UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 2 आत्मज्ञः एव सर्वज्ञः

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 2 आत्मज्ञः एव सर्वज्ञः

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अवतरणों का सन्दर्भ अनुवाद

(1) याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच ………………………….. उवाच-नेति।

[ उवाच = बोले। उद्यास्यन् अस्मि = ऊपर जाने वाला हूँ (इस गृहस्थाश्रम को छोड़कर ऊपर के आश्रम अर्थात् संन्यासाश्रम में जाने वाला हूँ)। अस्मात् स्थानात् = इस स्थान से (इस गृहस्थाश्रम से)। ततस्तेऽनया (ततः + ते + अनया) = तो तुम्हारा इस। विच्छेदम् = (सम्पत्ति का) बँटवारा। यदीयम् (यदि + इयम्) = यदि यह। तेनाहममृता (तेन + अहम् + अमृता) = उससे मैं अमर ]

सन्दर्भ-हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ में संकलित यह गद्यांश’ आत्मज्ञ एव सर्वज्ञः’ पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद-(ऋषि) याज्ञवल्क्य ने (अपनी पत्नी) मैत्रेयी से कहा-“मैत्रेयी! मैं इस स्थान (गृहस्थाश्रम) से ऊपर (संन्यासाश्रम में) जाने वाला हूँ, तो मैं तेरा इस (अपनी दूसरी पत्नी) कात्यायनी के साथ विच्छेद ((सम्पत्ति का बँटवारा) कर दें।” मैत्रेयी बोली-“यदि इस धन से सम्पन्न सारी पृथ्वी मेरी हो जाए तो क्या मैं उससे अमर हो सकती हूँ ?’ याज्ञवल्क्य ने कहा-“नहीं।’

(2) यथैवोपकरणवतां जीवनं ………………………… अमृतत्व साधनम्।

[ यथैवोपकरणवताम् (यथा + एव + उपकरणवताम्) = वैसा ही जैसा धनिकों को। उपकरण = साधन उपकरणवताम् = साधनसम्पन्नों (या धनिकों का)। नाशास्ति (न + आशा + अस्ति) = आशा नहीं है। ]

सन्दर्भ-पूर्ववत्।।
अनुवाद–“जैसा साधनसम्पन्नों (धनिकों) का जीवन होता है, वैसा ही तुम्हारा भी जीवन होगा। धन से अमरता की आशा नहीं है।” (जैसे सभी धनवान् लोगों का अध्यात्म की ओर ध्यान ही नहीं है, वैसी ही तुम भी हो।) (तब) उस मैत्रेयी ने कहा–“जिससे मैं अमर न हो सकें, उसे (लेकर) क्या करूंगी?” भगवान् (आप) जो केवल अमरता (की प्राप्ति) का साधन जानते हो, वही मुझे बताएँ।” याज्ञवल्क्य बोले-“तू (पहले भी) मेरी प्रिया रही है और (इस समय भी) प्रिय बोल रही है (मुझे अच्छी लगने वाली बात कह रही है)। आ बैठ, तुझसे अमृतत्व (अमरता-प्राप्ति) के साधन की व्याख्या करूंगा।”

(3) याज्ञवल्क्य उवाच ……………………… विदितं भवति।
याज्ञवल्क्य उवाच …………………… सर्वं प्रियं भवति। | [2015]

[ कामाय = कामना के लिए (इच्छापूर्ति के लिए)। निदिध्यासितव्यः = ध्यान करने योग्य। ]

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
अनुवाद-याज्ञवल्क्य बोले-“अरी मैत्रेयी! पति की इच्छापूर्ति के लिए (नारी को) पति प्रिय नहीं होता, अपनी ही इच्छापूर्ति के लिए पति प्रिय होता है। (अपने स्वार्थ से ही वह पति को चाहती अथवा प्रेम करती है।) अरी न ही, पत्नी की इच्छापूर्ति के लिए (पति को) पत्नी प्रिय होती है, (वरन्) अपनी इच्छापूर्ति के लिए पत्नी प्रिय होती है। न ही अरे, पुत्र या धन की कामना से पुत्र या धन प्रिय होता है, (वरन्) अपनी ही कामना (पूर्ति) के लिए पुत्र या धन प्रिय होता है। न ही सभी की कामना से सब प्रिय होते हैं, (वरन्) अपनी ही कामना (की पूर्ति) के लिए सब प्रिय होते हैं।” (आशय यह है कि मनुष्य जो कुछ भी कामना इस संसार में करता है, वह दूसरों के सुख के लिए नहीं, अपितु अपने ही सुख के लिए, अपनी ही आत्मा की तृप्ति के लिए करता है। मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य दूसरे किसी को सुख देना नहीं, केवल अपने को ही सुख देना है। इस प्रकार आत्म-तृप्ति के लिए ही पति, पत्नी, पुत्र, सम्बन्धी का हित चाहना अथवा उन्हें सुख देना नहीं, केवल अपने को ही सुख देना है। इस प्रकार आत्म-तृप्ति के लिए ही पति, पत्नी, पुत्र, सम्बन्धी आदि प्रिय होते हैं।) इसलिए हे मैत्रेयी! आत्मा ही देखने योग्य है, देखने के लिए (अर्थात् यदि देखना हो तो उसके लिए वह) सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है और ध्यान करने योग्य है। निश्चय ही आत्म-दर्शन से (आत्मा के स्वरूप के ज्ञान से) इस सबका ज्ञान हो जाता है।”

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