UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 10 मानवीय संसाधन : व्यवसाय (अनुभाग – तीन)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक व्यवसाय से आप क्या समझते हैं ? किन्हीं दो प्राथमिक व्यवसायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
प्राथमिक व्यवसाय भोजन-प्राप्ति तथा पृथ्वी पर जीवित रहने के लिए मनुष्य किसी-न-किसी रूप में कोई-न-कोई कार्य अवश्य करता है। सामान्य जन्तुओं को अपने भोजन के लिए स्वयं इधर-उधर घूमना पड़ता है तथा बड़े जन्तुओं को अपने भोजन की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होती है। मनुष्य की स्थिति अन्य जन्तुओं से भिन्न है। मनुष्य ने श्रम-विभाजन किया है, जिससे सभी लोग केवल खाद्य पदार्थों के उत्पादन में ही न लगे रहे। इस व्यवस्था में कुछ लोग तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में लग जाते हैं और कुछ लोगों को समाज की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई अन्य काम-धन्धे करते हैं। इस प्रकार के व्यवसाय को प्राथमिक व्यवसाय कहते हैं। प्राथमिक व्यवसाय के अन्तर्गत आखेट, पशुपालन, मत्स्यपालन, कृषि तथा खनन कार्य की गणना की जाती है
1. आखेट एवं संग्रहण – समाज का सबसे आरम्भिक रूप आखेट अवस्था का था। इस युग में लोग छोटे-छोटे समूहों में अलग-अलग रहते और शिकार करते थे। जब मानव को जंगली जानवरों से भय हुआ तो उसने उन्हें मारना शुरू कर दिया और उनका शिकार करके अपना पेट भरना भी सीख लिया। इस प्रकार आखेट मानव का सबसे प्राचीन व्यवसाय बन गया। पृथ्वी पर अभी भी कुछ प्रदेशों के लोग। सादा जीवन बिताते हैं। ऐसे लोग पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर करते हैं। वे खाद्य पदार्थों की खोज में इधर-उधर घूमते रहते हैं। पशु-पक्षियों के आखेट तथा झीलों और नदियों से मछली पकड़ कर ये लोग संग्रहण से प्राप्त अपने भोजन की कमी को ही पूरा नहीं करते, वरन् इनसे उन्हें अतिरिक्त पौष्टिकता भी मिलती है। ये लोग शिकार के लिए साधारण हथियार; जैसे-भाले, धनुष-बाण, जाल आदि का प्रयोग करते हैं। अफ्रीका के पिग्मी तथा मलेशिया के सेमांग लोग उष्ण कटिबन्धीय वनों में रहते हैं। अफ्रीका के ही बुशमैन और ऑस्ट्रेलिया के आदिम लोग उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थल में रहते हैं एवं इनुइट तथा लैप्स उत्तर-ध्रुवीय प्रदेशों में रहते हैं। भारत में अब आखेट का महत्त्व अत्यधिक कम हो चुका है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, असोम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा तथा दक्षिण भारत की आदिम जनजातियाँ आखेट द्वारा ही अपना जीवन-यापन करती हैं। वन्य-जीवों की संख्या लगातार कम होते रहने के कारण सरकार ने वन्य-जीवों के आखेट पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण के कारण यह व्यवसाय लुप्तप्राय ही हो चुका है।

2. पशुपालन – भारत में पशुपालन व्यवसाय कृषि के पूरक रूप में किया जाता है। यह पाश्चात्य देशों के वाणिज्यिक पशुपालन से सर्वथा भिन्न है। देश की दो-तिहाई कृषक जनसंख्या अपने जीविकोपार्जन के लिए गाय, बैल, भैंस आदि पालती है, जो उनके कृषि-कार्य में भी सहायक होते हैं। कुछ आदिवासी वर्ग भी पशुपालन द्वारा आजीविका प्राप्त करते हैं। पशुपालन पर आधारित प्रमुख उद्योग दुग्ध उत्पादन या डेयरी उद्योग है। वैसे तो हमारे देश में गायों तथा भैंसों से दुग्ध उत्पादन विदेशों की तुलना में अल्प ही है, किन्तु देश में इनकी संख्या अधिक होने के कारण भारत 1999-2000 ई० में विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन सका। वर्ष 2000-01 के दौरान 81 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 3 मिलियन टन अधिक था। पशुधन से देश में 9.8 मिलियन लोगों तथा सहायक क्षेत्र में 8.6 मिलियन लोगों को नियमित रोजगार मिलता है। यहाँ राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अनुसार पिछले ढाई दशक में दुग्ध उत्पादन में तीन गुना वृद्धि हुई है। इस बोर्ड द्वारा उठाये गये कदमों अर्थात् ‘श्वेत क्रान्ति’ या ‘ऑपरेशन फ्लड’ द्वारा यह सम्भव हो पाया है। देश में इस समय 7 करोड़ दुग्ध उत्पादक हैं। दूध उत्पादन में भैंसों का सर्वाधिक योगदान है। भारत में विश्व की 57% भैंसें तथा 16% गायें हैं।

प्रश्न 2.
खनन व्यवसाय क्या है ? भारतीय खनन व्यवसाय की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
खनन व्यवसाय में लगे प्रमुख राज्यों का वर्णन कीजिए। खनन व्यवसाय में किये जाने वाले सुधारों के लिए उपाय लिखिए।
उत्तर :
खनन व्यवसाय धरती को खोदकर खनिज पदार्थों को निकालना ही खनन कहलाता है। भारत में भारी मात्रा में खनिज; जैसे-लोहा, मैंगनीज, अभ्रक, ताँबा, कोयला आदि खानों में से निकाले जाते हैं। वर्तमान समय में खनन प्राथमिक व्यवसाय न रहकर एक गौण व्यवसाय बन गया है। वर्तमान समय में इस खनन कार्य में बहुत अधिक लोग लगे हुए हैं। विशेषताएँ

1. भारत खनिजों के मामले में एक भाग्यशाली देश है, परन्तु यहाँ खनन कार्य में आधुनिक तकनीक का प्रयोग बहुत ही कम किया जाता है। देश में 3,600 खदानों में से मात्र 880 खदानें ही यन्त्रीकृत हैं, जो देश के 85% खनिजों का उत्पादन करती हैं। शेष 2,720 खदानों से केवल 15% खनिज उत्पादन होता है।
2. भारत का अधिकांश खनन व्यवसाय व्यक्तिगत क्षेत्र में है, जिसके कारण वह व्यवस्थित नहीं है। इसी कारण भारत सरकार ने अभ्रक व कोयले की खदानों को राष्ट्रीयकरण कर दिया है।

3. भारत के अधिकांश खनिज छोटा नागपुर का पठार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश में पाये जाते हैं। कुछ राज्य खनिज प्राप्ति में शून्य हैं तथा कुछ राज्यों-ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, असोम, कर्नाटक, गोआ आदि में विविध प्रकार के खनिज पदार्थ मिलते हैं।
4. भारत में हिमालय क्षेत्र में विभिन्न खनिजों के विशाल भण्डार हैं। भारत में बॉम्बे-हाई से खनिज तेल प्राप्त किया जाता है। यहाँ अनेक क्षेत्रों में खनिजों के अन्वेषण का काम भी चल रहा है।
5. भारत में लौह-अयस्क, मैंगनीज व अभ्रक के विशाल भण्डार हैं। भारत इन खनिजों का निर्यात करता है।

खनन व्यवसाय में लगे प्रमुख राज्य
दक्षिण भारत का पठार भारत के खनिज पदार्थों का मुख्य स्रोत है। खनन व्यवसायों में लगे राज्यों का विवरण निम्नलिखित है–

1. झारखण्ड – खनन व्यवसाय की दृष्टि से भारत में झारखण्ड का स्थान सर्वोपरि है। अभ्रक व कोयले के उत्पादन में इस राज्य का भारत में प्रथम तथा लोहे व बॉक्साइट के उत्पादन में द्वितीय स्थान है। झारखण्ड में देश की खनिज सम्पत्ति के कुल मूल्य का 33% प्राप्त होता है।
2. पश्चिम बंगाल – यहाँ लोहे, कोयले, अभ्रक, चूने का पत्थर, मैंगनीज आदि खनिजों के विशाल भण्डार हैं। देश की खनिज सम्पत्ति के कुल मूल्य का 16% भाग यहाँ से प्राप्त होता है।
3. अन्य राज्य – मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ से देश को खनिज-सम्पदा के मूल्य का 14%, ओडिशा से 8% तथा आन्ध्र प्रदेश से 6% प्राप्त होता है। शेष 23% भाग महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व असोम राज्यों से प्राप्त होता है।

सुधार के उपाय
भारत में खनिज सम्पत्ति के समुचित रूप से उपयोग व दोहन के लिए आवश्यक है कि खनन व्यवसाय का पिछड़ापन दूर करके उसको उन्नत बनाया जाए। भारत के खनन व्यवसाय में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए

  • भारत में अधिक-से-अधिक खानों को यन्त्रीकृत किया जाना चाहिए, जिससे खनिजों का उत्पादन बढ़ जाए।
  • कोयले व अभ्रक की खानों के समान अन्य महत्त्वपूर्ण खनिज पदार्थों की खानों का भी राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए।
  • खानों को खोदने का कार्य व्यवस्थित ढंग से किया जाना चाहिए।
  • खनिज पदार्थों के उपयोग को बढ़ाने के लिए यातायात का विकास किया जाना चाहिए।
  • खनिज पदार्थों को खोदने वे खानों से निकालने में नयी विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए जिससे खनिजों का अपव्यय न हो।
  • खनिजों का आवश्यकता से अधिक उत्पादन भी नहीं करना चाहिए और अयस्कों को खुले स्थानों पर एकत्र भी नहीं करना चाहिए। इससे उनकी गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
मत्स्य व्यवसाय के प्रमुख क्षेत्र कहाँ-कहाँ हैं ? इनका विवरण दीजिए।
या
भारत में मत्स्य व्यवसाय की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
मत्स्य-पालन भारत के प्रमुख प्राथमिक व्यवसायों में से एक है। देश के पास 20 लाख वर्ग किमी का विस्तृत मत्स्य संग्रह क्षेत्र है, जिससे बड़ी मात्रा में मछलियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। भारत के पास विशाल जलमग्न तट, सक्रिय समुद्री धाराएँ तथा विशाल नदियाँ हैं, जो समुद्र में मछलियों को भोज्य सामग्री पहुँचाती हैं। इन अनुकूल प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण भारत में मत्स्य-व्यवसाय का भविष्य उज्ज्वल है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 60 लाख लोग मात्स्यिकी क्षेत्र के रोजगार में लगे हुए हैं।

भारत में दो प्रकार के मत्स्य संसाधन उपलब्ध हैं—आन्तरिक या ताजा मत्स्य क्षेत्र (यमुना, शारदा, गंगा आदि नदियाँ, झीलें व तालाब) तथा सागरीय मत्स्य क्षेत्र। वर्ष 1950-51 से 2000-01 की अवधि में आन्तरिक मत्स्य क्षेत्र में चौदह गुना वृद्धि हुई है, जब कि सागरीय मत्स्य क्षेत्र में पाँच गुना। मत्स्य व्यवसाय ने लोगों को रोजगार के अवसर तथा आय के साधन उपलब्ध कराये हैं। वर्ष 2003-04 में देश को मछलियों के निर्यात से १ 5,739 करोड़ की विदेशी मुद्रा भी प्राप्त हुई। वर्तमान में विश्व के मत्स्य उत्पादक देशों में भारत का चौथा स्थान है। केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख मत्स्योत्पादक राज्य हैं। भारत में मत्स्य व्यवसाय भी अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, जिन्हें दूर करने के लिए भारत सरकार अनेक उपाय कर रही है। इन उपायों में मछुआरों को आर्थिक तथा वित्तीय सहायता, विशाल मत्स्य नौकाओं की व्यवस्था, मछलियों के संग्रह हेतु शीतगृहों की सुविधाएँ आदि प्रमुख हैं।

सरकार समय-समय पर पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा मत्स्य उद्योग को प्रोत्साहन देती रही है। पिछले कुछ वर्षों में मछली उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। मछली उद्योग के वैज्ञानिक विकास तथा अनुसन्धान के लिए 1961 ई० में बम्बई (अब मुम्बई) में एक केन्द्रीय मछली शिक्षण संस्थान खोला गया तथा समुद्री मछलियों के अध्ययन के लिए एक अनुसन्धानशाला भी स्थापित की गयी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि देश का मछली व्यवसाय धीरे-धीरे विकसित हो रहा है।

