UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास)

UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development

UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास) are part of UP Board Solutions for Class 11 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास).

BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectEconomics
ChapterChapter 9
Chapter NameEnvironment and Sustainable
Development (पर्यावरण और धारणीय विकास)
Number of Questions Solved65
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर 

प्रश्न 1.
पर्यावरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
किसी स्थान विशेष में मनुष्य के आस-पास भौतिक वस्तुओं; जल, भूमि, वायु का आवरण, जिसके द्वारा मानव घिरा रहता है, को पर्यावरण कहते हैं।

प्रश्न 2.
जब संसाधन निस्सरण की दर उनके पुनर्जनन की दर से बढ़ जाती है, तो क्या होता है?
उत्तर
जब संसाधन निस्सरण की दर उनके पुनर्जनन की दर से बढ़ जाती है तो पर्यावरण जीवन पोषण का अपना महत्त्वपूर्ण कार्य जननिक और जैविक विविधता को कायम रखने में असफल हो जाता है। इससे पर्यावरण संकट उत्पन्न होता है।

प्रश्न 3.
निम्न को नवीकरणीय और गैर नवीकरणीय संसाधनों में वर्गीकृत करें—
(क) वृक्ष,
(ख) मछली,
(ग) पेट्रोलियम,
(घ) कोयला
(ङ) लौह-अयस्क तथा
(च) जल।
उत्तर
(क)
वृक्ष — नवीकरणीय
(ख) मछली — 
नवीकरणीय
(ग) पेट्रोलियम– 
अनवीकरणीय
(घ) कोयला — 
अनवकरणीय
(ङ) लौह-अयस्क–
अनवीकरणीय
(च) जल–
नवीकरणीय

प्रश्न 4.
आजकल विश्व के सामने…………..” और “:” की दो प्रमुख पर्यावरण समस्याएँ हैं।
उत्तर
(1) वैश्विक उष्णता
(2) ओजोन अपक्षय।

प्रश्न 5.
निम्न कारक भारत में कैसे पर्यावरण संकट में योगदान करते हैं? सरकार के समक्ष वे कौन-सी समस्याएँ पैदा करते हैं?

सरकार के समक्ष उत्पन्न समस्याएँ

  1. बढ़ती जनसंख्या
  2. वायु प्रदूषण
  3. जल प्रदूषण
  4. सम्पन्न उपभोग मानक
  5. निरक्षरता
  6. औद्योगीकरण
  7. शहरीकरण
  8. वन क्षेत्र में कमी
  9. अवैध वन कटाई
  10. वैश्विक उष्णता।

उत्तर
(1) बढ़ती जनसंख्या-  बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण संकट का महत्त्वपूर्ण कारण है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास हुआ है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के कारण इन संसाधनों पर अतिरिक्त भार के कारण इनकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है। इसके अतिरिक्त अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन पर्यावरण की धारणीय क्षमता से बाहर हो गया है।

(2) वायु प्रदूषण- वायु में ऐसे बाह्य तत्वों की उपस्थिति जो मनुष्य के स्वास्थ्य अथवा कल्याण हेतु हानिकारक हो, वायु प्रदूषण कहलाता है। वायु प्रदूषण का सर्वाधिक प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का खूब प्रसार हो रहा है। वायु प्रदूषण से श्वसन तन्त्र सम्बन्धी रोग,त्वचा कैन्सर आँख, गले व फेफड़ों में खराबी व दूषित जल आदि समस्याएँ पैदा हो रही हैं। वायु प्रदूषण के कारण ही अम्लीय वर्षा होती है जो जीवों एवं पौधों के लिए हानिकारक है।

(3) जल प्रदूषण- जब जल में अनेक प्रकार के खनिज, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ व गैसें एक निश्चित अनुपात से अधिक मात्रा में घुल जाते हैं तो ऐसा जल प्रदूषित कहलाता है। जल प्रदूषण के कारण मनुष्य को हैजा, अतिसार, बुखार व पेचिश आदि बीमारियाँ हो जाती हैं।

(4) सम्पन्न उपभोग मानक- जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। जनसंख्या वृद्धि के कारण यहाँ उत्पादन और उपभोग के लिए संसाधनों की माँग संसाधनों के पुनः सृजन की दर से बहुत अधिक है। अधिक उपभोग ने पर्यावरण पर दबाव बनाया है और इसी कारण से वनस्पति एवं जीवों की अनेक जातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं।

