UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 लोकमान्य तिलकः (गद्य – भारती)

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UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 लोकमान्य तिलकः (गद्य – भारती)

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परिचय

बाल गंगाधर तिलक ने एक सामान्य परिवार में जन्म लिया और ‘लोकमान्य’ की उपाधि पाकर अमर हो गये। जिस बालक के माता और पिता का स्वर्गवासे क्रमशः दस और सोलह वर्ष की अवस्था में हो गया हो, उसको अपने सहारे उच्च शिक्षा प्राप्त करना, निश्चय ही आश्चर्य का विषय है। तिलक जी को सरकारी नौकरी भी मिल सकती थी और वे वकालत भी कर सकते थे; किन्तु उन्होंने सुख-सुविधा को जीवन-लक्ष्य स्वीकार नहीं किया वरन् सामान्यजन की सेवा और भारतमाता की स्वतन्त्रता को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ पत्र निकालकर इन्होंने अपने दोनों ही लक्ष्यों को प्राप्त करने का सार्थक प्रयास किया। “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इस सिंह-गर्जना हेतु तिलक जी को सदा याद रखा जाएगा। प्रखर देशभक्त तिलक जी एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। इनकी लिखी पुस्तकें-‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवास-स्थान’ आज भी विद्वज्जनों के मध्य समादृत हैं। प्रस्तुत पाठ लोकमान्य तिलक जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से छात्रों को पूर्णरूपेण परिचित कराता है और उससे प्रेरणा प्राप्त करने को प्रेरित करता है।

पाठ-सारांश [2006,07, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

नामकरण लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के सैनिकों में अग्रगण्य थे। इनका नाम ‘बाल’, पिता का नाम ‘गंगाधर’, वंश का नाम ‘तिलक’ तथा यश ‘लोकमान्य’ था—इस प्रकार इनका पूरा नाम लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि ‘बलवन्तराव’ के नाम से थी।

जन्म, माता-पिता एवं स्वभाव तिलक जी का जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्र गंगाधरराव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। इनकी माता सुशीला, धर्मपरायणा, पतिव्रता और ईश्वरभक्तिनी थीं। तिलक उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। इन्होंने महाराष्ट्र के युवकों में राष्ट्रीयता उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। इनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था।

शिक्षा तिलक जी का बचपन कष्टमय था। दस वर्ष की अवस्था में माता का और सोलह वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास हो गया था। फिर भी इन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा। ये तीक्ष्ण बुद्धि के थे और अपनी कक्षा में सबसे आगे रहते थे। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। ये गणित के कंठिन प्रश्नों को भी मौखिक ही हल कर लिया करते थे। दस वर्ष की आयु में इन्होंने संस्कृत में श्लोक-रचना सीख ली थी। कॉलेज में पढ़ते समय ये दुर्बल शरीर के थे। बाद में इन्होंने तैरने, नौका चलाने आदि के द्वारा अपना शरीर पुष्ट कर लिया था। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर ये देशसेवा और लोकसेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने पीड़ित भारतीयों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। इन्होंने आजीवन अपना मन पीड़ित प्राणियों के उद्धार में लगाया और प्रिय-अप्रिय किसी भी घटना से कभी विचलित नहीं हुए।

स्वतन्त्रता के लिए प्रयास तिलक जी ने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यह उनका प्रिय नारा था। इन्होंने राजनीतिक जागरण के लिए केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के माध्यम से इन्होंने अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए भारतीयों को प्रेरित करने के कार्य किये। यद्यपि सरकार की तीखी आलोचना के कारण इन्हें कड़ा दण्ड मिलता था तथापि किसी भी भय से इन्होंने सत्य-मार्ग को नहीं छोड़ा।

‘केसरी’ पत्र में प्रकाशित इनके तीखे लेखों के कारण इन्हें सरकार ने अठारह मास के सश्रम कारावास का कठोर दण्ड दिया। इस दण्ड के विरोध में भारत में जगह-जगह पर सभाएँ हुईं और आन्दोलन भी हुए। सम्मानित लोगों ने सरकार से प्रार्थना की, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। सन् 1908 ई० में सरकार ने इन्हें राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए माण्डले जेल में भेज दिया। वहाँ इन्होंने बहुत कष्ट सहे।