प्रश्न 4.
हरित क्रान्ति का वर्णन करते हुए इसको सफल बनाने के लिए उपयुक्त सुझाव दीजिए।
या
हरित क्रान्ति को परिभाषित कीजिए एवं इसके कोई चार तत्त्व लिखिए। [2010]
या

भारत में हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए कोई दो उपाय सुझाइए। [2013]
या

हरित क्रान्ति किसे कहते हैं? [2015]
या

हरित क्रान्ति से आप क्या समझते हैं? भारत में हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए चार सुझाव दीजिए। [2018]
उत्तर :

हरित क्रान्ति

हरित क्रान्ति से आशय कृषि में वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग करके उन्नत एवं प्रमाणित बीज तथा । रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कर, बहुफसली प्रणाली को अपनाकर, सिंचाई साधनों तथा सिंचित क्षेत्रों में वृद्धि कर कृषि उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि करना है। देश के परम्परागत कृषि के तरीकों में सुधार करने के लिए 1958 ई० में ‘इण्डियन सोसायटी ऑफ एग्रोनॉमी’ की स्थापना हुई। इसके प्रयासों से देश में पहली बार 120 लाख टन गेहूं के स्थान पर 170 लाख टन गेहूं पैदा हुआ। पचास लाख टन की इस आकस्मिक वृद्धि को अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक श्री बोरलॉग ने हरित क्रान्ति’ (Green Revolution) की संज्ञा दी। इसके बाद से ही भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने अधिक उपज देने वाली गेहूं की अनेक संकरण प्रजातियाँ विकसित कीं, जिनकी प्रति हेक्टेयर उपज अत्यन्त उत्साहवर्द्धक रही। ऐसी ही स्थिति धान की प्रजातियों की भी रही। इस प्रकार 1960 ई० के बाद देश में हरित क्रान्ति का प्रसार होने लगा और देश खाद्यान्नों के सम्बन्ध में आत्मनिर्भर होने लगा। हरित क्रान्ति के दौरान सरकार ने वर्ष 1964-65 में ‘गहन कृषि कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत विशिष्ट फसलों के उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित किया गया। वर्ष 1966-67 में भयंकर अकाल का सामना करने और कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए अधिक उपज बीज कार्यक्रम चलाया गया। बाद में इस कार्यक्रम में ‘बहुफसली कार्यक्रम’ को भी सम्मिलित कर लिया गया।

हरित क्रान्ति द्वारा देश के कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि की जा सकती है। हरित क्रान्ति के मुख्य घटक या तत्त्व निम्नलिखित हैं

  • अधिक उत्पादन देने वाली फसलों का बोया जाना।
  • रासायनिक उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग करना।
  • कृषि में उन्नत बीजों तथा वैज्ञानिक यन्त्रों-उपकरणों का प्रयोग करना।
  • कृषि शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना।
  • कृषि अनुसन्धानों की व्यवस्था करना।
  • पौध संरक्षण के लिए कीटनाशक, कृमिनाशक तथा खरपतवार नाशकों का अधिकाधिक प्रयोग करना।
  • सघन कृषि जिला कार्यक्रम को अपनाया जाना।
  • सिंचाई सुविधाओं का विस्तार तथा भूमि-सुधार करना।
  • कृषि की नवीन आधुनिक विधियों व तकनीक का प्रयोग करना।
  • फसलों के संग्रह व विक्रय-सुविधाओं में वृद्धि करना।
  • पर्याप्त कृषि-ऋणों की व्यवस्था करना।
  • सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम का प्रारम्भ करना।
  • बहुफसली कार्यक्रम लागू करना।

भारत में हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं|

  • कृषि उत्पादन से सम्बन्धित सरकारी विभागों में उचित समन्वय होना चाहिए।
  • उर्वरक व उत्तम बीजों के वितरण की उचित व्यवस्था होनी चाहिए तथा इनके प्रयोग के बारे में किसानों को उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • कृषि साख की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए तथा भू-क्षरण पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए।
  • कृषि उपज के विपणन की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  • भूमि का गहनतम व अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए।
  • भू-सुधार कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
  • प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार होना चाहिए। .
  • फसल बीमा योजना शीघ्रता एवं व्यापकता से लागू की जानी चाहिए।

प्रश्न 5.
भारतीय कृषि के विकास में प्रयोग की जाने वाली नवीन तकनीकों का उल्लेख कीजिए तथा भारतीय कृषि की भावी सम्भावनाओं पर प्रकाश डालिए [2009]
उत्तर :
भारतीय कृषि में प्रयुक्त नवीन तकनीकी एवं परिवर्तन नि:सन्देह स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय कृषि में अत्यधिक प्रगति हुई है, जिसके निम्नलिखित कारण हैं

  • चकबन्दी कार्य का विस्तार।
  • उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग।
  • रासायनिक उर्वरकों, जैव खादों एवं कीटनाशक दवाओं का प्रयोग।
  • जुताई का वैज्ञानिक स्वरूप एवं सिंचाई साधनों का विस्तार।
  • मृदा परीक्षण की सुविधा तथा कृषि उपजों के भण्डारण की व्यवस्था।
  • कृषि ऋणों की व्यवस्था एवं उपजों का लाभकारी मूल्य।
  • कृषि विकास में विभिन्न संस्थाओं का योगदान तथा नवीन कृषि यन्त्र एवं उपकरणों का प्रयोग।
  • सहकारी कृषि का प्रचलन तथा व्यापारिक उपजों के क्षेत्र में वृद्धि।

उपर्युक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि उद्योग का स्वरूप धारण करती जा रही है। तकनीकी प्रसार के कारण कृषि उत्पादन में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है।

कृषि विकास की भावी सम्भावनाएँ

भोजन मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। कृषक द्वारा इसकी आपूर्ति खाद्यान्न उगाकर पूरी की जा रही है। भारत में वर्ष 1999-2000 में 208.9 मिलियन टन खाद्यान्नों का उत्पादन किया गया था, परन्तु वर्ष 2000-01 में मौसम की अनियमितता एवं अनिश्चितता के कारण इसका उत्पादन लगभग 50 मिलियन टन घट गया। किसी भी देश में खाद्यान्नों की आवश्यक मात्रा का निर्धारण उसकी जनसंख्या के आकार तथा देशवासियों के जीवन-स्तर द्वारा निर्धारित होता है। सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि सन् 2050 तक भारत की जनसंख्या 150 करोड़ हो जाएगी, जिसके भरण-पोषण के लिए 40 करोड़ टन खाद्यान्नों की आवश्यकता होगी। यद्यपि यह लक्ष्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, परन्तु हमारे सीमित आर्थिक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ेगा, जिससे शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं सहित अन्य विकास-कार्यों के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं जुट पाएँगे तथा कृषि के व्यावसायीकरण और औद्योगिक स्वरूप को प्राप्त करने में कठिनाई आएगी, क्योंकि हमें अपनी जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए भूमि का अधिक प्रयोग खाद्यान्न के उत्पादन में ही करना पड़ेगा। इससे हम व्यापारिक फसलों के उत्पादन में भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि नहीं कर सकेंगे। व्यापारिक फसलें हमारे लिए विदेशी मुद्रा के अच्छे स्रोत हैं; अत: भारत की कृषि में विकास की सम्भावनाएँ अच्छी हैं, परन्तु कृषि को औद्योगिक स्वरूप प्रदान करने की सम्भावना अधिक अच्छी नहीं मानी जा सकती। यह तभी सम्भव है जब हम जनसंख्या-वृद्धि पर अंकुश लगाएँ।

प्रश्न 6.
गेहूं की खेती के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए। भारत में इसके वितरण का वर्णन कीजिए।
या
गेहूँ की खेती के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए तथा भारत में इसके उत्पादन क्षेत्र बताइए।
या
भारत में गेहूं की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए-[2009, 12]

  1. अनुकूल भौगोलिक दशाएँ,
  2. उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र,
  3. उत्पादन।

उत्तर :
गेहूँ भारत की प्रमुख उपज तथा महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख खाद्यान्न फसल है। भारत विश्व का 10% गेहूं उत्पन्न कर पाँचवाँ स्थान बनाये हुए है। भारत की कृषि भूमि के 12.4% भाग तथा खाद्यान्न उत्पादन में लगी भूमि के 18.7% भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। ‘हरित क्रान्ति’ ने भारत के गेहूँ उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की है। इस क्षेत्र में भारत अब पूर्णत: आत्मनिर्भर हो चुका है तथा निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। यहाँ गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग 2,750 किग्रा है।
अनुकूल भौगोलिक दशाएँ – गेहूं की उपज के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं

1. जलवायु – 
गेहूं समशीतोष्ण जलवायु की प्रमुख उपज है। इसकी कृषि के लिए निम्नलिखित जलवायु दशाएँ उपयुक्त रहती हैं

  • तापमान – गेहूँ की कृषि के लिए 10° से 25° सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है। इसकी कृषि के लिए मौसम स्वच्छ होना चाहिए। पाला, कोहरा, ओला एवं तीव्र व शुष्क पवनें इसकी फसल को बहुत हानि पहुँचाती हैं।
  • वर्षा – गेहूँ की कृषि के लिए 50 से 75 सेमी तक वर्षा की आवश्यकता होती है। वर्षा धीरे-धीरे लगातार होती रहनी चाहिए। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई के द्वारा गेहूं का उत्पादन किया जाता क

2. मिट्टी – गेहूँ की कृषि के लिए हलकी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उत्तम मानी जाती है। इस मिट्टी में चूने तथा नाइट्रोजन के अंश का विद्यमान होना इसकी कृषि के लिए लाभदायक होता है। साथ ही मिट्टी समतल और भुरभुरी होनी चाहिए। अधिक उपज की प्राप्ति के लिए मिट्टी में कम्पोस्ट, यूरिया तथा अमोनियम सल्फेट आदि रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते रहना लाभप्रद रहता है।

3. मानवीय श्रम – गेहूँ उत्पादन के लिए अधिक मानवीय श्रम की आवश्यकता होती है। खेत जोतने, बोने, निराई-गुड़ाई करने, कटाई, गहाई आदि में पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु जिन देशों में गेहूं उत्पादन में मशीनों का उपयोग किया जाता है, वहाँ मानवीय श्रम कम अपेक्षित होता है। भारत में मशीनों का प्रयोग कम किये जाने के कारण गेहूँ की कृषि सघन जनसंख्या वाले मैदानी भागों में की जाती है।

गेहूँ के उपज-क्षेत्र अथवा वितरण- उत्तर के विशाल मैदान में, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दोमट मिट्टी में गेहूं की अच्छी पैदावार होती है। देश के शेष भागों मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र के कुछ भागों में भी गेहूँ उगाया जाता है। इस प्रकार गेहूँ उत्तरी भारत की प्रमुख फसल है, जहाँ देश का 70% गेहूँ उगाया जाता है। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा गेहूँ उत्पादक राज्य है, जहाँ देश का 35.5% गेहूं उत्पन्न किया जाता है। पंजाब दूसरा बड़ा गेहूँ उत्पादक है, जो देश का 25% गेहूं उत्पन्न करता है। मध्य प्रदेश, हरियाणा तथा राजस्थान अन्य प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य हैं।

गेहूँ का उत्पादन–वर्ष 1950-51 ई० में 97 लाख हेक्टेयर भूमि पर गेहूँ की कृषि की गयी थी, जो बढ़कर 2004-05 ई० में 265 लाख हेक्टेयर हो गयी। इसी अवधि में गेहूं का उत्पादन 64 लाख टन से बढ़कर 720 लाख टन हो गया। गेहूँ की प्रति हेक्टेयर उपज भी 6.6 कुन्तल से बढ़कर 27.18 कुन्तल हो गयी। इस प्रकार इस अवधि में प्रति हेक्टेयर उत्पादन में लगभग चार गुना वृद्धि हुई। भारत में गेहूँ उत्पादन में वृद्धि एक सफल क्रान्ति है, जिसके फलस्वरूप वर्ष 2011-12 (अनुमानित) में 902.32 टन हो गया। विश्व के गेहूं उत्पादन में चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस एवं कनाडा के बाद भारत का पाँचवाँ स्थान है। भारत में हुई हरित क्रान्ति को वास्तव में गेहूँ क्रान्ति ही कहा जाना चाहिए।

