यह प्रत्यक्षीकरण सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए वास्तविक होता है जो कल्पनाएँ कर रहे हैं।
(3) दिवास्वप्न – जब व्यक्ति चेतना (जाग्रत) अवस्था में बैठे-बैठे स्वप्न देखता है तो इसे दिवास्वप्न देखना कहते हैं। जागते हुए भी ऐसे व्यक्ति अपने मन की आँखों से कोई दूसरा ही नजारा देख रहे होते हैं। वे उसमें इतने लवलीन रहते हैं कि उन्हें वह नजारा एकदम सच जान पड़ता है। यह दिवास्वप्न के कारण विभ्रम की स्थिति है।
(4) अचेतन मन – अचेतन मन की इच्छाएँ विभ्रम का कारण बनती हैं। फ्रॉयड के अनुसार, व्यक्ति की अपूर्ण इच्छाएँ अन्ततोगत्वा अचेतन मन में चली जाती हैं। कोई तीव्र एवं शक्तिशाली इच्छा अचेतन रूप से व्यक्ति पर प्रभाव डाल सकती है और वहीं से उसके व्यवहार को संचालित कर सकती है। अचेतन मन में बसी यह प्रबल इच्छा विभ्रम उत्पन्न कर सकती है।
(5) मादक द्रव्य – मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले लोग भी विभ्रम का शिकार हो जाते हैं। मादक द्रव्य यथा शराब, अफीम, भाँग, गाँजा तथा चरस आदि के सेवन से चेतना शक्ति प्रभावित होती है। इस अवस्था में या तो चेतना शक्ति समाप्त हो जाती है या कमजोर पड़ जाती है और विभ्रम उत्पन्न करती है। एक शराबी को सरलता से विभ्रम हो जाते हैं।
(6) चिन्तनशील प्रवृत्ति – अधिक विचारशील एवं चिन्तनशील व्यक्ति भी विभ्रम के शिकार होते हैं। ऐसे व्यक्ति निरन्तर एक ही बात सोचते रहते हैं और उसी से सम्बन्धित प्रत्यक्ष करने लगते हैं। जो विभ्रम के कारण है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
संवेदन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में संवेदना (Sensation) का विशेष महत्त्व है। वास्तव में अभीष्ट संवेदना के आधार पर ही प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना के अभाव में प्रत्यक्षीकरण हो ही नहीं सकता। अब प्रश्न उठता है कि संवेदना से क्या आशय है अर्थात् संवेदना किसे कहते हैं? वास्तव में, जब कोई व्यक्ति या जीव किसी बाहरी विषय-वस्तु से किसी उत्तेजना को प्राप्त करता है, तब वह जो अनुक्रिया करता है, उसे ही हम संवेदना कहते हैं। सभी संवेदनाएँ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण की जाती हैं। सैद्धान्तिक रूप से संवेदना सदैव प्रत्यक्षीकरण से पहले उत्पन्न होती है, परन्तु व्यवहार में संवेदना को ग्रहण करना तथा प्रत्यक्षीकरण सामान्य रूप से साथ-साथ ही होते हैं। संवेदनाएँ आँख, नाक, कान, जिल्ला तथा त्वचा नामक पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक विषय की संवेदना विशिष्ट होती है। इस विशिष्टता के कारण ही प्रत्येक विषय का प्रत्यक्षीकरण अलग रूप में होता है। संवेदनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं; जैसे-आंगिक संवेदनाएँ, विशेष संवेदनाएँ तथा गति संवेदनाएँ।
प्रश्न 2.