(5) निरक्षरता— भारत में अनपढ़ लोगों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। निरक्षरता मानव जाति के लिए एक अभिशाप है। निरक्षर मनुष्य के मानसिक स्तर का कम विकासे हो पाता है। वह नई तकनीक को सहजता से स्वीकार नहीं करता है। उसमें खोजी दृष्टिकोण नहीं होता है। निरक्षर व्यक्ति की उत्पादकता भी कम होती है। निरक्षर होने पर व्यक्ति देश के संसाधनों का उचित प्रकार से प्रयोग नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार निरक्षरता का शहरीकरण, औद्योगीकरण, आर्थिक संवृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(6) औद्योगीकरण- भारत विश्व का दसवाँ सर्वाधिक औद्योगिक देश है। तीव्र औद्योगीकरण के कारण अनियोजित शहरीकरण प्रदूषण एवं दुर्घटनाएँ आदि परिणाम सामने आए हैं। तीव्र आर्थिक विकास के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ा है तथा अपशिष्ट पदार्थों का भी अधिक उत्पादन हुआ है जो पर्यावरण की धारणीय क्षमता से परे है।

(7) शहरीकरण- शहरीकरण तीव्र आर्थिक विकास का परिणाम है। शहर पर्यावरण को प्रमुख रूप से प्रदूषित करते हैं। कई शहर अपने पूरे गन्दे पानी और औद्योगिक अवशिष्ट कूड़े का 40% से 60% असंसाधित रूप से अपने पास की नदियों में बहा देते हैं। इसके अतिरिक्त शहरी उद्योग वातावरण को अपनी चिमनियों से निकलते धुएँ तथा जहरीली गैसों से प्रदूषित करते हैं। शहरीकरण से गाँवों की काफी जनसंख्या शहरों में आ गई है। शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ा है और अपशिष्ट पदार्थों के अधिक उत्पादन से पर्यावरण पर भी दबाव बढ़ा है। इसके अतिरिक्त शहरीकरण से जल व वायु प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

(8) वन-क्षेत्र में कमी- भारत में प्रति व्यक्ति जंगल भूमि केवल 0.8 हैक्टेयर है, जबकि बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह संख्या 0.47 हैक्टेयर होनी चाहिए। वन-क्षेत्र में कमी से देश को प्रति वर्ष 0.8 मिलियन टन नाइट्रोजन, 1.8 मिलियन टन फॉस्फोरस और 26.3 मिलियन टन पोटैशियम का नुकसान होता है। इसके अतिरिक्त भूमि क्षय से 5.8 मिलियन टन से 8.4 मिलियन टन पोषक तत्वों की क्षति होती है। एक वर्ष की अवधि में औसत वर्ष का स्तर गिर गया है तथा ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी आई है।

(9) अवैध वन-कटाई– वनों के विनाश में औद्योगिक विकास, कृषि विकास, दावाग्नि, चरागाहों का विस्तार, बाँधों, सड़कों व रेलमार्गों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वन जैव पदार्थों में सर्वप्रमुख हैं। अन्य जैव पदार्थ जैसे जीव-जन्तु, पशु तथा मानव; इस पर निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त यह अजैव पदार्थ जैसे मिट्टी से भी सम्बन्धित है। समस्त पर्यावरण इन्हीं तत्वों की सुचारु क्रिया-प्रणाली द्वारा सन्तुलन प्राप्त करता है। अत: यदि पर्यावरण के आधारभूत तत्व वन नष्ट हो जाते हैं तो पर्यावरण में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है, जिसका प्रभाव जैव-जगत के विनाश का कारण बन सकता है।

(10) वैश्विक उष्णता– वैश्विक उष्णता पृथ्वी और समुद्र के औसत तापमान में वृद्धि को कहते हैं। भू-तापमान में वृद्धि ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि के परिणामस्वरूप हुई है। वैश्विक उष्णता मानव द्वारा वन विनाश तथा जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि के कारण होती है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन गैस तथा दूसरी गैसों के मिलने से हमारी भूमण्डल सतह लगातार गर्म हो रही है। बीसवीं शताब्दी के दौरान वायुमण्डल केऔसत तापमान में 0.6°C की बढ़ोतरी हुई है। इसके परिणामस्वरूप ध्रुवीय बर्फ पिघली है एवं समुद्र का जलस्तर बढ़ा है।