रचनाएँ माण्डले जेल में रहकर इन्होंने गीता पर ‘गीता रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इनकी अन्य रचनाएँ ‘वेदों का काल-निर्णय’ तथा ‘आर्यों का मूल निवास स्थान हैं। जेल से छूटकर ये पुनः देशसेवा के कार्य में लग गये।

मृत्यु राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहन करते हुए तिलक जी का 1977 विक्रम संवत् में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो किया, वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
लोकमान्यो बालगङ्गाधरतिलको नाम मनीषी भारतीयस्वातन्त्र्ययुद्धस्य प्रमुखसेनानीष्वन्यतमे, आसीत्। ‘बालः’ इति वास्तविकं तस्याभिधानम्। पितुरभिधानं, ‘गङ्गाधरः’ इति वंशश्च ‘तिलकः’ एवञ्च ‘बालगङ्गाधर तिलकः’ इति सम्पूर्णमभिधानं, किन्तु ‘लोकमान्य’ विरुदेनासौ विशेषेण प्रसिद्धः। यद्यप्यस्य जन्मनाम ‘केशवराव’ आसीत् तथापि लोकस्तं ‘बलवन्तराव’ इत्यभिधया एव ज्ञातवान्। शब्दार्थ मनीषी = विद्वान्। अन्यतमः = अद्वितीय, प्रमुख अभिधानम् = नाम। विरुदेन = यश से, प्रसिद्धि से। अभिधया = नाम से। ज्ञातवान् = जाना।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यावतरण में तिलक के ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ नाम पड़ने का कारण बताया गया है।

अनुवाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक नाम के विद्वान् भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक थे। उनका ‘बाल’ वास्तविक नाम था। पिता का नाम ‘गंगाधर’ और वंश ‘तिलक था। इस प्रकार ‘बाल गंगाधर तिलक’ यह पूरा नाम था, किन्तु ‘लोकमान्य’ के यश से ये विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। यद्यपि इनका जन्म का नाम ‘केशवराव’ था, तथापि लोग उन्हें ‘बलवन्तराव’ इस नाम से भी जानते थे।

(2)
एष महापुरुषस्त्रयोदशाधिकनवदशशततमे विक्रमाब्दे (1913) आषाढमासे कृष्णपक्षे षष्ठ्यां तिथौ सोमवासरे महाराष्ट्रप्रदेशे रत्नगिरिमण्डलान्तर्गत ‘चिरवल’ संज्ञके ग्रामे जन्म लेभे। चितपावनः दाक्षिणात्यब्राह्मणकुलोत्पन्नस्य पितुर्नाम ‘श्री रामचन्द्रगङ्गाधर राव’ इत्यासीत्। सः कुशलोऽध्यापकः आसीत्। गङ्गाधरः स्वपुत्रं तिलकं बाल्ये एव गणितं मराठीभाषां संस्कृतचापाठयत्। अस्य जननी ‘श्रीमती पार्वतीबाई’ परमसुशीला, पतिव्रतधर्मपरायणा, ईश्वरभक्ता, सूर्योपासनायाञ्च रता बभूव। येनायं बालस्तेजस्वी बभूव इति जनाश्चावदन्। अस्य कार्यक्षेत्रं महाराष्ट्रप्रदेशः विशेषेणासीत्। स महाराष्ट्र उग्रराष्ट्रियतायाः जन्मदाता वर्तते स्म। तिलको महाराष्ट्र-नवयुवकेषु देशभक्ति-आत्मबलिदान आत्मत्यागस्य भावनां जनयितुं देशहितायानेकानि कार्याणि सम्पादितवान्। तस्य स्वभावः धीरः गम्भीरः निर्भयश्चासीत्। तस्य जीवने वीरमराठानां प्रभावः पूर्णरूपेणाभवत्।।