आंगिक संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्राणियों द्वारा ग्रहण की जाने वाली एक मुख्य प्रकार की संवेदनाएँ, आंगिक संवेदनाएँ हैं। इन संवेदनाओं का सम्बन्ध प्राणियों की कुछ आन्तरिक अंगों की विशिष्ट दशाओं से होता है। आंगिक संवेदनाएँ इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण नहीं की जातीं। आंगिक संवेदनाओं के मुख्य उदाहरण हैं – खुजली अथवा पीड़ा, बेचैनी, वेदना, पुलकित होना तथा भूख एवं प्यास। आंगिक संवेदनाओं के तीन वर्ग या प्रकार निर्धारित किये गये, जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है –
(अ) निश्चित स्थानवाली आंगिक संवेदनाएँ-जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रकार की आंगिक संवेदनाओं का शरीर में निश्चित स्थान होता है अर्थात् व्यक्ति या जीव यह स्पष्ट रूप से जान लेता है कि संवेदना शरीर के किस अंग या भाग से सम्बन्धित है। उदाहरण के लिए—खुजली अथवा दर्द की संवेदना निश्चित स्थाने वाली आंगिक संवेदना होती है।
(ब) अनिश्चित स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ—इस वर्ग में उन आंगिक संवेदनाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी उत्तेजना का स्थान शरीर में स्पष्ट रूप से जाना नहीं जा सकता। इस प्रकार की मुख्य संवेदनाएँ हैं-बेचैनी, वेदना तथा आनन्दित अथवा पुलकित होने की संवेदनाएँ।
(स) अस्पष्ट स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ-तीसरे वर्ग या प्रकार की संवेदनाओं को अस्पष्ट स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ कहा जाता है। इस प्रकार की आंगिक संवेदनाओं के स्थान को शरीर में स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता। भूख तथा प्यास की संवेदनाएँ इसी प्रकार की आंगिक संवेदनाएँ हैं।
प्रश्न 3.
विशेष संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्राणियों द्वारा अपनी इन्द्रियों के माध्यम से जिन संवेदनाओं को ग्रहण किया जाता है, उन संवेदनाओं को विशेष संवेदनाएँ कहा जाता है। विशेष संवेदनाओं का सम्बन्ध बाहरी विषय-वस्तुओं से होता है अर्थात् इन संवेदनाओं की उत्पत्ति बाहरी विषय-वस्तुओं से होती है। हम कह सकते हैं कि बाहरी विषय-वस्तुओं से उत्पन्न होने वाली उत्तेजनाओं के प्रति होने वाली अनुक्रिया को विशेष । संवेदनाएँ कह सकते हैं। हम जानते हैं कि बाहरी विषय असंख्य हैं; अत: उनसे सम्बन्धित विशेष संवेदनाएँ भी असंख्य हैं। विशेष संवेदनाएँ विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं; अतः पाँच इन्द्रियों से सम्बन्धित संवेदनाओं को ही पाँच प्रकार की विशेष संवेदनाओं के रूप में वर्णित किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं –
(अ) दृष्टि संवेदेनाएँ – आँखों अथवा नेत्रों के माध्यम से ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को दृष्टि संवेदनाएँ कहा जाता है। इस प्रकार की संवेदनाओं के लिए जहाँ एक ओर बाहरी जगत की वस्तुएँ आवश्यक हैं, वहीं साथ-ही-साथ प्रकाश का होना भी एक अनिवार्य कारक है।
(ब) घ्राण संवेदनाएँ – नाक से ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को घ्राण संवेदनाएँ कहते हैं। इस वर्ग की संवेदनाओं के विभिन्न प्रकार की गन्ध ही उत्तेजना की भूमिका निभाती है। सामान्य रूप से दो प्रकार की गन्ध मानी जाती है अर्थात् सुगन्ध तथा दुर्गन्ध।
(स) श्रवण संवेदनाएँ – उन विशेष संवेदनाओं को श्रवण संवेदनाएँ माना जाता है, जो कानों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं। इस वर्ग की संवेदनाओं को हम ध्वनि तरंगों के माध्यम से ग्रहण करते हैं।
(द) स्पर्श संवेदनाएँ – त्वचा द्वारा ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को स्पर्श संवेदनाएँ कहते हैं। स्पर्श संवेदनाओं का क्षेत्र काफी व्यापक है तथा हम विभिन प्रकार का ज्ञान इन्हीं संवेदनाओं के माध्यम से प्राप्त करते हैं। सामान्य रूप से स्पर्श संवेदनाओं के माध्यम से हम कोमलता एवं कठोरता, छोटे-बड़े एवं ऊँचे तथा गर्म एवं ठण्डे का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
(य) स्वाद संवेदनाएँ – जीभ द्वारा ग्रहण की जाने वाली विशेष संवेदनाओं को हम स्वाद संवेदनाएँ कहते हैं। इन संवेदनाओं के लिए विभिन्न वस्तुओं के अलग-अलग स्वाद ही उत्तेजना होते हैं। जीभ के भिन्न-भिन्न भागों से भिन्न-भिन्न स्वादों की जानकारी प्राप्त होती है।
प्रश्न 4.