प्रश्न 7.
चावल की फसल का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) अनुकूल भौगोलिक दशाएँ तथा (ख) प्रमुख उत्पादक राज्य और वितरण।
या
उत्तर :
भारत की खाद्यान्न फसलें कौन-सी हैं ? चावल उत्पादन के लिए आवश्यक भौगोलिक परिस्थितियों, उपज क्षेत्रों तथा उनके उत्पादन के बारे में बताइए।
उत्तर भारत की प्रमुख खाद्यान्न फसलें गेहूँ, चावल (धान), मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ, रागी आदि हैं। इनमें गेहूं एवं चावल प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसलें हैं।

चावल गेहूँ के पश्चात् भारत की दूसरी महत्त्वपूर्ण फसल तथा प्रमुख खाद्यान्न है। देश की कुल कृषि भूमि के 25% भाग पर विश्व का 21% चावल उत्पन्न कर भारत, चीन के बाद चावल उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। यद्यपि यहाँ चीन से अधिक क्षेत्र पर चावल बोया जाता है, परन्तु प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होने के कारण यहाँ वार्षिक उत्पादन चीन से कम है।
भौगोलिक परिस्थितियाँ – चावल उत्पादन के लिए आवश्यक भौगोलिक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं
1. जलवायु – चावल उष्णार्द्र जलवायु की उपज है। मानसूनी जलवायु इसकी कृषि के लिए अधिक
उपयुक्त है। चावल की खेती के लिए निम्नलिखित जलवायु दशाएँ आवश्यक होती हैं|

  • तापमान – चावल की कृषि के लिए सामान्यत: 20° से 27° सेल्सियस तापमान आवश्यक होता है।
  • वर्षा – चावल की कृषि के लिए अधिक नमी की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसके पौधे पूर्णत: जल से भरे खेतों में लगाये जाते हैं। इसके लिए 100 से 200 सेमी वर्षा आवश्यक होती है। कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।

2. मिट्टी – चावल की कृषि के लिए समतल एवं उपजाऊ डेल्टाई तथा जलोढ़ मिट्टियाँ उत्तम होती हैं। काँपयुक्त मिट्टी सर्वश्रेष्ठ होती है। नदियों के डेल्टा, बाढ़ के मैदान तथा सागरतटीय क्षेत्र चावल की कृषि के लिए अधिक उपयुक्त रहते हैं। चावल की अधिक उपज लेने के लिए मृदा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग लाभदायक रहता है।

3. मानवीय श्रम – 
चावल उत्पादन के लिए अधिक संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि फसलों की पौध लगाने, जुताई, बुआई, कटाई आदि कार्यों में मानवीय श्रम की प्रधानता होती है। खेतों में वर्धनकाल तक नमी बनी रहने के कारण मशीनों का उपयोग नहीं हो पाता है; अत: इसकी कृषि में श्रम की अत्यधिक महत्ता है। यही कारण है कि विश्व का 95% चावल दक्षिण-पूर्वी एशिया के सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में ही उत्पन्न किया जाता है।

उपज (उत्पादन ) के क्षेत्र तथा वितरण – चावल की खेती (उत्पादन) प्रायद्वीप के तटवर्ती भागों, पूर्वी-गंगा के मैदान, ब्रह्मपुत्र घाटी, हिमालय की तलहटी, पूर्वी मध्य प्रदेश तथा पंजाब में अधिक होती है। महानदी डेल्टा (ओडिशा), गोदावरी तथा कृष्णा डेल्टा (आन्ध्र प्रदेश) एवं कावेरी डेल्टा (तमिलनाडु) में चावल की दो या तीन फसलें प्रति वर्ष प्राप्त की जाती हैं। नयी प्रौद्योगिकी, उन्नत किस्म के बीजों, सिंचाई सुविधाओं तथा उर्वरकों के अधिक प्रयोग से वर्तमान में पंजाब चावल का सबसे बड़ा उत्पादक हो गया है।

उत्पादन – वर्ष 1950-51 ई० में 3 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल में चावल का उत्पादन किया गया था, जो बढ़कर 2000-01 ई० में 4.43 करोड़ हेक्टेयर हो गया। इस अवधि में चावल का उत्पादन 2.5 करोड़ टन से बढ़कर 8.49 करोड़ टन हो गया। चावल की प्रति हेक्टेयर उपज में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। यह 6.7 कुन्तल प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 19.13 कुन्तल प्रति हेक्टेयर हो गयी। यह वृद्धि लगभग तीन गुनी है। वर्ष 2004-05 में देश में 8.95 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ तथा वर्ष 2011-12 (अनुमानित) में 1034.06 टन चावल का उत्पादन हुआ था।

प्रश्न 8.
गन्ने की कृषि के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं, प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों तथा उत्पादन का वर्णन कीजिए। [2018]
या
गन्ने की उपज के लिए आवश्यक तापमान तथा वर्षा की दशाओं का वर्णन कीजिए। गन्ना उत्पादन के दो मुख्य राज्यों के नाम बताइट।
या
भारत में गन्ना उत्पादन क्षेत्रों का वर्णन कीजिए तथा गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त दो भौगोलिक परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
या
गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त तापक्रम, वर्षा एवं मिट्टी का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर :
आवश्यक भौगोलिक दशाएँ – 
गन्ना उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाएँ आवश्यक होती हैं
1. जलवायु – गन्ना उष्णार्द्र जलवायु की उपज है। गन्ने की कृषि के लिए निम्नलिखित जलवायु उपयुक्त रहती है

  • तापमान – उष्ण कटिबन्धीय पौधा होने के कारण गन्ने की फसल के लिए उच्च तापमान; अर्थात् प्राय: 20° से 35° सेल्सियस की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल लगभग एक वर्ष में तैयार होती है। कोहरा तथा पाला इसकी फसल को हानि पहुँचाते हैं।
  • वर्षा – गन्ने की फसल के लिए अधिक नमी की आवश्यकता होती है। अत: गन्ना 100 से 150 सेमी वर्षा वाले भागों में उगाया जाता है। इसके लिए वर्षा वर्षभर लगातार मन्द गति से होती रहे तो अच्छा है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई द्वारा गन्ना उगाया जाता है। इसी कारण नहरों तथा नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र गन्ने के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र बन गये हैं।

2. मिट्टी – गन्ने की कृषि के लिए उपजाऊ दोमट तथा नमीयुक्त एवं चिकनी मिट्टी उपयुक्त रहती है। दक्षिणी भारत की लावायुक्त मिट्टी में गन्ना अच्छा पैदा होता है। चूना एवं फॉस्फोरसयुक्त मिट्टी गन्ने की कृषि के लिए विशेष उपयोगी होती है। गन्ना मिट्टी से पोषक तत्वों को अधिक शोषण करता है; अत: इसके लिए रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए।

3. मानवीय श्रम – 
गन्ने के खेत तैयार करने, बोने, निराई-गुड़ाई करने तथा उन्हें काटकर मिलों तक पहुँचाने के लिए कुशल एवं सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसी कारण गन्ना सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में ही उगाया जाता है।

प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र – भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में गन्ना उगाया जाता है, परन्तु उत्तरी भारत गन्ना उगाने का मुख्य क्षेत्र है। देश का तीन-चौथाई से भी अधिक गन्ना उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों में उगाया जाता है। अन्य गन्ना उत्पादक राज्यों में आन्ध्र प्रदेश, बिहार एवं झारखण्ड मुख्य हैं। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, ओडिशा तथा राजस्थान राज्यों के क्षेत्रों में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है। उत्तर प्रदेश देश का 50%, पंजाब तथा हरियाणा 15% तथा बिहार व झारखण्ड 12% गन्ने का उत्पादन करते हैं। पिछले दो दशकों से दक्षिणी राज्यों के गन्ना उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

उत्पादन – गन्ना भारत की प्रमुख औद्योगिक फसल है। यहाँ गन्ने का क्षेत्रफल तथा उत्पादन विश्व में सर्वाधिक रहा है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से विश्व के गन्ना उत्पादन में ब्राजील ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। विश्व के कुल गन्ने का 20% क्षेत्रफल भारत में पाया जाता है। यहाँ विश्व का 22.4% गन्ना उत्पन्न किया जाता है। भारतीय कृषकों के लिए गन्ना एक नकदी फसल है। वर्ष 2000-01 में भारत में 4.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर गन्ने की खेती की गयी थी तथा 299.2 मिलियन टन गन्ने का उत्पादन हुआ। वर्ष 2009-10 में भी भारत में 4.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर गन्ने की खेती की गई तथा 19.0 मिलियन टन गन्ने का उत्पादन हुआ। भारत में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज 71 टन तक आ गयी है।

प्रश्न 9.
कपास की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए तथा भारत में उसके उत्पादन के क्षेत्रों पर प्रकाश डालिए। [2009]
या

भारत में कपास किन राज्यों में पैदा होती है? इसकी खेती के लिए दो उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ बताइट।
या
भारत में कपास की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी एवं वर्षा की दशाओं का वर्णन कीजिए तथा तीन राज्यों में कपास के उत्पादन का विवरण दीजिए।
या
कपास की खेती के लिए उपयुक्त तापक्रम, वर्षा एवं मिट्टी का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर :
भौगोलिक दशाएँ-कपास की खेती के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है
1. तापमान – कपास के पौधे के लिए साधारणत: 20° से 35° सेग्रे तापमान की आवश्यकता होती है। पाला एवं ओला इसके लिए हानिकारक होते हैं। अत: इसकी खेती के लिए 200 दिन का पालारहित मौसम होना आवश्यक होता है। केपास की बौंडियाँ खिलने के समय स्वच्छ आकाश तथा तेज एवं चमकदार धूप होनी आवश्यक है, जिससे कि रेशे में पूर्ण चमक आ सके।

2. वर्षा – 
कपास की खेती के लिए साधारणतया 50 से 100 सेमी वर्षा पर्याप्त होती है, परन्तु यह वर्षा कुछ अन्तर से होनी चाहिए। अधिक वर्षा हानिकारक होती है, जब कि 50 सेमी से कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे कपास का उत्पादन किया जाता है।

3. मिट्टी – 
कपास के उत्पादन के लिए आर्द्रतायुक्त चिकनी एवं गहरी काली मिट्टी अधिक लाभप्रद रहती : है, जिससे पौधों की जड़ों में पानी भी न रहे और उन्हें पर्याप्त नमी भी प्राप्त होती रहे; इस दृष्टिकोण से दक्षिणी भारत की काली मिट्टी कपास के लिए बहुत ही उपयोगी है।

4. मानवीय श्रम – 
कपास की खेती को बोने, निराई-गुड़ाई करने और बौंडियाँ चुनने के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है। कपास चुनने के लिए अधिकतर स्त्रियाँ श्रमिक उपयुक्त रहती हैं।

उत्पादक क्षेत्र–गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश राज्य मिलकर देश की 65% कपास का उत्पादन करते हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब व राजस्थान अन्य प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं। देश की कृषि योग्य भूमि को लगभग 6% क्षेत्र कपास उत्पादन में संलग्न है। विगत 50 वर्षों में कपास उत्पादन क्षेत्र में लगभग डेढ़ गुनी वृद्धि हुई है।

केपास के उत्पादन के लिए लावा से निर्मित काली मिट्टी सर्वोत्तम होती है; अतः भारत में कपास का अग्रणी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र है, जो देश की लगभग एक-चौथाई (25%) कपास पैदा करता है। गुजरात के लावा से निर्मित मिट्टी के क्षेत्र में भी कपास की अच्छी पैदावार होती है। यह राज्य देश की 15% कपास पैदा करता है। विगत वर्षों में पंजाब में कपास की खेती का बहुत विकास हुआ है। यह राज्य देश की 14% से अधिक कपास पैदा करता है। आन्ध्र प्रदेश लगभग 13% कपास उगाता है। हरियाणा (10%), राजस्थान (8%), कर्नाटक (7%) तथा तमिलनाडु (4%) अन्य महत्त्वपूर्ण कपास उत्पादक राज्य हैं।