शब्दार्थ त्रयोदशाधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ तेरह में। संज्ञके ग्रामे = नाम वाले गाँव में चितपावनः = परम पवित्र। संस्कृतञ्चापाठयत् = और संस्कृत पढ़ायी। सूर्योपासनायाञ्च = और सूर्य की पूजा में। जनयितुम् = उत्पन्न करने के लिए। सम्पादितवान् = किये। निर्भयश्चासीत् = और निर्भय था।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जन्म, माता-पिता का नाम एवं उनके स्वभाव का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस महापुरुष ने 1913 विक्रम संवत् में आषाढ़ महीने में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथि को सोमवार के दिन महाराष्ट्र प्रदेश में रत्नगिरि जिले के अन्तर्गत ‘चिरबल’ नामक ग्राम में जन्म लिया था। हृदय को पवित्र करने वाले दाक्षिणात्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पिताजी का नाम श्री रामचन्द्र गंगाधरराव’ था। वे कुशल अध्यापक थे। गंगाधर ने अपने पुत्र तिलक को बचपन में ही गणित, मराठी भाषा और संस्कृत भाषा पढ़ायी। इनकी माता श्रीमती पार्वतीबाई अत्यन्त सुशीला, पातिव्रत धर्म में परायणा, ईश्वरभक्तिनी और सूर्योपासना में लगी रहती थीं। इसी से यह बालक तेजस्वी हुआ, ऐसा लोग कहते थे। इनका कार्य-क्षेत्र विशेष रूप से महाराष्ट्र प्रदेश था। वे महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। तिलक ने महाराष्ट्र के नवयुवकों में देशभक्ति, आत्म-बलिदान, आत्म-त्याग की भावना उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। उनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था। उनके जीवन पर पूर्णरूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

(3)
अस्य बाल्यकालोऽतिकष्टेन व्यतीतः। यदा स दशवर्षदेशीयोऽभूत तदा तस्य जननी परलोकं गता। षोडशवर्षदेशीयो यदा दशम्यां कक्षायामधीते स्म तदा पितृहीनो जातोऽयं शिशुः। एवं नानाबाधाबाधितोऽपि सोऽध्ययनं नात्यजत्। विपद्वायुः कदापि तस्य धैर्यं चालयितुं न शशाक। अस्मिन्नेव वर्षे तेन प्रवेशिका परीक्षा समुत्तीर्णा। इत्थमस्य जीवनं प्रारम्भादेव सङ्घर्षमयमभूत्। [2006, 12]

शब्दार्थ पुरलोकंगता = स्वर्गवास हो गया। अधीते स्म = पढ़ते थे। नानाबाधाबाधितोऽपि = अनेक प्रकार की बाधाओं से बाधित होते हुए भी। नात्यजत् = नहीं छोड़ा। विपद्-वायुः = विपत्तिरूपी वायु। चालयितुम् = चलाने के लिए, डिगाने के लिए। अस्मिन्नेव वर्षे = इसी वर्ष में।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के प्रारम्भिक जीवन के संघर्षमय होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनका बाल्यकाल अत्यन्त कष्ट से बीता। जब वे दस वर्ष के थे, तब उनकी माता परलोक सिधार गयी थीं। सोलह वर्ष के जब यह दसवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब यह पिता से विहीन हो गये। इस प्रकार अनेक बाधाओं के आने पर भी उन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। विपत्तिरूपी वायु कभी उनके धैर्य को नहीं डिगा सकी। इसी वर्ष उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षपूर्ण था।

(4)
बाल्यकालादेवायं पठने कुशाग्रबुद्धिः स्वकक्षायाञ्च सर्वतोऽग्रणीरासीत्। संस्कृत-गणिते तस्य प्रियविषयौ आस्ताम्। छात्रावस्थायां यदाध्यापकः गणितस्य प्रश्नं पट्टिकायां लेखितुमादिशति तदा से कथयति स्म। किं पट्टिकायां लेखनेन, मुखेनैवोत्तरं वदिष्यामि। स गणितस्य कठिनप्रश्नानां मौखिकमेवोत्तरमवदत्। परीक्षायां पूर्वं क्लिष्टप्रश्नानां समाधानमकरोत्। दशमे वर्षेऽयं शिशुः संस्कृतभाषायां नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति प्रादर्शयत्। [2008,09,12,14]