गति संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उतर :
गति से सम्बन्धित संवेदनाओं को गति संवेदना के नाम से जाना जाता है। सामान्य रूप से शरीर के जोड़ों, कण्डराओं तथा मांसपेशियों के माध्यम से गति संवेदनाओं को ग्रहण किया जाता है। गति संवेदनाओं के मुख्य उदाहरण हैं-खिंचाव, तनाव तथा सिकुड़न। गति संवेदनाओं की अनुभूति जहाँ एक ओर शरीर की विभिन्न मांसपेशियों के तथा स्नायु तन्तुओं द्वारा होती है, वहीं दूसरी ओर पूरी त्वचा का भी गति संवेदनाओं से सम्बन्ध होता है। ये संवेदनाएँ अग्रलिखित तीन प्रकार की होती हैं –
(अ) स्थिति से सम्बन्धित गति संवेदनाएँ – प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि यश-कदा बैठे-बैठे ही व्यक्ति की भुजाओं या जंघाओं की मांसपेशियों में एक विशेष प्रकार की कम्पन्न या गति होने लगती है। इस गति के लिए न तो अंगों को हिलाया जाता है और न ही फैलाया जाता है। इस प्रकार की संवेदनाओं को स्थिति से सम्बन्धित गति संवेदनाएँ कहते हैं।
(ब) स्वच्छन्द गति संवेदनाएँ – गति संवेदनाओं का एक प्रकार या रूप है–स्वच्छन्द गति संवेदनाएँ। इस प्रकार की गति संवेदनाएँ उस समय अनुभव की जाती हैं, जब शरीर के अंगों को मुक्त रूप से इधर-उधर हिलाया जाता है।
(स) प्रतिरुद्ध गति संवेदनाएँ – शरीर के विभिन्न मांसपेशियों के माध्यम से अनुभव की जाने वाली एक प्रकार की गति संवेदनाओं को प्रतिरुद्ध गति संवेदनाएँ कहा जाता है। जब हम किसी वस्तु पर दबाव डालते हैं, या भारी वस्तु को उठाते हैं, तब अनुभव की जाने वाली संवेदना को प्रतिरुद्ध गति संवेदना कहते हैं।
प्रश्न 5.
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में अन्तर
प्रश्न 6.
प्रत्यक्षीकरण पर संवेग का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
संवेग एक भावनात्मक मनोवैज्ञानिक अवस्था है और प्रत्यक्षीकरण किसी उत्तेजक (वस्तु, घटना या व्यक्ति) का बाद का ज्ञान है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकानेक संवेगों की अनवरत अनुभूति करती है; जैसे-क्रोध, भय, प्रेम, घृणा, शोक, हर्ष तथा आश्चर्य इत्यादि की अनुभूतियाँ। संवेग मनुष्य के व्यवहार से सम्बन्धित एक जटिल अवस्था है जो मनुष्य के विभिन्न मनोवैज्ञानिक अवयवों को प्रभावित करती है। संवेग का प्रत्यक्षीकरण पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट संवेग की अवस्था में है तो वह अपने सम्मुख उपस्थित उत्तेजक अर्थात् वस्तु, घटना या व्यक्ति को यथार्थ एवं सही-सही प्रत्यक्षीकरण नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक शोक संतप्त है तो ऐसी संवेगावस्था में वह शुभ विवाह की मधुर शहनाई का भी कर्कश एवं पीड़ादायक संगीत के रूप में प्रत्यक्षीकरण करेगा। भले ही क्रोधित व्यक्ति के सामने दुनिया के स्वादिष्टतम व्यंजन परोस दिये जाएँ उसे तो वे स्वादहीन ही अनुभव होंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि समस्त शक्तिशाली संवेग यथार्थ प्रत्यक्षीकरण के प्रति विपरीत कारक समझे जायेंगे और जितनी ही प्रबल संवेगावस्था होगी उतना ही गलत प्रत्यक्षीकरण भी हो सकता है। वस्तुत: सही प्रत्यक्षीकरण के लिए संवेगमुक्त एवं तटस्थ मानसिक दशा एक पहली शर्त है। मोटे तौर पर, जिस रंग का चश्मा व्यक्ति लगायेगा सामने की वस्तु भी उसी के अनुसार दिखाई देगी। संवेगावस्था तो एक रंगीन चश्मा है और प्रत्यक्षीकरण दीख पड़ने वाली वस्तु। स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण के लिए व्यक्ति की भावनाएँ किसी संवेग से रँगी न हों, अन्यथा संवेग प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकेगा।
प्रश्न 7.