प्रश्न 10.
भारत में कहवा की खेती के लिए भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन कीजिए। कहवा उत्पादक क्षेत्रों का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत में कहवा की खेती का विधिवत् आरम्भ 1830 ई० से हुआ था। इसका प्रथम बाग मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) में लगाया गया था।
आवश्यक भौगोलिक दशाएँ – कहवा की खेती के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित होती हैं
1. तापमान – कहवा के उत्पादन के लिए औसत वार्षिक तापमान 15° से 18° सेग्रे आवश्यक होता है। कहवे का पौधा अधिक धूप को सहन नहीं कर पाता। इसी कारण इसे छायादार वृक्षों के साथ उगाया जाता है।
2. वर्षा – कहवे के लिए 150 से 200 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा का वितरण समान होता है, वहाँ 300 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। सामान्यतया इसकी खेती 900 मीटर से 1,800 मीटर की ऊँचाई वाले भागों में छायादार वृक्षों के साथ की जाती है। इसके लिए वनों से साफ की गयी भूमि अधिक उपयुक्त रहती है, क्योंकि इसमें उपजाऊ तत्त्व अधिक मिले रहते हैं।
3. मिट्टी – कहवे के लिए दोमट एवं ज्वालामुखी उद्गार से निकली लावा से निर्मित मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती हैं, जिनमें क्रमशः जीवांश एवं लोहांश मिले होते हैं। कर्नाटक, तमिलनाडु एवं केरल राज्यों की लैटेराइट मिट्टियों में कहवे का उत्पादन किया जाता है।
4. मानवीय श्रम – कहवे के पौधों को लगाने, निराई-गुड़ाई करने, बीज तोड़ने, सुखाने, पीसने आदि कार्यों के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की आबश्यकता पड़ती है। इन कार्यों के लिए बच्चे एवं स्त्रियाँ श्रमिक अधिक उपयुक्त रहते हैं।

  • उत्पादक क्षेत्र – भारत के प्रमुख कहवा उत्पादक राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु व केरल हैं। आन्ध्र प्रदेश में भी विगत वर्षों में कहवे के बागान लगाये गये हैं।
  • कर्नाटक – देश में सर्वप्रथम कहवा उत्पादन इसी राज्य में हुआ था। कुर्ग, चिकमगलूर, हसन, शिमोगा, दक्षिणी कर्नाटक प्रमुख उत्पादक जिले हैं। कर्नाटक का देश के कहवा उत्पादन में प्रथम स्थान है। देश के कुल उत्पादन का 56% भाग यहीं पैदा होता है।

  • केरल – यहाँ वायनाद, इदुकी, कोट्टायम अर्नाकुलम, पालघाट, क्विलोन, अलप्पी प्रमुख कहवा उत्पादक जिले हैं।

  • तमिलनाडु – यहाँ मदुरै, तिरुनेलवेली, नीलगिरि, कोयम्बटूर, सलेम प्रमुख कहवा उत्पादक जिले हैं।

  • आन्ध्र प्रदेश – यहाँ का विशाखापत्तनम् जिला मुख्य कहवा उत्पादक स्थान है।

प्रश्न 11.
भारत में जूट की कृषि के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन करते हुए उसके उत्पादन के क्षेत्रों पर प्रकाश डालिए। [2014]
या
भारत में जूट उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) उत्पादक क्षेत्र/राज्य तथा (ख) उत्पादन एवं व्यापार।
या
भारत में जूट उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए- [2009, 10]
(i) स्थानीयकरण के कारक, (ii) प्रमुख केन्द्र।
उत्तर :
जूट एक प्रमुख व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसल है। भारत में जूट की कृषि के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का विवरण निम्नवत् है

1. तापमान – जूट उष्ण कटिबन्धीय, उष्णार्द्र जलवायु की उपज है। इसके पौधों के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रायः 25 से 35° सेल्सियस तापमान आवश्यक है। भारत की जलवायु इन दशाओं का निर्माण करती है।
2. वर्षा – जूट की कृषि के लिए उच्च तापमान के साथ-साथ अधिक नमी की भी आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए प्रायः 100 से 200 सेमी वार्षिक वर्षा आवश्यक है। जूट के पौधों की वृद्धि के समय वर्षा समान गति से लगातार होती रहनी चाहिए। वर्षा की ये दशाएँ भारत में उपलब्ध हैं।
3. मिट्टी – जूट की खेती के लिए उपजाऊ काँप या चिकनी मिट्टी उपयुक्त होती है। जूट का पौधा भूमि से अधिक पोषक तत्त्व ग्रहण करता है; अत: जूट की खेती नदियों के डेल्टाई भागों में की जाती है। भारत, में गंगा व ब्रह्मपुत्र के डेल्टाई भाग इसकी खेती के लिए अति उपयुक्त हैं। यहाँ नदियों की बाढ़े प्रतिवर्ष नयी उपजाऊ काँप मिट्टी जमा करती रहती हैं। इस मिट्टी में नमी की मात्रा अधिक होती है।
4. श्रमिक – भारत एक विशाल जनसंख्या वाला कृषिप्रधान देश है, जहाँ जूट बोने, गलाने, रेशा अलग करने, धोने तथा सुखाने के लिए श्रमिक बड़ी संख्या में सस्ती दर पर उपलब्ध हैं। यही कारण है कि जूट की खेती सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों; जैसे–पश्चिम बंगाल व बिहार में की जाती है।

उत्पादक क्षेत्र एवं उत्पादन – भारत में जूट का उत्पादक क्षेत्र निरन्तर बढ़ाया जा रहा है। भारत के जूट उत्पादक क्षेत्र वर्ष 1950-51 में 5.7 लाख हेक्टेयर से बढ़कर वर्ष 1999-2000 में 8.5 लाख हेक्टेयर तक पहुँच चुका था। भारत में जूट उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं

  1. पश्चिम बंगाल – जूट उत्पादन में पश्चिम बंगाल राज्य भारत में प्रथम स्थान रखता है। यहाँ बर्दवान, हुगली, हावड़ा, मुर्शिदाबाद, मिदनापुर, कूच-बिहार, चौबीस परगना, मालदा, नादिया, बाँकुडा आदि जिलों में जूट उगाई जाती है। यहाँ भारत का कुल 60% जूट पैदा किया जाता है।
  2. बिहार – भारत का दूसरा प्रमुख जूट उत्पादक राज्य बिहार है। यहाँ चम्पारन, दरभंगा, पूर्णिया, सारन, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी तथा सन्थाल परगना जिलों में जूट की खेती की जाती है। यह देश के कुल उत्पादन का 15% जूट पैदा करता है।
  3. असोम – असोम में ब्रह्मपुत्र नदी की निचली घाटी में जूट की खेती की जाती है। नुवगाँव, गोलपाड़ा, कछार, कामरूप आदि जिलों में मुख्य रूप से जूट उगाया जाता है। यहाँ कृषि योग्य भूमि के 95% भाग पर देश का लगभग 10% जूट पैदा किया जाता है।

अन्य जूट उत्पादक राज्य हैं–ओडिशा, मेघालय, त्रिपुरा, आन्ध्र प्रदेश तथा मध्य प्रदेश। इन सभी राज्यों में स्थानीयकरण के प्रमुख कारक उपर्युक्त भौगोलिक दशाओं का पाया जाना है। वर्तमान समय में भारत विश्व में 40% जूट का उत्पादन कर प्रथम स्थान बनाये हुए है। भारत में जूट का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,907 किग्रा है। वर्ष 2004–05 में 96 लाख गाँठ (1 गाँठ = 180 किग्रा) तथा
वर्ष 2011-12 में 110.00 लाख गाँठ (1 गाँठ = 180 किग्रा) जूट का उत्पादन किया गया था।

प्रश्न 12.
भारतीय कृषि की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। आज भी भारत की दो-तिहाई जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि ही है। भारतीय कृषि में खाद्यान्न फसलों की प्रधानता रहती है तथा अधिकांश उत्पादन घरेलू खपत के लिए होता है। वर्तमान समय में किये गये विभिन्न प्रयासों के द्वारा भारतीय कृषि अपने निर्वाहमूलक स्वरूप को छोड़कर व्यापारिक स्वरूप में बदलती जा रही है। भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. दूर-दूर तक बिखरे खेतों के कारण भारतीय जोतें आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी होती जा रही थीं। अतः खेतों को चकबन्दी द्वारा एक स्थान पर ला दिया गया, जिससे उनमें कृषि-यन्त्रों एवं उपकरणों का प्रयोग कर प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन किया जा सके।
2. सन् 1960 से भारत में हरित क्रान्ति के द्वारा अधिक उपज देने वाले सुधरे हुए एवं परिष्कृत बीजों का प्रयोग किया जाने लगा है। इसके साथ ही अल्प अवधि में पककर तैयार होने वाली फसलों के उन्नत . बीज भी कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा खोज लिये गये हैं। इस प्रकार वर्ष में एक खेत से तीन फसलों तक का उत्पादन किया जाने लगा है।
3. भारतीय कृषि में कीटों, फफूदी तथा खरपतवार से फसलों की रक्षा के लिए अत्यधिक मात्रा में कीटनाशकों तथा खरपतवारनाशकों का प्रयोग किया जाने लगा है। इससे खाद्यान्नों का पर्याप्त उत्पादन प्राप्त होने लगा है।
4. लगातार खेती करने तथा मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने के लिए खेतों में जैविक खादों का अधिकाधिक उपयोग तथा मिट्टी में पाये जाने वाले लवणों-खनिजों का वैज्ञानिक परीक्षण सम्भव हुआ है। इससे उर्वरकों का समुचित उपयोग सम्भव हो पाया है।
5. मिट्टी के अधिकतम उपयोग के लिए उसका संरक्षण किया जाना अति आवश्यक है। इसके लिए खेतों की जुताई वैज्ञानिक विधि से करनी चाहिए। ढालू भूमि में शुष्क कृषि हेतु मेड़बन्दी तथा समोच्च-रेखीय जुताई बहुत लाभकारी रहती है। इससे मिट्टी में नमी बनी रहती है तथा उसका अपरदन भी नहीं होता। देश में बहुफसली, मिश्रित खेती एवं फसलों के हेर-फेर द्वारा मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने के प्रयास किये गये हैं।
6. कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए आधुनिक यन्त्रों एवं उपकरणों का उपयोग महत्त्वपूर्ण होता है। इनसे न केवल उत्पादन में वृद्धि होती है, अपितु जुताई, बुवाई, निराई, कीटनाशकों के छिड़काव, सिंचाई, उर्वरकों के प्रयोग, परिवहन तथा विपणन में लगने वाले समय व धन की भी पर्याप्त बचत होती है।
7. भण्डारण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण कृषि उत्पादन का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो जाता था। वर्तमान समय में निजी, सहकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में कृषि भण्डारण की व्यापक व्यवस्था कर ली गयी है। इससे अतिरिक्त कृषि उत्पादन न केवल सुरक्षित रहता है, अपितु कृषकों को भी उचित मूल्य मिल जाता है।
8. फसलोत्पादन पर अधिक निवेश के साथ ही उन्नत बीजों एवं रासायनिक उर्वरकों का उपयोग भी तब तक उचित है जब तक सुनिश्चित सिंचाई की सुविधा न हो। विगत पाँच दशकों में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन तीन-गुने से अधिक हो गया है, जब कि इस अवधि में सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में मात्र तीन-गुनी वृद्धि हुई है।
9. जोतों के विभाजन को रोकने के लिए संसहकारी कृषि को बढ़ाने के प्रयास किये गये हैं। इससे यान्त्रिक उपकरणों का प्रयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। महाराष्ट्र एवं गुजरात में सहकारी कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
10. जिस भूमि पर खेती हो रही हो, उसकी प्राकृतिक उर्वरता में कमी होना निश्चित है; अतः मिट्टियों का परीक्षण कराते रहना चाहिए। मिट्टी में कम हुए तत्त्वों की कमी को जैविक तथा रासायनिक उर्वरकों से पूरा किया जा सकता है।
11. भारत में कृषि के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए प्रत्येक जिले में सहकारी व भूमि विकास बैंक खोले गये हैं। राष्ट्रीयकृत बैंक भी अब कृषकों को आसान शर्तों पर ऋण की सुविधा उपलब्ध कराते हैं।
12. देश में कृषि मूल्य आयोग’ विभिन्न उपजों के लाभकारी मूल्य निर्धारित करता है, जिससे कृषकों को खुले बाजार में कम मूल्यों पर अपने उत्पादों को न बेचना पड़े।
13. देश में राष्ट्रीय बीज निगम, केन्द्रीय भण्डागार निगम, भारतीय खाद्य निगम, भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद्, कृषि विश्वविद्यालय तथा ऐसी ही अनेक संस्थाओं का गठन कृषि के विकास के लिए किया गया है। इससे कृषकों को बहुत लाभ मिलता है।