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिः = तेज बुद्धि वाला। सर्वतोऽग्रणीः = सबसे आगे। पट्टिकायां = पट्टी (स्लेट) पर। लेखितुमादिशति = लिखने के लिए आज्ञा देते थे। मुखेनैवोत्तरं = मुख से ही उत्तर। नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति = नये श्लोकों को बनाने (रचना करने) की शक्ति प्रादर्शयत् = प्रदर्शित की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के कुशाग्रबुद्धि होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बचपन से ही ये पढ़ने में तीक्ष्ण बुद्धि और अपनी कक्षा में सबसे आगे थे। संस्कृत और गणित उनके प्रिय विषय थे। छात्रावस्था में जब अध्यापक इन्हें गणित के प्रश्न पट्टी (स्लेट) पर लिखने के लिए आज्ञा देते थे, तब वे कहते थे—स्लेट पर लिखने से क्या (लाभ)? मैं मौखिक ही उत्तर बता दूंगा। वह गणित के कठिन प्रश्नों का मौखिक ही उत्तर बता देते थे। परीक्षा में वे पहले कठिन प्रश्नों को हल करते थे। दसवें वर्ष में इस बालक ने संस्कृत में नये श्लोक रचने की शक्ति प्रदर्शित कर दी थी।

(5)
महाविद्यालये प्रवेशसमये स नितरां कृशगात्र आसीत्। दुर्बलशरीरेण स्वबलं वर्धयितुं नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन स्वगात्रं सुदृढं सम्पादितवान्। सहजैव चास्य महाप्राणताऽऽविर्बभूव। तत आजीवनं नीरोगतायाः निरन्तरमानन्दमभजत्। [2012]

शब्दार्थ नितरां = अत्यधिक कृशगात्र = दुर्बल शरीर वाले। वर्धयितुम् = बढ़ाने के लिए। नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन = नदी में तैरने, नाव चलाने आदि अनेक क्रिया-कलापों से। महाप्राणताऽऽविर्बभूव = अत्यधिक शक्तिशालित उत्पन्न हो गयी। निरन्तरमानन्दमभजत् = लगातार आनन्द को प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के व्यायाम आदि द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद महाविद्यालय में प्रवेश के समय वे अत्यधिक दुर्बल शरीर के थे। कमजोर शरीर से अपना बल बढ़ाने के लिए नदी में तैरना, नाव चलाना आदि अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों से उन्होंने अपने शरीर को बलवान् बनाया। इनमें स्वाभाविक रूप से ही महान् शक्ति उत्पन्न हो गयी। तब जीवनभर नीरोगिता का निरन्तर आनन्द प्राप्त किया।

(6)
विंशतितमे वर्षे बी०ए० ततश्च वर्षत्रयानन्तरम् एल-एल०बी० इत्युभे परीक्षे सबहुमानं समुत्तीर्य , देशसेवानुरागवशाद् राजकीय सेवावृत्तिं अधिवक्तुः (वकालत) वृत्तिञ्च विहाय लोकसेवाकार्ये.. संलग्नोऽभवत्। भारतभूमेः पीडितानां भारतीयानाञ्च कृतेऽयं स्वजीवनमेव समर्पयत्। पीडितानां करुणारवं श्रुत्वा स नग्नपादाभ्यामेवाधावत्। एतादृशा ऐव महोदया ऐश्वर्यशालिनो भवन्ति। पठनादारभ्याजीवनं स स्वधियं सर्वसत्त्वोदधृतौ निदधे। प्रिययाप्रियया वा कयापि घटनया स स्वमार्गच्युतो न बभूव। “सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता” इति तस्य आदर्शः।