भ्रम (विपर्यय) तथा विभ्रम में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भ्रम (विपर्यय) तथा विभ्रम में अन्तर
प्रश्न 8.
रंग-प्रत्यक्षीकरण से क्या आशय है?
उत्तर :
रंगों के प्रत्यक्षीकरण से आशय है–सम्बन्धित विषय-वस्तु के रंग को देखना एवं पहचानना। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत रंगों के अन्तर का भी ज्ञान प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु के रंग का निर्धारण उससे निगमित ‘प्रकाश-तरंगों द्वारा होता है अर्थात् रंग-प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में प्रकाश-तरंगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वास्तव में, रंग अपने आप में कोई स्वतन्त्र या अलग। विषय-वस्तु नहीं है, जिसका हम प्रत्यक्षीकरण करते हैं बल्कि रंग का निर्धारण विषय-वस्तु से निकलने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई से होता है। भिन्न-भिन्न वस्तुओं से निकलने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है तथा इसी लम्बाई से ही वस्तु के रंग के स्वरूप का निर्धारण होता है। समस्त प्रकार की तरंगें प्रकाश के किसी मूल स्रोत से सम्बन्धित होती हैं। हमारे विश्व में प्रकाश का मुख्यतम एवं सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है। इसके अतिरिक्त चाँद एवं तारे भी प्रकाश के प्राकृतिक स्रोत हैं। कृत्रिम स्रोतों में दीपक की लौ तथा विद्युत बल्ब को भी प्रकाश का स्रोत माना जा सकता है। हम जानते हैं कि जब विद्युत-धारा बल्ब के तार में प्रवाहित होती है तो वह प्रकाश में परिवर्तित हो जाती है। प्रकाश ही वह एकमात्र कारक है, जिसके माध्यम से हम बाहरी वस्तुओं को देखते हैं। बाहरी वस्तुओं को दिखाने वाला प्रकाश हमारी आँखों तक मुख्य रूप से दो प्रकार से पहुँचता है। अपने प्रथम रूप में प्रकाश की किरणें या तरंगें सीधे ही हमारी आँखों तक पहुँचती हैं। दूसरे रूप में प्रकाश की किरणें पहले किसी वस्तु पर पड़ती हैं तथा इसके उपरान्त उस वस्तु से परावर्तित होकर हमारी आँखें पर पड़ती हैं। भौतिक विज्ञान के अध्ययनों द्वारा ज्ञात हो चुका है कि प्रकाश की तरंगों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है। जहाँ तक हमारी आँखों की प्रकृति का प्रश्न है तो यह सत्य है कि हमारी आँखें 4000 से 7800 8 तक की तरंग दैर्घ्य (1 ऍग्स्ट्रम = 10-10 मीटर) वाली प्रकाश-तरंगों को ही ग्रहण कर सकती हैं। हमारी आँखें इससे अधिक लम्बाई वाली तरंगों को सामान्य रूप से ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखती। इसका कारण यह है कि एक सीमा से अधिक लम्बाई वाली प्रकाश-तरंगें प्रकाश के स्थान पर ताप की संवेदना देने लगती हैं। कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जिन पर किसी स्रोत से प्रकाश पड़ने पर वे हमें दिखाई देती हैं तथा उनके प्रभाव से अन्य वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। इन वस्तुओं को प्रकाशमान वस्तुएँ कहा जाता है। वास्तव में ये वस्तुएँ प्रकाश का परावर्तन करती हैं। इससे भिन्न कुछ वस्तुएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें न तो अपना प्रकाश होता है और न ही वे प्रकाश का परावर्तन ही कर पाती हैं। इन वस्तुओं को प्रकाशहीन वस्तुएँ कहा जाता है। इस प्रकार की वस्तुएँ हर प्रकार के बाहरी प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं। प्रकाश की तरंगों एवं विभिन्न वस्तुओं के गुणों का उल्लेख करने के उपरान्त हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु के रंग का निर्धारण एवं प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धित वस्तु से परावर्तित होने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई के आधार पर होता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