प्रश्न 13.
स्वतन्त्रता के बाद कृषि की उन्नति के लिए किये गये सरकार के प्रयासों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय कृषि की दशा सुधारने के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा किये गये किन्हीं पाँच मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में कृषि के विकास के लिए सरकार द्वारा किये गये कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता के पश्चात् सरकार ने भारतीय कृषि को सुधारने के लिए अनेक उपाय किये हैं। इनमें प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. जमींदारी-प्रथा का अन्त – जमींदारी-प्रथा भारतीय किसानों के लिए एक बड़ा अभिशाप थी। भारत सरकार ने इस व्यवस्था को समाप्त करके भूमि के समस्त अधिकार वास्तविक किसानों को दे दिये। कृषित भूमि के उचित वितरण को सुनिश्चित करने के लिए भूमि सम्पत्ति सीमा कानून’ भी लागू किया , गया।

2. चकबन्दी – 
सम्पत्ति उत्तराधिकार कानून के अनुसार कृषित भूमि के बँटवारे के कारण किसानों के जोत प्रायः बिखरे हुए होते थे, जो आर्थिक रूप से अनुपयोगी होते थे। अतएव सरकार ने ऐसे बिखरे खेतों की सीमाएँ पुनः निर्धारित करने हेतु चकबन्दी व्यवस्था की तथा किसानों में उन्हें बाँट दिया।

3. सिंचाई सुविधाओं का विकास – 
भारतीय कृषि ‘मानसून का जुआ’ कहलाती है। मानसून की अनिश्चित प्रकृति से किसानों को बचाने के लिए सरकार ने सिंचाई की अनेक परियोजनाओं का विकास किया है।

4. उन्नत बीजों का वितरण –
सरकार ने अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्म के बीजों का विकास करने के लिए अनेक कृषि विश्वविद्यालय, शोध-संस्थान तथा प्रदर्शन फार्म स्थापित किये हैं।

5. पौध संरक्षण के लिए कीट – रोगनाशकों का प्रयोग – 
अनेक प्रकार के कृषि-रोगों, कीटों तथा टिड्डी दलों के निवारण के लिए रोग तथा कीटनाशकों को किसानों में बाँटने की व्यवस्था की है।

6. रासायनिक उर्वरकों का वितरण – 
सरकार ने रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन के लिए अनेक संयन्त्र (कारखाने) स्थापित किये हैं। इन उर्वरकों को सस्ते मूल्य पर किसानों को उपलब्ध कराया। जाता है।

7. कृषि का आधुनिकीकरण – 
कृषि के आधुनिकीकरण के लिए नये उपकरण तथा यन्त्र विकसित किये गये हैं। बड़े (समृद्ध) किसान इनका व्यापक रूप से प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की प्रौद्योगिकी; जैसे—शुष्क कृषि, बहुशास्य कृषि, अन्त:कृषि, फसलों का हेर-फेर इत्यादि विकसित की गयी हैं। इससे कृषि की उत्पादकता तथा उर्वरता में वृद्धि हुई है।

8. सहकारी सोसायटी तथा बैंकों का विकास – 
सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में बहुउद्देशीय सहकारी समितियों तथा बैंकों की स्थापना की है, जिससे किसानों का कल्याण हो तथा उन्हें वित्तीय सहायता उपलब्ध हो सके।

9. फसल बीमा योजनाएँ – 
किसानों को प्राकृतिक संकटों से उबारने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक प्रकार की फसल बीमा योजनाएँ चालू की गयी हैं।

10, समर्थन मूल्य – 
किसानों को ऋणदाताओं तथा दलालों द्वारा शोषण से बचाने के लिए कृषि मूल्य आयोग प्रति वर्ष विविध फसलों के लिए समर्थन मूल्य की घोषणा करता है। भारतीय खाद्य निगम किसानों से सीधे खाद्यान्न खरीदता है।

यद्यपि भारतीय कृषि की दशा सुधारने के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा अनेकानेक प्रयास किये गये हैं, तथापि ये सभी प्रयास उस स्तर तक सहायक नहीं हुए हैं कि भारतीय कृषि की स्थिति में पर्याप्त सुधार आ सके। उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी के स्तर को पाने के लिए इसमें और भी सुधार किये जाने चाहिए।

प्रश्न 14.
स्वतन्त्रता के पश्चात् प्रमुख फसलों के उत्पादन और प्रति हेक्टेयर उपज में हुई प्रगति का विवरण दीजिए।
या
क्या भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है ? सप्रमाण अपने कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
सन् 1947 में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय भारत की कृषि अत्यधिक पिछड़ी हुई अवस्था में थी। परिणामत: देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें अनेक वर्षों तक विदेशों से करोड़ों रुपये के मूल्य के अनाज का आयात करना पड़ा। देश की खाद्य समस्या को देखते हुए भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए व्यापक तथा गम्भीर प्रयास किये, जिनके फलस्वरूप सन् 1967-68 में हरित क्रान्ति प्रारम्भ हुई। इस क्रान्ति के कारण देश के कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि हो गयी और अनाजों के आयातों में कमी हो गयी। किन्तु सन् 1975 में पुन: 74 लाख टन अनाज का आयात करना पड़ा। वर्ष 1978 से 1980 ई० तक अनाज का आयात नहीं किया गया। सन् 1981-82 में देश को फिर अनाज का आयात करना पड़ा। वर्तमान समय में भारत खाद्यान्नों के मामले में
आत्मनिर्भर हो गया है। अधिक उपज देने वाले बीज, खाद व उर्वरकों का प्रयोग, सिंचाई सुविधाओं में विस्तार तथा कृषि के मशीनीकरण ने उत्पादों की मात्राओं में अत्यधिक वृद्धि की है। इस बात की पुष्टि के लिए प्रमुख फसलों के उत्पादन और प्रति हेक्टेयर उपज में हुई प्रगति का विवरण निम्नलिखित है

1. चावल – 
चावल उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। वर्ष 1960-61 में 34.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र की अपेक्षा 2000-01 ई० में 44.3 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में चावल बोया गया। इस अवधि में चावल का उत्पादन 34.6 मिलियन टन से 84.9 मिलियन टन हो गया और उपज 10.13 कुन्तल प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 19.13 कुन्तल प्रति हेक्टेयर हो गयी। देश में वर्ष 2011-12 (अनुमानित) में 1034.06 टन चावल का उत्पादन हुआ था।

2. गेहूँ – 
गेहूँ भारत की प्रमुख उपज तथा महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है। यह सबसे पौष्टिक आहार माना जाता है। विश्व के गेहूँ उत्पादन का 9.9% भाग ही भारत से प्राप्त होता है। गेहूं के उत्पादन में भारत का विश्व में पाँचवाँ स्थान (चीन, अमेरिका, रूस तथा कनाडा के बाद) है। वर्ष 2004-05 में गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 2,718 किग्रा था तथा गेहूँ की कृषि 26.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर की गयी थी, जिस पर 72 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों के उत्पादन में लगी कुल भूमि के 18.7% भाग पर गेहूँ उगाया जाता है, जो देश की कृषि भूमि का 12.4% भाग घेरे हुए है। कुल खाद्यान्नों में गेहूं का भाग . लगभग 30% है। भारत में गेहूं उत्पादन में वृद्धि एक सफल क्रान्ति है, जिसके फलस्वरूप वर्ष ।
2011-12 (अनुमानित) में 902.32 टन हो गया। वास्तव में हरित क्रान्ति ही गेहूँ-क्रान्ति है।

3. दलहन एवं तिलहन – 
भारत दलहन का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक तथा उपभोक्ता है। वर्ष 1960-61 ई० में दलहन का उत्पादन क्षेत्र लगभग 23.6 मिलियन हेक्टेयर था, जो 2000-01 ई० में घटकर लगभग 20 मिलियन हेक्टेयर रह गया। फिर भी वर्ष 2008-09 ई० में भारत में 14.57 मिलियन टन दालों का उत्पादन हुआ था।

दलहन की भाँति तिलहन भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण फसल है। यह भी हमारे भोजन का प्रमुख अंग है। मूंगफली, तिल, सरसों एवं अरण्डी प्रमुख तिलहन फसलें हैं। भारत में विश्व की लगभग 75% मूंगफली, 25% तिल, 20% अरण्डी तथा 17% सरसों उत्पन्न की जाती है। अलसी, राई, बिनौला, सूरजमुखी आदि अन्य तिलहन फसलें हैं। यहाँ लगभग 67 लाख हेक्टेयर भूमि पर मूंगफली की खेती

की जाती है। सरसों एवं राई की खेती लगभग 73 लाख हेक्टेयर भूमि पर की जाती है। वर्ष 1960-61 ई० में भारत में तिलहन का कुल उत्पादन 7.0 मिलियन टन था, जो 2000-01 ई० में बढ़कर 18.4 मिलियन टन हो गया।

4. ज्वार, बाजरा(मोटे अनाज) – 
ज्वार, बाजरे और मोटे अनाजों के उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। इन फसलों के कृष्य क्षेत्रफल में कोई वृद्धि नहीं हुई है, परन्तु उत्पादन में दो-तीन गुना वृद्धि हुई है।

5. मक्का – 
भारत में मक्के की खेती कुछ देर से आरम्भ की गयी, परन्तु प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन के कारण इसकी लोकप्रियता में वृद्धि होती जा रही है। प्रारम्भ में जहाँ मक्के की खेती 32 लाख (3.2 मिलियन) हेक्टेयर भूमि पर की जा रही थी, वहाँ उत्पादन 20 लाख (2 मिलियन) टन था। वर्ष 2008-09 में 7.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर मक्के की खेती की गयी, जिसमें 19.73 मिलियन टन का उत्पादन प्राप्त हुआ।

निष्कर्ष – उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत खाद्यान्न के उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर हो गया है, किन्तु देश की जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के कारण विद्वानों का अनुमान है कि भारत खाद्यान्न के मामले में अधिक दिनों तक आत्मनिर्भर नहीं रह पाएगा। अतः देश की आत्मनिर्भरता को बनाये रखने के लिए जनसंख्या में होने वाली निरन्तर तीव्र वृद्धि को नियन्त्रित करना परमावश्यक है।

प्रश्न 15.
भारत में प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होने के क्या कारण हैं ? कृषि उत्पादन को बढ़ाने के उपाय लिखिए। [2010, 11]
या
भारतीय कृषि में निम्न उत्पादकता के किन्हीं तीन कारणों पर प्रकाश डालिए तथा इसकी उत्पादकता बढ़ाने हेतु कोई दो महत्त्वपूर्ण सुझाव दीजिए। [2009]
या

भारतीय कृषि की उत्पादकता बढ़ाने हेतु दो सुझाव (उपाय) दीजिए। [2009, 10]
या

भारत में कृषि के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए। [2010]
या

भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता बढ़ाने के लिए चार सुझाव दीजिए। [2011]
या

भारत में कृषि की न्यून उत्पादकता के पाँच कारणों का उल्लेख कीजिए। [2011,16]
या

कृषि के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण उपायों को लिखिए। [2011]
या

भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता के किन्हीं तीन कारणों का उल्लेख कीजिए तथा उत्पादकता वृद्धि के लिए तीन सुझाव दीजिए। [2015]
उत्तर :