प्रश्न 6.
पर्यावरण के क्या कार्य होते हैं?
उत्तर
पर्यावरण के चार आवश्यक कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यह नवीकरणीय एवं गैर-नवीकरणीय संसाधनों की पूर्ति करता है। |
  2. यह अपशिष्ट पदार्थों को समाहित कर लेता है।
  3. यह जननिक और जैविक विविधता प्रदान करके जीवन का पोषण करता है।
  4. यह सौन्दर्य प्रदान करता है।

प्रश्न 7.
भारत में भू-क्षय के लिए उत्तरदायी छह कारकों की पहचान करें।
उत्तर
भारत में भू-क्षय के लिए उत्तरदायी छह कारक निम्नलिखित हैं-

  1. वन कटाव के कारण वनस्पति की हानि,
  2. अधारी जलाऊ लकड़ी और चारे का निष्कर्षण,
  3. कृषि । परिवर्तन,
  4. वन भूमि का अतिक्रमण, ।
  5. वाग्नि और अत्यधिक चराई,
  6. अनियोजित फसल चक्र।

प्रश्न 8.
समझाएँ कि नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों की अक्सर लागत उच्च क्यों होती है? ”
उत्तर
तीव्र जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण हमने प्राकृतिक संसाधनों को तीव्र एवं गहन विदोहन किया है। हमारे अनेक महत्त्वपूर्ण संसाधन विलुप्त हो गए हैं और हम नए संसाधनों की खोज में प्रौद्योगिकी एवं अनुसन्धान पर विशाल राशि व्यय करने के लिए मजबूर हैं। इसके अतिरिक्त पर्यावरण का क्षरण होने से श्वसन तन्त्र एवं जलजनित रोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप व्यय में भी बढ़ोतरी हुई है। वैश्विक पर्यावरण मुद्दे जैसे भू-तापमान में वृद्धि एवं ओजोन परत के क्षय ने स्थिति को और भी गम्भीर बना दिया है जिसके कारण सरकार को अधिक धन व्यय करना पड़ता है। अत: यह स्पष्ट है। कि नकारात्मक पर्यावरण प्रभावों की अवसर लागत बहुत अधिक है।

प्रश्न 9.
भारत में धारणीय विकास की प्राप्ति के लिए उपयुक्त उपायों की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
उत्तर
भारत में धारणीय विकास की प्राप्ति के लिए उपयुक्त उपाय निम्नलिखित हैं

  1. मानव जनसंख्या को पर्यावरण की धारण क्षमता के स्तर तक सीमित करना होगा।
  2. प्रोद्योगिक प्रगति संसाधनों को संवर्धित करने वाली हो न कि उनका उपभोग करने वाली।
  3. नवीकरणीय संसाधनों का विदोहन धारणीय आधार पर हो ताकि किसी भी स्थिति में निष्कर्षण की दर पुनः सृजन की दर से कम हो।।
  4. गैर-नवीकरणीय संसाधनों की अपक्षय दर नवीकरणीय संसाधनों के सृजन की दर से कम होनी | चाहिए। |
  5. प्रदूषण के कारण उत्पन्न अक्षमताओं पर रोक लगनी चाहिए।

प्रश्न 10.
भारत में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है-इस कथन के समर्थन में तर्क दें।
उत्तर
प्रकृति ने मनुष्य को जो वस्तुएँ नि:शुल्क उपहारस्वरूप दी हैं उन्हें प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। किसी देश की भौगोलिक स्थिति, संस्थिति, आकार, जलवायु, धरातल, भूमि, मिट्टी, वनस्पति, खनिज, जल, हवा, जीव-जन्तु, जीवाश्म ऊर्जा, पदार्थ आदि प्राकृतिक संसाधनों की श्रेणी में सम्मिलित हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधन प्रचुरता से पाए जाते हैं