टिप्पणी लिखिए-संवेदना व प्रत्यक्षीकरण।
उत्तर :
संवेदना (Sensation) तथा प्रत्यक्षीकरण (Perception) में घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इन दोनों का अध्ययन साथ-साथ ही किया जाता है। संवेदना में प्राणी वस्तु का सिर्फ प्रथम ज्ञान ही अनुभव करता है, वस्तु का वास्तविक अर्थ वह नहीं समझ पाता। कोई व्यक्ति हरे-पीले रंग की गोल वस्तु देखता है, यह छूने में चिकनी और दबाने में रसदार है, सँघने पर उसकी विशेष गन्ध तथा जीभ द्वारा चखने पर तीव्र खट्टे स्वाद की संवेदना होती है। दृष्टि, स्पर्श, घ्राण एवं स्वाद की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों की अलग-अलग संवेदनाओं से उस वस्तु का सही अर्थ पता नहीं चलता। इसके लिए इन सभी संवेदनाओं को मिलाकर समन्वित तथा समष्टि रूप में देखा जायेगा तथा सभी संवेदनाओं के अर्थ की व्याख्या करनी होगी। इस व्याख्या में संवेदनाओं के साथ प्रत्यभिज्ञा (सदृश वस्तु देखकर किसी पहले देखी हुई वस्तु का स्मरण) का योगदान रहने से वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। यह प्रत्यक्षीकरण वर्तमान में घटने वाली घटना, किसी प्राणी अथवा किसी वस्तु का होता है।
प्रश्न 2.
प्रत्यक्षीकरण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –
- प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
- इसके द्वारा हमें सम्पूर्ण स्थिति का ज्ञान होता है। हम किसी वस्तु या घटना को उसके अलग-अलग अंगों के रूप में नहीं वरन् सम्पूर्ण रूप में देखते हैं।
- प्रत्यक्षीकरण में सबसे पहले वस्तु या उत्तेजक उपस्थित होता है।
- यह उसैजक ज्ञानेन्द्रियों या संग्राहकों को प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप ज्ञानवाही स्नायुओं का प्रवाह शुरू होता है।
- यह स्नायु प्रवाह मस्तिष्क केन्द्र तक पहुँचता है और उत्तेजक की संबेदना अनुभव की जाती है।
- अब इस संवेदना में पूर्ण संवेदना के आधार पर अर्थ जोड़कर व्याख्या की जाती है और इस भॉति प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।
- प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से हम अपने चारों ओर की वस्तुओं में से उस वस्तु का चयन कर लेते हैं जिसका हमसे सम्बन्ध है स्वभावतः उसी की ओर हमारा ध्यान भी हो जाता है।
- प्रत्यक्षीकरण का आधार परिवर्तन है क्योंकि परिवर्तन की वजह से ही प्रत्यक्षीकरण होता है। हमारे चारों ओर उपस्थित विभिन्न वस्तुओं में से उस वस्तु का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र होगा जो परिवर्तित हो रही है।
- प्रत्यक्षीकरण में संगठन की विशेषता पायी जाती है, और अन्ततः
- प्रत्यक्षीकरण में संवेदनात्मक पूर्व ज्ञान का अधिक समावेश रहता है।
प्रश्न 3.
व्यक्तिगत तथा सामान्य भ्रमों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को भ्रम या विभ्रम कहते हैं। भ्रम दो प्रकार के होते हैं—व्यक्तिगत भ्रम तथा सामान्य भ्रम। इन दोनों प्रकार के भ्रमों में कुछ मौलिक अन्तर होते हैं। व्यक्तिगत भ्रमों का स्वरूप भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न होता है। उदाहरण के लिए कम प्रकाश में किसी व्यक्ति द्वारा रस्सी को साँप समझ बैठना एक व्यक्तिगत भ्रम है। हो सकता है कि इसी परिस्थिति में कोई अन्य व्यक्ति भ्रमित न हों तथा रस्सी को रस्सी ही समझे। इससे भिन्न सामान्य भ्रम सार्वभौमिक होते हैं, अर्थात् इस प्रकार के भ्रमों की स्वरूप सभी व्यक्तियों के लिए एकसमान ही होता है। उदाहरण के लिए पानी में पड़ी छड़ टेढ़ी दिखाई देती है। यह एक सामान्य भ्रम है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए एकसमान होता है।
प्रश्न 4.