प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होने के कारण

भारत एक कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 72% जनसंख्या अपनी जीविका के लिए कृषि पर आश्रित है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद यह पिछड़ी हुई अवस्था में है। अन्य देशों की तुलना में भारत में प्रति हेक्टेयर-कृषि-उत्पादन बहुत कम है। इसके लिए मुख्यतया निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं|
1. कृषि जोतों का छोटा होना – भारत में कृषि जोतों का आकार बहुत छोटा है। लगभग 51 प्रतिशत जोतों का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है। फिर कृषि जोत बिखरी हुई अवस्था में एक-दूसरे से। दूर-दूर हैं। छोटी जोतों पर वैज्ञानिक ढंग से खेती करना सम्भव नहीं होता तथा न ही सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो पाती है।
2. कृषिकावर्षा पर निर्भर होना – आज भी भारतीय कृषि का लगभग 80% भाग वर्षा पर निर्भर करता है। वर्षा की अनिश्चितता एवं अनियमितता के कारण भारतीय कृषि ‘मानसून का जूआ’ कहलाती है। देश के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि तथा बाढ़ों के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं।
3. भूमि पर जनसंख्याको अत्यधिक भार – जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण भूमि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता गया है। परिणामतः प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का क्षेत्रफल घटता गया है, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य बेरोजगारी तथा अल्प रोजगार की समस्याएँ बढ़ी हैं और किसानों की गरीबी तथा ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई है।
4. सिंचाई सुविधाओं का अभाव – भारत में सिंचित क्षेत्र केवल 33.14% है। असिंचित क्षेत्रों में किसान अपनी भूमि में एक ही फसल उगा पाते हैं, जिस कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता कम है।
5. प्राचीन कृषि-यन्त्र – पाश्चात्य देशों में कृषि के आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है, जब कि भारत के अनेक क्षेत्रों में आज भी हल, पटेला, दराँती, कस्सी आदि अत्यधिक प्राचीन यन्त्रों द्वारा कृषि की जाती है, जिस कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता कम है।
6. दोषपूर्ण भूमि-व्यवस्था – भारत में अनेक वर्षों तक देश की लगभग 40% भूमि जमींदार, जागीरदार आदि मध्यस्थों के पास रही। किसान इन मध्यस्थों के काश्तकार होते थे। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद इन मध्यस्थों के उन्मूलन से भी छोटे किसानों की दशा में विशेष सुधार नहीं हो पाया। आज भी ऐसे असंख्य किसान हैं, जो दूसरों की भूमि पर खेती करते हैं।
7, कृषकों की अशिक्षा तथा निर्धनता – निर्धनता के कारण देश के कृषक आधुनिक यन्त्र, उत्तम बीज, खाद आदि खरीदने तथा उनका प्रयोग करने में असमर्थ हैं। शिक्षा के अभाव के कारण वे आधुनिक कृषि-विधियों का भी प्रयोग नहीं कर पाते। भारत में अधिक उपज देने वाले उन्नत बीजों की भी कमी है। वित्तीय सुविधाओं के अभाव के कारण किसान अपना समय, शक्ति तथा धन कृषि की उन्नति में नहीं लगा पाते।
8. फसलों के रोग – फसले-सम्बन्धी विभिन्न रोगों की समुचित रोकथाम न हो पाने के कारण भी भारतीय कृषि की उत्पादकता कम है। प्रत्येक वर्ष कीटाणु तथा जंगली पशु-पक्षी करोड़ों रुपये की फसलों को नष्ट कर देते हैं।
9. अन्य कारण – भूमि कटाव, जलाधिक्य, नाइट्रोजन की कमी आदि के कारण भी भारतीय कृषि की उत्पादकता कम है।

कृषि-उत्पादन बढ़ाने के उपाय

भारत में कृषि-उत्पादन बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए
1. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि पर नियन्त्रण – भूमि पर जनसंख्या के अत्यधिक भार को कम करने तथा कृषि जोतों के उपविभाजन तथा विखण्डन को रोकने के लिए देश की जनसंख्या में तीव्र गति से होने वाली वृद्धि को प्रभावी ढंग से नियन्त्रित करना आवश्यक है।

2. सिंचाई सुविधाओं का विकास – 
गाँवों में कुएँ, ट्यूबवेल, नहरों आदि का समुचित प्रबन्ध करके सिंचाई-सुविधाओं का विकास तथा विस्तार किंया जा सकता है।

3. उन्नत बीजों व खाद की समुचित व्यवस्था – 
सरकारी बीज-गोदामों की स्थापना करके कृषकों को उचित मूल्य पर उन्नत बीज दिये जाने चाहिए। रासायनिक खाद के उत्पादन में वृद्धि करके उसे किसानों को उचित मूल्य पर गाँवों में ही उपलब्ध कराना चाहिए।

4. फसलों की रक्षा – 
जंगली पशुओं, कीटाणुओं तथा रोगों से कृषि-उपजों का बचाव किया जाना चाहिए। बचाव के उपायों का गाँवों में प्रदर्शन और प्रचार होना चाहिए तथा कीटाणुनाशक दवाइयाँ उचित मूल्य पर गाँवों में ही उपलब्धं करायी जानी चाहिए।

5. भूमि संरक्षण – 
वृक्षारोपण, बाँध, मेड़ आदि उपायों द्वारा भूमि का संरक्षण किया जाना चाहिए तथा किसानों को इसके लाभ-हानि से अवगत कराना चाहिए।

6. आधुनिक कृषि – 
यन्त्रों का प्रबन्ध-खेती के पुराने ढंग के औजारों की हानियाँ बतलाकर किसानों को आधुनिक कृषि-यन्त्रों का प्रयोग समझाना चाहिए और इनको उचित कीमतों पर गाँवों में ही उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

7. छोटे तथा बिखरे खेतों का एकीकरण – 
चकबन्दी की सहायता से छोटे व बिखरे खेतों का एकीकरण करके अनार्थिक जोतों को आर्थिक जोतों में बदला जा सकता है। सहकारी खेती को अपनाकर भी खेतों के आकार को बड़ा करके बड़े पैमाने पर खेती की जा सकती है तथा कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

8. साख-सुविधाओं का विस्तार – 
किसानों को कम ब्याज पर उत्तम बीज, रासायनिक खाद, आधुनिक यन्त्र आदि खरीदने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऋण मिलने चाहिए। इसके लिए सहकारी साख समितियों का विकास किया जाना चाहिए। भूमि विकास बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की अधिक संख्या में स्थापना की जानी चाहिए तथा प्राकृतिक विपत्तियों के समय सरकार द्वारा किसानों को अधिक सहायता दी जानी चाहिए।

9. शिक्षा का प्रसार –
किसानों में शिक्षा का प्रसार करके कृषि सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। शिक्षा के प्रसार से किसानों को आधुनिक कृषि-यन्त्रों तथा नयी उत्पादन- विधियों का ज्ञान कराया जा सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कृषि का भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या महत्त्व है ? [2010]
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के किन्हीं दो योगदानों का विवरण दीजिए।
उत्तर :
भारत एक कृषिप्रधान देश है। कृषि इसकी अर्थव्यवस्था की मूल आधार रही है, क्योंकि

  • भारत में कुल क्षेत्रफल का 51% भू-भाग कृषि योग्य है, जब कि विश्व का औसत मात्र 11% ही है।
  • भारतीय जनसंख्या के लगभग दो-तिहाई भाग की जीविकों को आधार कृषि ही है।
  • पशुपालन, मत्स्य-संग्रहण तथा वानिकी की गणना कृषि के अन्तर्गत करते हुए देश के सकल घरेलू उत्पाद में 26% भाग इससे प्राप्त होता है।
  • अधिकांश उद्योगों के कच्चे माल की आपूर्ति कृषि से ही होती है; जैसे—सूती वस्त्र, चीनी, पटसन, काजू, चाय, कहवा आदि। सूती वस्त्र, चीनी, पटसन तथा चाय के उत्पादन में भारत विश्व में प्रमुख स्थान रखता है।
  • कृषि उपजों के निर्यात से भारत को पर्याप्त विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। कुल निर्यात में कृषि का योगदान 18% है।
  • कृषि उत्पादों पर आधारित उद्योगों में लोगों को पर्याप्त आजीविका के साधन उपलब्ध होते हैं। उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यधिक महत्त्व है।

प्रश्न 2.
कृषि व्यवसाय की समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन करते हुए चकबन्दी के लाभों पर प्रकाश डालिए।
उतर :
कृषि व्यवसाय की कुछ समस्याएँ भी हैं। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति भूमि का क्षेत्रफल घटता जा रहा है। इस प्रकार अधिकतर किसानों की जोते आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं रह गयी हैं। वनों और चरागाहों के कम हो जाने के कारण मृदा की उर्वरता बनाये रखने के स्रोत भी सूखते जा रहे हैं। हमारे किसान अभी भी बहुफसली खेती, मिश्रित खेती, पट्टीदार खेती तथा फसलों के वैज्ञानिक हेर-फेर को पूरी तरह अपना नहीं पाये हैं।

आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी जोतों के दोष को दूर करने के लिए चकबन्दी कार्यक्रम को चलाया गया है। चकबन्दी का अर्थ है-एक ही परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर संगठित करना। देश में अधिकांश भूमि की चकबन्दी की जा चुकी है। चकबन्दी के निम्नलिखित लाभ हैं

  1. चकबन्दी द्वारा छोटे तथा बिखरे हुए खेतों को एक चक (खेत) के रूप में संगठित कर दिया जाता है।
  2. खेतों को आकार बेड़ा हो जाने पर भूमि मेड़ों, रास्तों आदि के बनाने में कम बेकार होती है।
  3. खेती करने में समय तथा श्रम दोनों की बचत होती है, क्योंकि किसान के खेतों के एक ही स्थान पर हो जाने से उसे कृषि-कार्य के लिए अलग-अलग स्थानों पर नहीं जाना पड़ता।
  4. बड़े चक में जुताई, बुआई तथा सिंचाई करना सुविधाजनक होता है। ट्रैक्टरों द्वारा जुताई, बड़े पैमाने पर खेती तथा एक ही नलकूप की सहायता से सिंचाई की जा सकती है।
  5. एक ही खेत की सुरक्षा करना सुगम होता है।
  6. आधुनिक कृषि-विधियों के प्रयोग, बड़े पैमाने पर खेती, भूमि की बचत आदि के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है। कृषि-उत्पादन के बढ़ने से किसानों की आय में वृद्धि हो जाती है, जिससे उनके रहन-सहन में सुधार होता है।
  7. चकबन्दी से अन्ततः मुकदमेबाजी कम हो जाती है, जिससे किसानों के धन का अपव्यय घट जाता है।

प्रश्न 3.
पशुधन को भारत के लिए क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारत में विश्व के सर्वाधिक पशु पाये जाते हैं। यहाँ गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़े, खच्चर, गधे, सूअर, ऊँट, याक इत्यादि पशु पाये जाते हैं, जो अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में बड़ी संख्या में मवेशी पाये जाते हैं। इनसे कृषि में बहुत सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त यातायात, दूध, मांस इत्यादि के लिए भी इनका बहुत महत्त्व है। पशुओं के गोबर से खाद, ईंधन, खालें, चमड़ा, ऊन इत्यादि पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। पशुओं की खालें, चमड़ा तथा ऊन उपयोगी निर्यात पदार्थ हैं, जिनसे विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है तथा ऊन उद्योग, जूता उद्योग इत्यादि अनेक उद्योग भी विकसित होते हैं। लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोग पशुधन क्षेत्रों में मुख्य व सहायक रूप से नियुक्त हैं। पशुधन क्षेत्रों एवं सम्बन्धित उत्पादों से निर्यात आय निरन्तर बढ़ रही है।

प्रश्न 4.
‘श्वेत क्रान्ति’ या ‘ऑपरेशन फ्लड क्या है और इसका क्या महत्त्व है ?
या
‘ऑपरेशन फ्लड’ का क्या तात्पर्य है? उसके दो लाभ बताइए। [2015]
या
‘ऑपरेशन फ्लड’ का क्या तात्पर्य है? इसके दो महत्त्वों का उल्लेख कीजिए। [2015]
या
‘ऑपरेशन फ्लड से आप क्या समझते हैं? भारतीय ग्रामीण विकास में इसके किन्हीं योगदान का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :
‘ऑपरेशन फ्लड’ या ‘श्वेत क्रान्ति’ से तात्पर्य दुग्ध-उत्पादन में आशातीत प्रगति से है। समेकित ग्रामीण विकास का यह एक प्रमुख अंग है। इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  • देश में दुग्ध उत्पादन तथा दुग्ध उत्पादों (दही, मक्खन, पनीर, घी आदि) की वृद्धि करना।
  • छोटे किसानों की आय में वृद्धि करना।
  • देश में दूध के संग्रह (एकत्रण) तथा वितरण की व्यवस्था करना।
  • ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना।

तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि तथा नगरीय जनसंख्या की बढ़ती आवश्यकता को देखते हुए दुग्ध उत्पादन में और अधिक वृद्धि होनी चाहिए। इसके लिए ‘ऑपरेशन फ्लड’ कार्यक्रम को भारत के प्रत्येक राज्य में तीव्र गति से चलाना आवश्यक है। देश में ‘श्वेत क्रान्ति’ के विस्तार की आवश्यकता को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है

  • देश में दूध तथा दुग्ध पदार्थों की सप्लाई को सुनिश्चित करने के लिए डेयरी विकास आवश्यक है।
  • इस क्रान्ति के द्वारा लघु तथा सीमान्त कृषकों को अतिरिक्त आय की प्राप्ति होगी।
  • पशुधन के विकास से खेतों के लिए उर्वरक तथा बायो गैस प्राप्त होगी।
  • इस क्रान्ति से ग्रामीण जनता की निर्धनता दूर होगी तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सुनिश्चित होगा।

ग्रामीण विकास में इसके योगदान अथवा महत्त्व निम्नलिखित हैं

  • सहकारी समितियाँ दूध का संग्रहण तथा विपणन करती हैं। इससे लोगों में सहकारिता की भावना बलवती हुई है।
  • डेयरी व्यवसाय के विकास से ग्रामीण एवं शहरी नागरिकों को एक-दूसरे को समझने में पर्याप्त सहायता मिली है।