शब्दार्थ उभे = दोनों। सबहुमानम् = सम्मानसहित देशसेवानुरागवशात् = देशसेवा के प्रेम के कारण। अधिवक्तुः = वकालता वृत्तिम् = आजीविका को। विहाय = छोड़कर। कृते = के लिए। करुणारवम् = करुण स्वर नग्नपादाभ्यामेवाधावत् = नंगे पैरों ही दौड़ते थे। पठनादारभ्याजीवनं = पढ़ने से लेकर जीवन भर स्वधियम् = अपनी बुद्धि को। सर्वसत्त्वोधृतौ = सब प्राणियों के उद्धार में निदधे = लगाया। प्रिययाप्रियया = प्रिय और अप्रिय से। स्वमार्गच्युतः = अपने मार्ग से च्युत होने वाले।

प्रसंग” प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के देश-प्रेम एवं मानवता की सेवा किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बीसवें वर्ष में बी०ए० और उसके तीन वर्ष पश्चात् एल-एल० बी० ये दोनों परीक्षाएँ सम्मानसहित उत्तीर्ण करके, देशसेवा के प्रेम के कारण सरकारी नौकरी और वकालत के पेशे को छोड़कर, लोकसेवा के कार्य में संलग्न हो गये। भारत-भूमि के पीड़ित भारतीयों के लिए इन्होंने अपना जीवन ही अर्पित कर दिया। पीड़ितों के करुण स्वर को सुनकर वे नंगे पैर ही दौड़ पड़ते थे। इस प्रकार के ही महापुरुष ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं। पढ़ने से लेकर जीवनपर्यन्त उन्होंने अपनी बुद्धि को सभी प्राणियों के उद्धार में लगाया। प्रिय या अप्रिय किसी घटना से वे कभी अपने मार्ग से च्युत (हटे) नहीं हुए। “सम्पत्ति (सुख) में और विपत्ति (दुःख) में महापुरुष एक-से रहते हैं, यह उनका आदर्श था।

(7)
सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः पाठमपाठयत्”स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः” इति घोषणामकरोत्। स्वराज्यप्राप्त्यर्थं घोरमसौ क्लेशमसहत लोकमान्यो राजनीतिकजागर्तेरुत्पादनार्थं देशभक्तैः सह मिलित्वा मराठीभाषायां ‘केसरी’ आङ्ग्लभाषायाञ्च ‘मराठा’ साप्ताहिकं पत्रद्वयं प्रकाशयामास। तेन स्वप्रकाशितपत्रद्वयद्वारा आङ्ग्लशासनस्य सत्यालोचनं राष्ट्रियशिक्षणं वैदेशिकवस्तूनां बहिष्कारः स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च प्रचालिताः। स स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकार इति सिद्धान्तञ्च प्रचारयामास। एतयोः साप्ताहिकपत्रयोः सम्पादने सञ्चालने चायं यानि दुःखानि सहते स्म तेषां वर्णनं सुदुष्करम्। शासनस्य तीव्रालोचनेन पुनः पुनरयं शासकैर्दण्डयते स्म। कदापि कथमपि लोभेन, भयेन, मदेन, मात्सर्येण वा सत्पक्षस्यानुसरणं नात्यजत्। एवं शासकैः कृतानि स बहूनि कष्टानि असहत।

सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः …………………………………………….. प्रचारयामास। [2006]

शब्दार्थ पाठमपाठयत् = पाठ पढ़ाया। स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः = स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। क्लेशम् = कष्ट| जागर्तेरुत्पादनार्थं = जागृति को उत्पन्न करने के लिए प्रकाशयामास = प्रकाशित किया| सत्यालोचनं = सच्ची आलोचना। स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च = और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग। प्रचालिताः = प्रचलित किये गये। प्रचारयामास = प्रचार किया। सुदुष्करम् = अत्यन्त कठिन है। पुनः पुनः अयं = बार-बार ये। मात्सर्येण = ईर्ष्या के द्वारा। सत्पक्षस्य = सत्य के पक्ष का। नात्यजत् = नहीं छोड़ा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए किये गये कार्यों और सहे गये कष्टों का मार्मिक वर्णन है।