विभ्रम में संवेगों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सामान्यजनों में विभ्रम की उत्पत्ति संवेगों की प्रबलता के कारण होती है। कोई शक्तिशाली भय का संवेग हमारे अन्दर विभ्रम उत्पन्न कर सकता है; जैसे-श्मशान या कब्रिस्तान के मार्ग से गुजरते हुए हमें प्रेत या जिन्न को विभ्रम हो सकता है। संवेगावस्था में अयथार्थ तथा आत्मनिष्ठ प्रत्यक्षीकरण होता है और इस कारण विभ्रम उत्पन्न हो सकता है। इसके अतिरिक्त संवेग की दशा में आन्तरिक उद्दीपन होते हैं तथा अनायास ही शारीरिक परिवर्तन आते हैं जिनके कारण व्यक्तियों में विभ्रम की सम्भावना रहती है। संवेग की दशा में सामान्य कार्य-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं तथा व्यक्ति का जीवन असन्तुलित हो जाता है जिसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभ्रम असामान्य व्यवहार द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। कभी-कभी यह असामान्यता पागलपन की दशा में बदल जाती है; अतः इसे दूर करने के लिए तत्काल उपाय वांछित हैं।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए। –
- किसी बाहरी विषय-वस्तु से प्राप्त होने वाली उत्तेजना के प्रति व्यक्ति द्वारा की जाने वाली अनुक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में …………………. कहते हैं।
- उद्दीपक द्वारा …………………. घटित होती है।
- संवेदना किसी उद्दीपक का प्रथम प्रत्युत्तर है और …………………. प्राणी की संवेदना के पश्चात् का द्वितीय प्रत्युत्तर है जो संवेदना से ही सम्बन्धित होता है।
- बाहरी विषय-वस्तुओं का इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही …………………. है।
- जब किसी संवेदना को अर्थ प्रदान कर दिया जाता है तब उसे …………………. कहते हैं।
- संवेदना को …………………. की कच्ची सामग्री माना जाता है।
- प्रत्यक्षीकरण एक …………………. मानसिक प्रक्रिया है, जब कि संवेदना एक सरल मानसिक प्रक्रिया है।
- प्रत्यक्षीकरण में समग्रता पर बल देने वाले मत को …………………. कहते हैं।
- वस्तुओं को समग्र रूप में देखने की प्रवृत्ति …………………. कहलाती है।
- जब समीप स्थित उद्दीपक नये रूप में संगठित हो जाए तो इसे प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन का …………………. नियम कहते हैं।
- संवेगावस्था में प्रत्यक्षीकरण पर …………………. प्रभाव पड़ता है।
- मानसिक तत्परता का प्रत्यक्षीकरण पर …………………. प्रभाव पड़ता है।
- त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को …………………. कहते हैं।
- बिना किसी उद्दीपक के ही प्रत्यक्षीकरण होना …………………. कहलाता है।
- भ्रम एक गलत प्रत्यक्षीकरण है तथा विभ्रम …………………. ।
- किसी भी वस्तु के रंग का निर्धारण उससे निगमित …………………. द्वारा होता है।
- मानसिक रोगी प्रायः …………………. के शिकार हो जाते हैं।
उत्तर :
- संवेदना
- संवेदना
- प्रत्यक्षीकरण
- प्रत्यक्षीकरण
- प्रत्यक्षीकरण
- प्रत्यक्षीकरण
- जटिल
- गेस्टाल्टवाद
- समग्रता
- समीपता का
- प्रतिकूल
- अनुकूल
- भ्रम या विपर्यय
- विभम
- निराधार प्रत्यक्षीकरण
- प्रकाश तरंगों
- विमा
प्रश्न II.