प्रश्न 5.
हरित क्रान्ति की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ? या हरित क्रान्ति की तीन विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16]
या
हरित क्रान्ति की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर :
हरित क्रान्ति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • अधिकाधिक उत्पादन देने वाली फसलों का बोया जाना।
  • रासायनिक उर्वरकों का फसलों में अधिकाधिक प्रयोग करना।
  • कृषि में उन्नत बीजों तथा वैज्ञानिक यन्त्रों व उपकरणों का प्रयोग करना।
  • कृषि शिक्षा का प्रचार व प्रसार करना।
  • कृषि अनुसन्धानों की व्यवस्था करना।
  • पौध संरक्षण के लिए कीटनाशक, कृमिनाशक तथा खरपतवारनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग करना।
  • सघन कृषि जिला कार्यक्रम को अपनाया जाना।

प्रश्न 6.
भारत में हरित क्रान्ति का विस्तार क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
भारत में हरित क्रान्ति के विस्तार की आवश्यकता अनेक कारणों से है, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

  1. हमारे देश की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। प्रति 35 वर्षों में यह लगभग दो गुनी हो जाती है। इस बढ़ती हुई जनसंख्या को पोषण के लिए अत्यधिक भोजन की आवश्यकता है और यह कार्य हरित क्रान्ति द्वारा ही सम्भव है।
  2. हरित क्रान्ति सम्पन्नता का प्रतीक है, किन्तु वर्तमान समय में यह क्रान्ति देश के उत्तर-पश्चिमी भाग तक ही सीमित है। देश के अनेक भागों में कृषि पिछड़ी हुई दशा में है। इस कारण अनेक प्रदेशों का विकास असन्तुलित है। सम्पूर्ण देश को कृषि में आत्मनिर्भर बनाने के लिए सर्वत्र हरित क्रान्ति के विस्तार की आवश्यकता है।
  3. भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। अनेक उद्योग तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार भी कृषि के विकास पर निर्भर हैं। अतएव कृषि के विकास के लिए हरित क्रान्ति के विस्तार की आवश्यकता है।

प्रश्न 7.
भारत में खनन व्यवसाय के पिछड़ेपन के क्या कारण हैं ?
उत्तर :
भारत के खनन व्यवसाय के पिछड़ेपन के निम्नलिखित कारण हैं

  • भारत के अधिकांश खानों में खनन-कार्य के लिए आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग नहीं किया जाता। हमारे देश की कुल 3,600 खानों में से केवल 880 खाने ही यन्त्रीकृत हैं, जो देश के 85% खनिजों का उत्पादन करती हैं, बाकी 2,720 खानों से केवल 15% उत्पादन होता है।
  • भारत का 65% खनन व्यवसाय गैर-सरकारी हाथों में है, जिसके कारण खाने खोदने का कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं किया जाता। इससे खानों का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। इसी दृष्टि से भारत सरकार ने अभ्रक व कोयले की खानों का राष्ट्रीयकरण किया है।
  • देश में आन्तरिक जलमार्गों की कमी के कारण भारी खनिजों के परिवहन पर बहुत अधिक व्यय आता है।
  • भारत में व्याप्त खनिज पदार्थों का अभी पूर्ण सर्वेक्षण नहीं हुआ है। हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में खनिजों। के विशाल भण्डार मौजूद हैं।
  • देश में खनिजों के पूर्ण उपयोग करने के साधनों की कमी है।

प्रश्न 8.
भारत में चाय उत्पन्न करने वाले दो प्रमुख राज्यों के नाम बताए। इसके उत्पादन के लिए उपयुक्त दो भौगोलिक परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
चाय उत्पादक राज्य
भारत में चाय के उत्पादन का 75% भाग पश्चिम बंगाल (22%) एवं असोम (53%) राज्यों से; 20% चाय दक्षिणी राज्यों-तमिलनाडु (12%), केरल एवं कर्नाटक में तथा 5% उत्तर प्रदेश, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश में उगायी जाती है।
चाय उत्पादन के लिए भौगोलिक परिस्थितियाँ
1. जलवायु – चाय उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी जलवायु की उपज है। उपोष्ण कटिबन्धीय देशों द्वारा भी इसका उत्पादन किया जाता है। चाय उत्पादन के लिए निम्नलिखित जलवायु दशाएँ आवश्यक हैं
(i) तापमान – चाय की उपज के लिए 25° से 30° सेल्सियस तापमान आवश्यक होता है। पाला, कोहरा एवं शीतल पवनें इसकी फसल के लिए नुकसानदायक होती हैं। पाले से बचाव के लिए चाय के पौधे पहाड़ी ढालों पर लगाये जाते हैं।
(ii) वर्षा – चाय के पौधे के लिए 150 से 250 सेमी वर्षा अनुकूल होती है। दक्षिणी भारत में 500 सेमी वर्षा वाले भागों में पहाड़ी ढालों पर चाय की खेती की जाती है। इसके पौधों की जड़ों में जल नहीं रुकना चाहिए। यही कारण है कि चाय के पौधे पर्याप्त ऊँचाई वाले भागों में ही लगाये जाते हैं।
2. मिट्टी – चाय की कृषि के लिए दोमट मिट्टी जिसमें पोटाश, लोहा एवं जीवांशों की अधिकता हो, उपयुक्त होती है। वनों को साफ कर प्राप्त की गयी भूमि चाय की कृषि के लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं।

प्रश्न 9.
असम (असोम) चाय की खेती के लिए प्रसिद्ध है, क्यों ?
उत्तर :
असोम राज्य का चाय के उत्पादन में प्रथम स्थान है। यहाँ देश की 50% से अधिक चाय का उत्पादन किया जाता है। यह राज्य भारत में चाय उत्पादन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसके निम्नलिखित कारण हैं

  • यहाँ चाय की कृषि के लिए लाल, कछारी, उपजाऊ एवं ढालू भूमि पायी जाती है।
  • इस राज्य की मिट्टी में पोटाश, लोहांश तथा जीवांशों की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध है, जो चाय उत्पादन के लिए अति आवश्यक है।
  • असोम में चाय की कृषि के लिए तापमान 20° से 30° सेल्सियस तथा औसत वार्षिक वर्षा 250 सेमी से अधिक पायी जाती है।
  • यहाँ चाय के बागान ढालू भूमि पर लगाये जाते हैं, जिससे पौधों की जड़ों में जल नहीं ठहर पाता।
  • असोम की चाय स्वादिष्ट तथा रंग में श्रेष्ठ होती है; अत: इसकी विदेशों में अत्यधिक माँग बनी रहती है।
  • असोम में उत्पादित चाय के निर्यात से भारत को पर्याप्त विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है।

प्रश्न 10 भारत में कपास का उत्पादन मुख्यतः गुजरात तथा महाराष्ट्र राज्यों में होता है। दो कारण लिखिए।
उत्तर गुजरात एवं महाराष्ट्र राज्यों में कपास उत्पादन के दो प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1. जलवायु–कपास उष्ण कटिबन्धीय जलवायु का पौधा है। कपास उत्पादन के लिए गुजरात व महाराष्ट्र में 20 से 30° सेग्रे तापमान तथा 75 सेमी से अधिक वर्षा उपलब्ध है। दूसरे, यहाँ का पालारहित मौसम भी कपास की कृषि के लिए उपयुक्त कारण है।
2. मिंट्टी-कपास के लिए लावा से निर्मित उपजाऊ गहरी काली एवं मध्यम काली मिट्टी उपयुक्त होती है। गुजरात एवं महाराष्ट्र इस मिट्टी के प्रमुख क्षेत्र हैं। इसलिए यहाँ बड़ी मात्रा में कपास उगाया जाता है।

प्रश्न 11.
भारत में जूट की खेती के प्रमुख दो राज्यों के नाम बताइए। वहाँ इसकी खेती क्यों होती है ?
या
भारत में पटसन उद्योग के विकास के लिए उत्तरदायी दो कारकों का उल्लेख कीजिए।[2010]
उत्तर :
भारत में जूट की खेती प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल तथा बिहार में होती है। जूट के उत्पादन के लिए उच्च एवं नम जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। साधारणतया 25° से 35° सेग्रे तापमान इसके लिए आवश्यक होता है। जूट के पौधे के अंकुर निकलने के बाद अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। अत: इसकी खेती के लिए 100 से 200 सेमी या उससे भी अधिक वर्षा आवश्यक होती है। प्रति सप्ताह 2 से 3 सेमी वर्षा उपयुक्त रहती है। जूट की कृषि, भूमि के उत्पादक तत्त्वों को नष्ट कर देती है। अत: इसकी खेती उन्हीं भागों में की जाती है, जहाँ प्रति वर्ष नदियाँ अपनी बाढ़ द्वारा उपजाऊ मिट्टियों का निक्षेप करती रहती हैं। इसी कारण जूट की खेती डेल्टाई भागों में की जाती है। दोमट, कॉप एवं बलुई मिट्टियाँ भी इसके लिए। उपयुक्त रहती हैं। जूट की कृषि के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि तैयार पौधों को काटने तथा उन्हें उपयोग हेतु तैयार करने में अधिक श्रम आवश्यक होता है। ये सभी सुविधाएँ उपर्युक्त दोनों राज्यों में उपलब्ध हैं। इसीलिए इन दोनों राज्यों में जूट की खेती प्रमुखता से होती है।

प्रश्न 12.
भारत में मक्का एवं ज्वार-बाजरे की उपज के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

  • मक्का – मक्का खरीफ की फसल है तथा इसके लिए गहरी दोमट मिट्टी, 50 सेमी से 100 सेमी तक वर्षा तथा 25° सेग्रे से 30° सेग्रे तक तापमान उपयुक्त होता है। भारत में इसके प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं-उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और राजस्थान।
  • ज्वार-बाजरा – ज्वार-बाजरा भी खरीफ की फसल है। इसके लिए बलुई मिट्टी, 50 सेमी से 70 सेमी तक वर्षा तथा 25° सेग्रे से 35° सेग्रे तक तापमान उपयुक्त होता है। भारत में इसके प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं-महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान व उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 13.
कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार क्यों कहा जाता है?
उत्तर :
भारत एक कृषि-प्रधान देश है। भारत की श्रमशक्ति का 70% भाग कृषि से ही अपनी आजीविका प्राप्त कर रहा है। वर्तमान में कृषि सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 22% का योगदान करती है। देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान 14% है। अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। भारत में कृषि द्वारा ही आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास हुआ है। इसीलिए कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार है।

प्रश्न 14.
भारतीय फसलों में विविधता पाए जाने के क्या कारण हैं?
उत्तर :
भारत विविध प्रकार की फसलों के उत्पादन में पूरी तरह समर्थ है, जिसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी रहे हैं

  1. भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 51% भाग कृषि योग्य है। यह कृषि योग्य क्षेत्रफल उत्तर का विशाल मैदान, तटीय मैदान, नदी-घाटियाँ एवं डेल्टाई प्रदेश हैं।
  2. भारतीय कृषि ‘मानसून का जुआ’ कहलाती है। अत: बढ़ते हुए मानसून तथा लौटते हुए मानसूनों द्वारा फसलें भी विविध प्रकार की पैदा की जाती हैं।
  3. देश में वर्ष भर फसलों की बुवाई या बोने का समय रहता है अर्थात् कभी भी फसल बोई जा सकती है। फलस्वरूप विविध प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं।
  4. भारत में कृषि फसलों के उत्पादन में मृदा (मिट्टी) की प्रमुख भूमिका रहती है। देश में मिट्टियों की । विभिन्नता पाई जाने के कारण फसलों में भी विविधता पाई जाती है।
  5. देश में जलवायु दशाओं की विभिन्नता के कारण फसलों के उत्पादन में भी विविधता पाई जाती है।

प्रश्न 15.
भारतीय कृषि में शुष्क कृषि का विकास क्यों अनिवार्य है?
उत्तर :
आज भी भारतीय कृषि मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है तथा मानसून का जुआ’ कहलाती है। यद्यपि देश में सिंचाई साधनों का पर्याप्त विकास हो चुका है तो भी सम्पूर्ण प्रयासों के बाद भी सिंचित क्षेत्रफल मात्र 35.7% ही हो पाया है। भारत में कृषि योग्य भूमि के मात्र 10% क्षेत्रफल में ही पर्याप्त वर्षा होती है तथा 30% भागों में सामान्य से बहुत-ही कम वर्षा होती है।