अनुवाद उन्होंने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह घोषणा की। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इन्होंने भयानक कष्ट सहे। लोकमान्य ने राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए देशभक्तों के साथ मिलकर मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ ये दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित दोनों पत्रों द्वारा अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और अपने देश की वस्तुओं का उपयोग प्रचलित किया (चलाया)। उन्होंने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ इस सिद्धान्त का प्रचार किया। इन दोनों साप्ताहिक पत्रों के सम्पादन और संचालन में उन्होंने जिन कष्टों को सहा, उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। शासन की तीव्र आलोचना से वे बार-बार शासकों के द्वारा दण्डित हुए। (उन्होंने) कभी किसी प्रकार लोभ, भय, अहंकार या ईर्ष्या से सच्चे पक्ष का अनुसरण करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार उन्होंने शासकों के द्वारा किये गये बहुत से कष्टों को सहा।।

(8)
‘केसरी’ पत्रस्य तीक्ष्णैर्लेखैः कुपिताः शासकाः तिलकमष्टादशमासिकेन सश्रम-कारावासस्य दण्डेनादण्डयन्। अस्य दण्डस्य विरोधाय भारतवर्षे अनेकेषु स्थानेषु सभावर्षे सभा सजाता। देशस्य सम्मान्यैः पुरुषैः लोकमान्यस्य मुक्तये बहूनि प्रार्थनापत्राणि प्रेषितानि। अयं सर्वप्रयासः विफलो जातः। शासकः पुनश्च 1908 खीष्टाब्दे तिलकमहोदयं राजद्रोहस्यापराधे दण्डितं कृतवान्। षड्वर्षेभ्यः दण्डितः स द्वीपनिर्वासनदण्डं बर्मादेशस्य माण्डले कारागारे कठोरकष्टानि सोढवा न्याय्यात् पथो न विचचाल।।

शब्दार्थ तीक्ष्णैः = तीखे। अष्टादशमासिकेन = अठारह महीने के। मुक्तये = छुटकारे के लिए। प्रेषितानि = भेजे। राजद्रोहस्यापराधे = राजद्रोह के अपराध में। सोढ्वा = सहकर। न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। न विचचाल = विचलित नहीं हुए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता के लिए सहे गये कष्टों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘केसरी’ पत्र के तीखे लेखों से क्रुद्ध हुए शासकों ने तिलक जी को अठारह मास के सश्रम कारावास के दण्ड से दण्डित किया। इस दण्ड के विरोध के लिए भारतवर्ष में अनेक स्थानों पर सभाएँ हुईं। देश के सम्मानित लोगों ने लोकमान्य जी की मुक्ति के लिए बहुत-से प्रार्थना-पत्र भेजे। यह सारा प्रयास विफल हो गया। शासकों ने फिर से सन् 1908 ईस्वी में तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में दण्डित किया। छ: वर्षों के लिए दण्डित वे (भारत) द्वीप से निकालने (निर्वासन) के दण्ड को बर्मा देश की माण्डले जेल में कठोर कष्टों को सहकर भी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं हुए।

(9)
अत्रैव निर्वासनकाले तेन विश्वप्रसिद्धं गीतारहस्यं नाम गीतायाः कर्मयोग-प्रतिपादकं नवीनं भाष्यं रचितम्। कर्मसु कौशलमेव कर्मयोगः, गीता तमेव कर्मयोगं प्रतिपादयति। अतः सर्वे जनाः कर्मयोगिनः स्युः इति तेन उपदिष्टम्। कारागारात् विमुक्तोऽयं देशवासिभिरभिनन्दितः। तदनन्तरं स ‘होमरूल’ सत्याग्रहे सम्मिलितवान्। इत्थं पुनः स देशसेवायां संलग्नोऽभूत्। ‘गीता रहस्यम्’, ‘वेदकालनिर्णयः’, ‘आर्याणां मूलवासस्थानम्’ इत्येतानि पुस्तकानि तस्याध्ययनस्य गाम्भीर्यं प्रतिपादयन्ति।

अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. अभिनन्दितः।
अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. संलग्नोऽभूत्। [2012]

शब्दार्थ निर्वासनकाले = देश-निकाले के समय में। प्रतिपादयति = सिद्ध करती है। कर्मयोगिनः = कर्मयोगी। विमुक्तोऽयं = छूटे हुए थे। गाम्भीर्यम् = गम्भीरता को। प्रतिपादयन्ति = बतलाती हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कारावास के समय में तिलक जी के द्वारा रचित ग्रन्थों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद यहीं पर निर्वासन के समय में उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ नाम का कर्मयोग का प्रतिपादन करने वाला गीता का नया भाष्य रचा। कर्मों में कुशलता ही कर्मयोग है। गीता उसी कर्मयोग का प्रतिपादन करती है। अत: सभी लोगों को कर्मयोगी होना चाहिए, ऐसा उन्होंने उपदेश दिया। कारागार से छूटे हुए इनका देशवासियों ने अभिनन्दन किया। इसके बाद वे ‘होमरूल’ सत्याग्रह में सम्मिलित हुए। इस प्रकार पुनः वे देशसेवा में लग गये। ‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’, आर्यों का मूल-निवास स्थान’-ये पुस्तकें उनके अध्ययन की गम्भीरता को बताती हैं।

(10)
देशोद्धारकाणामग्रणीः स्वराष्ट्रायानेकान् क्लेशान् सहमानः लोकमान्यः सप्तसप्तत्यधिक नवदशशततमे विक्रमाब्दे (1977) चतुष्पष्टिवर्षावस्थायामगस्तमासस्य प्रथमदिनाङ्के नश्वरं शरीरं परित्यज्य दिवमगच्छत। एवं कर्तव्यनिष्ठो निर्भयः तपस्विकल्पो महापुरुषो लोकमान्य तिलको भारतदेशस्योद्धरणाय यदकरोत् तत्तु वृत्तं स्वर्णाक्षरलिखितं भारतस्वातन्त्र्येतिहासे सदैव प्रकाशयिष्यते। केनापि कविना सूक्तम् दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या, चिन्ता परेषां सुखवर्धनाय। परावबोधाय वचांसि यस्य, वन्द्यस्त्रिलोकी तिलकः स एव ।

शब्दार्थ देशोद्धारकाणामग्रणीः = देश का उद्धार करने वालों में प्रमुख सहमानः = सहते हुए। सप्तसप्तत्यधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ सतहत्तर में। परित्यज्य = छोड़कर। दिवम् = स्वर्ग को। अगच्छत् = गये। तपस्विकल्पः = तपस्वी के समान। वृत्तम् = वृत्तान्त स्वर्णाक्षरलिखितम् = सोने के अक्षरों में लिखा गया है। प्रकाशयिष्यते = प्रकाशित करेगा। सूक्तम् = ठीक कहा है। सुकृताय = पुण्य करने के लिए, उत्तम कर्मों के लिए। परावबोधाय = दूसरों के ज्ञान के लिए। वन्द्यः = नमस्कार के योग्य

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जीवन के अन्तिम दिनों और उनके राष्ट्रीय महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद देश का उद्धार करने वालों में अग्रणी, अपने राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहते हुए लोकमान्य तिलक विक्रम संवत् 1977 में 64 वर्ष की अवस्था में 1 अगस्त को नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ, निडर, तपस्वी के समान महापुरुष लोकमान्य तिलक ने भारत देश के उद्धार के लिए जो किया, वह वृत्तान्त स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदा ही चमकता रहेगा। किसी कवि ने ठीक कहा हैजिसकी लक्ष्मी दान के लिए, विद्या शुभ कार्य के लिए, चिन्ता दूसरों का सुख बढ़ाने के लिए, वचन दूसरों के ज्ञान के लिए होते हैं, वही तीनों लोकों का तिलक (श्रेष्ठ) व्यक्ति वन्दना के योग्य है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकमान्य तिलक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में लिखिए।
या
तिलक के पिता का क्या नाम था? [2008]
या
तिलक का जन्म कब और कहाँ पर हुआ था? [2009]
उत्तर :
तिलक जी को जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ कृष्णपक्ष षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्रगंगाधर राव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक जीवन बड़े कष्ट से बीता। इसके बावजूद इन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। गणित के प्रश्नों को ये
मौखिक ही हल कर लिया करते थे। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर इन्होंने देश-सेवा की
और पीड़ित भारतीयों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