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
संवेदना का अर्थ एक वाक्य में लिखिए।
उत्तर :
किसी बाहरी विषय-वस्तु से प्राप्त होने वाली उत्तेजना के प्रति व्यक्ति द्वारा की जाने वाली अनुक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में संवेदना कहते हैं।
प्रश्न 2.
संवेदनाओं को ग्रहण करने वाले शरीर के अंगों को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
संवेदनाओं को ग्रहण करने वाले शरीर के अंगों को ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं।
प्रश्न 3.
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :
ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं – आँख, नाक, कान, जिल्ला तथा त्वचा।
प्रश्न 4.
संवेदनाओं के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
संवेदनाओं के मुख्य प्रकार हैं-आंगिक संवेदनाएँ, विशेष संवेदनाएँ तथा गति संवेदनाएँ।
प्रश्न 5.
प्रत्यक्षीकरण की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
स्टेगनर के अनुसार, “बाहरी वस्तुओं और घटनाओं की इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण है।”
प्रश्न 6.
कोई ऐसा कथन लिखिए जिससे संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण का सम्बन्ध स्पष्ट होता हो।
उत्तर :
रॉस के अनुसार, “संवेदना को सही अर्थ प्रदान करना ही प्रत्यक्षीकरण है।”
प्रश्न 7.
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर :
संवेदना किसी विषय-वस्तु का प्रथम अर्थहीन ज्ञान या अनुभूति है, जबकि प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धित विषय-वस्तु का द्वितीयक अर्थपूर्ण ज्ञान है।
प्रश्न 8.
संवेगों का प्रत्यक्षीकरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
संवेगावस्था में तटस्थ एवं सही प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता है।
प्रश्न 9.
प्रत्यक्षीकरण के विषय में गैस्टाल्टवाद की क्या मान्यता है?
उत्तर :
गैस्टाल्टवाद के अनुसार, किसी विषय-वस्तु का प्रत्यक्षीकरण पहले संश्लेषणात्मक विधि द्वारा होता है तथा बाद में उसका प्रत्यक्षीकरण विश्लेषणात्मक ढंग से होता है।
प्रश्न 10.
प्रत्यक्षीकरण के समग्रता के नियम से क्या आशय है?
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण के समग्रता के नियम के अनुसार प्रत्यक्षीकरण में किसी वस्तु के विभिन्न अंगों को अलग-अलग प्रत्यक्षीकरण नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण एक साथ होता है।
प्रश्न 11.
भ्रम या विपर्यय से क्या आशय है?
उत्तर :
त्रुटिपूर्ण या गलत प्रत्यक्षीकरण को भ्रम या विपर्यय कहते हैं; जैसे-रस्सी को साँप समझ लेना अथवा साँप को रस्सी समझ लेना।
प्रश्न 12.
भ्रम कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
भ्रम दो प्रकार के होते हैं –
- व्यक्तिगत भ्रम तथा
- सामान्य भ्रम।
प्रश्न 13.
विभ्रम (Hallucination) से क्या आशय है?
उत्तर :
यथार्थ विषय-वस्तु के नितान्त अभाव में होने वाले निराधार प्रत्यक्षीकरण को विभ्रम कहते हैं।
प्रश्न 14.
सामान्य रूप से किस वर्ग के व्यक्ति विभ्रम के अधिक शिकार होते हैं?
उत्तर :
सामान्य रूप से मानसिक रोगी विभ्रम के अधिक शिकार होते हैं।
प्रश्न 15.
भ्रम तथा विभ्रम में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर :
भ्रंम एक गलत या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण होता है, जबकि विभ्रम एक निराधार प्रत्यक्षीकरण होता है।
प्रश्न 16.
रंगों का प्रत्यक्षीकरण किसके माध्यम से होता है?
उत्तर :
रंगों का प्रत्यक्षीकरण प्रकाश की तरंगों के माध्यम से होता है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
प्राणी में अनुक्रिया प्रारम्भ करने के लिए क्या आवश्यक है?
(क) उद्दीपक
(ख) संवेग
(ग) रुचि
(घ) वातावरण
प्रश्न 2.
किसी बाहरी विषय-वस्तु की प्रथम अनुभूति को कहते हैं –
(क) प्रत्यक्षीकरण
(ख) प्रतिमा
(ग) संवेदना
(घ) कल्पना
प्रश्न 3.