भारत में कम वर्षा वाले अधिकांश क्षेत्रों में सिंचाई द्वारा जल आज भी प्राप्त नहीं होता है। अतः ऐसे क्षेत्रों में शुष्क कृषि का विकास किया जाना अति आवश्यक है। ‘शुष्क कृषि, कृषि की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें भूमि की नमी को बनाए रखा जाता है तथा फसलों को भी सूखने नहीं दिया जाता है। इसके लिए वर्षा से पूर्व खेतों को जोत लिया जाता है तथा उनकी मेड़बन्दी कर दी जाती है। खेतों की जुताई भी समोच्च (समान ऊँचाई) विधि से की जानी चाहिए। ऐसा करने से वर्षा का जल बह नहीं सकेगा तथा मिट्टी उस जल को पर्याप्त मात्रा में सोख लेगी। खेतों में जुताई-बुवाई के पश्चात् पटेला (भूमि को समतल बना देना) देना चाहिए, जिससे मिट्टी से वाष्पन क्रिया न हो सके।

तिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के लिए कृषि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। आज भी भारत की दो-तिह्मई जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि ही है। भारतीय कृषि में खाद्यान्न फसलों की प्रधानता रहती है तथा अधिकांश उत्पादन घरेलू खपत के लिए होता है। वर्तमान समय में किये गये विभिन्न प्रयासों के द्वारा भारतीय कृषि अपने निर्वाहमूलक स्वरूप को छोड़कर व्यापारिक स्वरूप में बदलती जा रही है।

प्रश्न 2.
 भारत में कृषि की दो मुख्य ऋतुएँ कौन-सी हैं ? प्रत्येक ऋतु की दो फसलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
रबी (शीतकालीन) तथा खरीफ (ग्रीष्मकालीन) कृषि की दो मुख्य ऋतुएँ हैं। गेहूँ तथा जौ रबी की फसलें हैं तथा चावल और मक्का खरीफ की फसलें हैं।

प्रश्न 3.
रबी की तीन मुख्य फसलों के नाम लिखिए। [2010, 12]
या
रबी की प्रमुख फसलें कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर :
गेहूँ, जौ, मटर, सरसो, अलसी, मसूर तथा चना रबी की मुख्य फसलें हैं। ये फसलें अक्टूबर तथा नवम्बर में बोयी जाती हैं।

प्रश्न 4.
खरीफ की तीन मुख्य फसलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
चावल, कपास तथा जूट खरीफ की मुख्य फसलें हैं।

प्रश्न 5.
रेशेदार फसलों के तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
कपास, जूट, नारियल प्रमुख रेशेदार फसलें हैं।

प्रश्न 6.
नकदी या व्यापारिक फसलों के तीन उदाहरण दीजिए। [2014, 17]
उत्तर :
कपास, जूट तथा गन्ना भारत की प्रमुख नकदी या व्यापारिक फसलें हैं।

प्रश्न 7.
दक्षिण भारत के किन राज्यों में कहवा मुख्यतः उगाया जाता है ?
उत्तर :
दक्षिण भारत के कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल में पहाड़ी ढालों पर कहवा उगाया जाता है।

प्रश्न 8.
भारत में रबड़ का उत्पादन किस राज्य में सर्वाधिक होता है ?
उत्तर :
भारत में रबड़ का सर्वाधिक उत्पादन केरल राज्य में होता है।

प्रश्न 9.
भारत में हरित क्रान्ति की सफलता में किसने सहायता की ?
उत्तर :
भारत में हरित क्रान्ति की सफलता में अमेरिका के कृषि वैज्ञानिक श्री बोरलॉग ने सहायता की। प्रश्न 10 ‘हरित क्रान्ति’ के जन्मदाता कौन थे ? उत्तर हरित क्रान्ति के जन्मदाता अमेरिका के कृषि वैज्ञानिक श्री बोरलॉग थे।

प्रश्न 11.
भारत में सर्वप्रथम आदर्श सहकारी दुग्ध संस्था कहाँ स्थापित की गयी थी ?
उत्तर :
गुजरात राज्य के खेड़ा जिले में आनन्द में भारत की सर्वप्रथम आदर्श सहकारी दुग्ध संस्था स्थापित की गयी थी।

प्रश्न 12.
मत्स्य-ग्रहण (मत्स्योत्पादन) के दो मुख्य प्रकार कौन-से हैं ?
उत्तर :
मत्स्य-ग्रहण के दो मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं

  • सागरीय मत्स्य-ग्रहण तथा
  • आन्तरिक या स्वच्छ जलीय मत्स्य-ग्रहण।

प्रश्न 13.
भारतीय किसानों के लिए पशुओं का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारतीय किसानों के लिए पशुओं के निम्नलिखित महत्त्व हैं

  • बैल और भैंसे का प्रयोग भारवाहन के लिए किया जाता है। ये जुताई, बुवाई, गहाई तथा कृषि उत्पादों : के परिवहन में भी काम आते हैं।
  • गाय और भैंसों से दूध प्राप्त होता है। इनके गोबर से खाद बनती है।

प्रश्न 14.
भारत में चाय उत्पन्न करने वाले दो प्रमुख राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर :
असोम (53%) और पश्चिम बंगाल (22%) चाय उत्पन्न करने वाले दो प्रमुख राज्य हैं।

प्रश्न 15.
जूट उत्पादन करने वाले प्रमुख दो राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जूट का उत्पादन करने वाले दो प्रमुख राज्यों के नाम हैं-

  • पश्चिम बंगाल तथा
  • बिहार।

प्रश्न 16.
पीली क्रान्ति किससे सम्बन्धित है ?
उत्तर :
‘पीली क्रान्ति’ तिलहनों के उत्पादन से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत तिलहन उत्पादन कार्यक्रम 23 राज्यों के 337 जिलों में प्रारम्भ किया गया है।

प्रश्न 17.
कृषि की प्रमुख समस्या का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारतीय कृषि की सबसे बड़ी समस्या प्रति हेक्टेयर निम्न (कम) उत्पादकता की है।

प्रश्न 18.
भारत में कहवा उत्पन्न करने वाले किन्हीं दो राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत में कहवा का उत्पादन करने वाले दो राज्य हैं—

  • कर्नाटक तथा
  • केरल।

प्रश्न 19.
भारत में गन्ने का उत्पादन करने वाले किन्हीं दो राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत में गन्ने का उत्पादन करने वाले दो राज्यों के नाम हैं-

  • उत्तर प्रदेश और
  • तमिलनाडु

प्रश्न 20.
भारत के किन्हीं दो प्रमुख भूमि-सुधारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारत के दो प्रमुख भूमि सुधार हैं—

  • जमींदारी उन्मूलन तथा
  • चकबन्दी।

प्रश्न 21.
प्राथमिक व्यवसाय के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
प्राथमिक व्यवसाय के दो उदाहरण हैं—

  • कृषि एवं
  • मत्स्य-पालन।

प्रश्न 22.
भारत में गेहूं का सर्वाधिक उत्पादन किस प्रदेश में होता है ? [2009, 11]
उत्तर :
भारत में गेहूं का सर्वाधिक उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है।

प्रश्न 23.
भारत की कितनी प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है?
उत्तर :
भारत की 66% जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है।

प्रश्न 24.
भारत की दो प्रमुख खाद्यान्न फसलें कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :
चावल और गेहूँ भारत की दो प्रमुख खाद्यान्न फसलें हैं।

प्रश्न 25.
भारत में कपास उत्पादन के दो प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
गुजरात और महाराष्ट्र कपास उत्पादन के दो प्रमुख क्षेत्र हैं।

प्रश्न 26.
मानव के प्राथमिक व्यवसाय कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
आखेट, पशुपालन, मत्स्य पालन, कृषि तथा खनन मानव के प्राथमिक व्यवसाय हैं।

प्रश्न 27.
भारतीय जनसंख्या की जीविका का मूल आधार क्या है?
उत्तर :
भारतीय जनसंख्या की जीविका का मूल आधार कृषि है।

प्रश्न 28.
कृषि पर आधारित किन्हीं दो प्रमुख उद्योगों के नाम लिखिए। [2012, 14]
उत्तर :
कृषि पर आधारित दो प्रमुख उद्योग हैं—

  • चीनी उद्योग तथा
  • वस्त्र उद्योग।

प्रश्न 29.
भारत में चाय तथा कहवा के उत्पादन क्षेत्र बताइए। [2013]
उतर :
चाय उत्पादन के क्षेत्र–पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल।
कहंवा उत्पादन के क्षेत्र-कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश।

प्रश्न 30.
दुधारु पशु तथा भारवाहक पशु में क्या अन्तर है?
उत्तर :
दुधारु पशु दूध देते हैं तथा भारवाहकं पशु बोझा ढोने का कार्य करते हैं।

बहुविकल्पीय प्रशा

1. भारत में हरित क्रान्ति का सूत्रपात बीसवीं शताब्दी के किस दशक में हुआ था ?
(क) आठवें
(ख) छठवें
(ग) सातवें
(घ) पाँचवें

2. भारत में सर्वाधिक चाय उत्पादक राज्य है
(क) तमिलनाडु
(ख) असोम
(ग) केरल
(घ) पश्चिम बंगाल

3. निम्नलिखित में से कौन-सा जूट उत्पादक राज्य है? [2018]
या
जूट की कृषि का मुख्य राज्य है। [2016]
(क) केरल
(ख) गुजरात
(ग) पश्चिम बंगाल
(घ) उत्तर प्रदेश

4. ऑपरेशन फ्लड (श्वेत क्रान्ति) किससे सम्बन्धित है? [2010, 13, 17]
(क) गेहूँ उत्पादन
(ख) दुग्ध उत्पादन
(ग) चीनी उत्पादन
(घ) वस्त्र उत्पादन

5. निम्न में से कौन-सी बागाती फसल है?
(क) चावल
(ख) चाय
(ग) चना,
(घ) गेहूँ

6. निम्नलिखित में कौन-सी आर्थिक क्रिया प्राथमिक व्यवसाय नहीं है?
(क) लोहा-इस्पात उद्योग
(ख) मत्स्य व्यवसाये
(ग) खनन
(घ) कृषि

7. भारत की कार्यशील जनसंख्या का कितना प्रतिशत भाग कृषि कार्यों में संलग्न है?
(क) लगभग 40%
(ख) लगभग 55%
(ग) लगभग 65%
(घ) लगभग 85%

8. भारत में खरीफ की फसल के बाद कौन-सी फसली ऋतु आती है?
(क) जायद
(ख) पतझड़
(ग) रबी
(घ) शरद

9. निम्नलिखित में से कौन-सी फसल रबी की है?
(क) चना
(ख) चावल
(ग) कपास
(घ) ज्वार-बाजरा

10. भारत में आजीविका का प्रमुख स्रोत है [2012]
(क) सेवाएँ।
(ख) कृषि
(ग) उद्योग
(घ) व्यापार

11. निम्नलिखित में से किस प्रदेश में गेहूं का उत्पादन सर्वाधिक होता है? [2011]
(क) पंजाब
(ख) हरियाणा
(ग) बिहार
(घ) उत्तर प्रदेश

12. चाय की खेती के लिए कौन-सी मिट्टी सर्वाधिक उपयुक्त है? [2011]
(क) पर्वतीय मिट्टी
(ख) दोमट मिट्टी
(ग) जलोढ़ मिट्टी
(घ) लैटेराइट मिट्टी

13. कपास की खेती के लिए निम्नलिखित में से सर्वाधिक उपयुक्त मिट्टी कौन-सी है? [2013, 15]
(क) लाल मिट्टी
(ख) काली मिट्टी
(ग) लैटेराइट मिट्टी
(घ) जलोढ़ मिट्टी

14. नीली क्रांति सम्बन्धित है [2014]
(क) कृषि से
(ख) आकाश से
(ग) जल से
(घ) मत्स्य से

15. निम्नलिखित में से कौन-सी बागानी फसल है? [2015]
(क) गन्ना
(ख) कपास
(ग) जूट
(घ) कहवा

16. निम्नलिखित में से सबसे अधिक कपास उत्पन्न करने वाला राज्य कौन है? [2015, 18]
(क) हरियाणा
(ख) गुजरात
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) उत्तर प्रदेश

17. निम्नलिखित में से कौन औद्योगिक फसल है? [2015]
(क) गेहूँ
(ख) दालें
(ग) मक्का
(घ) चाय

उत्तरमाला

1. (ख), 2. (ख), 3. (ग), 4. (ख), 5. (ख), 6. (क), 7. (ग), 8. (ग), 9. (क), 10. (ख), 11. (घ), 12. (क), 13. (ख), 14. (घ), 15. (घ), 16. (ख), 17. (घ)

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