प्रश्न 2.
तिलक जी द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकों के नाम लिखिए।
या
‘गीता-रहस्य’ किसकी रचना है? [2007,11]
या
लोकमान्य के गीता भाष्य का क्या नाम है? [2007]
उत्तर :
सन् 1908 ई० में अंग्रेजी सरकार ने तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में छः वर्ष के लिए माण्डले जेल भेज दिया। जेल में इन्होंने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ पर ‘गीता-रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवासस्थान’ शीर्षक पुस्तकें भी लिखीं।

प्रश्न 3.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तिलक जी के योगदान को ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
या
लोकमान्य तिलक के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
तिलक के सामाजिक कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी तिलक जी सरकारी नौकरी और वकालत का लोभ छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने अनेक आन्दोलनों का संचालन किया तथा जेल-यात्राएँ भी कीं। तिलक जी ने भारतवासियों को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, यह इनका प्रिय नारा था। राजनीतिक जागरण के लिए इन्होंने केसरी (मराठी में) और मराठा (अंग्रेजी में) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने अंग्रेजी शासन की तीखी आलोचना करने के साथ-साथ भारतीयों को राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो कार्य किये वे भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे।

प्रश्न 4.
तिलक का पूरा नाम व उनकी घोषणा लिखिए। [2012, 13]
उत्तर :
तिलक का पूरा नाम “लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि बलवन्तराव’ के नाम से थी। इनकी घोषणा थी-“स्वराज्यम् अस्माकं जन्मसिद्धः अधिकारः”, अर्थात् स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘गीतारहस्यम्’ कस्य रचना अस्ति? [2013]
उत्तर :
‘गीतारहस्यम्’ लोकमान्य-बालगङ्गाधर-तिलकस्य रचना अस्ति।। [ ध्यान दें-‘गद्य-भारती’ से संस्कृत-प्रश्न पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]

प्रश्न 6.
तिलक का स्वभाव कैसा था? [2006]
या
तिलक जी के जीवन पर किनका प्रभाव था? [2008,09, 14]
उत्तर :
तिलक का स्वभाव, धीर, गम्भीर एवं निडर था। उनके जीवन पर पूर्ण रूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

प्रश्न 7.
तिलक के किस पत्र के लेखों से कुपित अंग्रेजों ने उनको 18 मास का सश्रम कारावास दिया था? [2010]
उत्तर :
तिलक जी के ‘केसरी’ (मराठी भाषा) में प्रकाशित तीखे लेखों के कारण अंग्रेजी सरकार ने इन्हें अठारह मास के सश्रम कारावास को दण्ड दिया था। इसके विरोध में देशभर में सभाएँ और आन्दोलन हुए।

प्रश्न 8.
‘स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह नारा भारतीयों को जाग्रत करने के लिए दिया था। उनका मानना था कि ईश्वर ने सबको समान रूप से जन्म देकर उनके समान पोषण की व्यवस्था की है, अर्थात् ईश्वर ने सभी को समान रूप से स्वतन्त्र बनाया है। तब हमारे समान ही जन्म लेने वाले मनुष्यों को हम पर शासन करने का अधिकार कैसे हो सकता है। स्वतन्त्रता तो प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, जिसे हमें जन्म से ही प्रकृति ने प्रदान किया है। अतः हम सबको इस अधिकार को प्रत्येक स्थिति में प्राप्त करना ही चाहिए।

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