किसी बाहरी विषय-वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं
(क) संवेदना
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) स्मरण
(घ) संज्ञान
प्रश्न 4.
“संवेदना का सही अर्थ निकालना ही प्रत्यक्षीकरण है।” यह कथन किसका है?
(क) मैक्डूगल
(ख) वुडवर्थ
(ग) रॉस
(घ) बोरिंग
प्रश्न 5.
प्रत्यक्षीकरण विभिन्न इन्द्रियों की सहायता से पदार्थ अथवा उनके आधारों का ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है।” यह परिभाषा किसके द्वारा प्रतिपादित है?
(क) वुडवर्थ
(ख) स्टेगनर
(ग) कालिन्स एवं ड्रेवर
(घ) विलियम जेम्स
प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन का नियम नहीं है?
(क) समीपता
(ख) समानता
(ग) अन्तर्मुखता
(घ) निरन्तरता
प्रश्न 7.
जर्मनी में व्यवहारवाद के विरुद्ध प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से मानव स्वभाव को समझने के लिए जिस विचारधारा का जन्म हुआ, उसका नाम है –
(क) साहचर्यवाद
(ख) मनोविश्लेषणवाद
(ग) प्रयोजनवाद
(घ) गैस्टाल्टवाद
प्रश्न 8.
सेट प्रत्यक्षीकरण पर सकारात्मक प्रभाव डालता है, जब वह –
(क) एक हो
(ख) दो हो।
(ग) दो से अधिक हो
(घ) अनगिनत हो
प्रश्न 9.
किसी ‘आकृति के प्रत्यक्षीकरण के लिए क्या आवश्यक है?
(क) अधिगम
(ख) पृष्ठभूमि
(ग) चिन्तन
(घ) कल्पना
प्रश्न 10.
जब हम कोई ऐसी आकृति देखते हैं जिसका कोई अंग अपूर्ण है, परन्तु हम उस अपूर्णता की ओर ध्यान नहीं देते तथा आकृति का प्रत्यक्षीकरण पूर्ण रूप में ही करते हैं। ऐसा प्रत्यक्षीकरण के किस नियम के अनुसार होता है?
(क) निरन्तरता का नियम
(ख) आच्छादन का नियम
(ग) समीपता का नियम
(घ) सम्बद्धता का नियम
प्रश्न 11.
किसी भी संवेदना के गलत अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया को कहते हैं –
(क) संवेग
(ख) चिन्तन
(ग) भ्रम
(घ) विभ्रम
प्रश्न 12.
मन्द प्रकाश में आँगन के कोने में साँप को देखकर रस्सी समझ लेना क्या है?
(क) विभ्रम
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 13.
मन्द प्रकाश में गोल आकृति में रखी हुई रस्सी समझ लेना है –
(क) विभ्रम
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 14.
किसी बाहरी विषय-वस्तु के अस्तित्व के नितान्त अभाव की स्थिति में होने वाले प्रत्यक्षीकरणको कहते हैं –
(क) विशेष प्रत्यक्षीकरण
(ख) शुद्ध प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण
(घ) विभ्रम
प्रश्न 15.
निम्नलिखित में से किसमें उद्दीपक अनुपस्थित रहता है?
(क) संवेदना
(ख) विभ्रम
(ग) भ्रम
(घ) प्रत्यक्षीकरण
प्रश्न 16.
प्रबल संवेगावस्था में प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया
(क) सर्वोत्तम होती है।
(ख) दोषपूर्ण होती है।
(ग) यथार्थ होती है
(घ) सम्पन्न हो ही नहीं सकती
उत्तर :
- (क) उद्दीपक
- (ग) संवेदना
- (ख) प्रत्यक्षीकरण
- (ग) रॉस
- (क) वुडवर्थ
- (ग) अन्तर्मुखता,
- (घ) गैस्टाल्टवाद
- (ग) दो से अधिक हो
- (ख) पृष्ठभूमि
- (ख) औच्छिादन का नियम
- (ग) अम
- (ग) भ्रम
- (ग) प्रम
- (घ) विषम
- (ख) विश्रम
- (ख) दोषपूर्ण होती है।
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