  1. दक्षिण के पठार की काली मिट्टी जो विशिष्ट रूप से कपास की खेती के लिए उत्तम है।
  2. अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक गैंगा का मैदान है, जो कि विश्व के अत्यधिक ऊर्वर क्षेत्रों में| से एक है।
  3. भारतीय वन वैसे तो असमान रूप से वितरित हैं परन्तु वे अधिकांश जनसंख्या को हरियाली और उसके वन्य जीवन को प्राकृतिक आवरण प्रदान करते हैं।
  4. देश में लौह-अयस्क, कोयला और प्राकृतिक गैस के पर्याप्त भण्डार हैं।
  5. हमारे देश के विभिन्न भागों में बॉक्साइट, ताँबा, क्रोमेट, हीरा, सोना, सीसा, भूरा कोयला, जिंक | यूरेनियम इत्यादि भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
  6. हिन्द महासागर का विस्तृत क्षेत्र है।
  7. पहाड़ों की विस्तृत श्रृंखला है।

प्रश्न 11.
क्या पर्यावरण संकट एक नवीन परिघटना है? यदि हाँ, तो क्यों?
उत्तर
प्राचीन काल में जब सभ्यता शुरू हुई थी, पर्यावरण संसाधनों की माँग और सेवाएँ उनकी पूर्ति से बहुत कम थीं। संक्षेप में प्रदूषण की मात्रा अवशोषण क्षमता के अन्दर थी और संसाधन निष्कर्षण की दर इन संसाधनों के पुनः सृजन की दर से कम थी। अत: पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न नहीं हुईं। लेकिन आधुनिक युग में जनसंख्या विस्फोट और जनसंख्या की पूर्ति के लिए औद्योगिक क्रान्ति के आगमन से उत्पादन और उपभोग के लिए संसाधनों की माँग संसाधनों की पुन: सृजन की दर से बहुत अधिक हो गई है। इसके अलावा अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन अवशोषक क्षमता से ज्यादा हो गया है।

प्रश्न 12.
इसके दो उदाहरण दें
(क) पर्यावरणीय संसाधनों का अति प्रयोग
(ख) पर्यावरणीय संसाधनों का दुरुपयोग।
उत्तर
(क) पर्यावरणीय संसाधनों का अति प्रयोग 

  1. भूमि जल का पुमैः पूर्ण क्षमता से अधिक निष्कर्षण,
  2. आधारणीय जलाऊ लकड़ी और चारे का निष्कर्षण।।

(ख) पर्यावरणीय संसाधनों का दुरुपयोग

  1. नगरीकरण
  2. औद्योगीकरण।

प्रश्न 13.
पर्यावरण की चार प्रमुख क्रियाओं का वर्णन कीजिए। महत्त्वपूर्ण मुद्दों की व्याख्या कीजिए। पर्यावरणीय हानि की भरपाई की अवसर लागतें भी होती हैं। व्याख्या कीजिए।
उत्तर 

पर्यावरण की चार प्रमुख क्रियाएँ


(1) यह संसाधनों की पूर्ति करता है।
(2) यह अवशेष को समाहित कर लेता है।
(3) यह जननिक एवं जैविक विविधता प्रदान करके जीवन का पोषण करता है।
(4) यह सौन्दर्य प्रदान करता है।

महत्त्वपूर्ण मुद्दे

(1) वैश्विक उष्णता
(2) ओजोन अपक्षय
(3) वायु प्रदूषण |
(4) जल प्रदूषण
(5) वन-कटाव
(6) भू-अपरदन।
(7) अनेक महत्त्वपूर्ण संसाधनों का विलुप्त हो जाना।
पर्यावरणीय असंगतियाँ ठीक करने के लिए सरकार विशाल राशि व्यय करने के लिए मजबूर है। जल 
और वायु की गुणवत्ता की गिरावट से साँस और जल-संक्रमण रोगों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है; फलस्वरूप व्यय भी बढ़ा है। हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना चाहिए। संसाधनों का पुनः सृजन करने वाली तकनीक का विकास करना चाहिए। नगरीकरण एवं औद्योगीकरण पर नियन्त्रण लगाना चाहिए। इस प्रकार पर्यावरण सन्तुलन को बनाए रखने की अवसर लागत होती है।

प्रश्न 14.
पर्यावरणीय संसाधनों की पूर्ति माँग के उत्क्रमण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकाल में जब सभ्यता शुरू हुई थी, पर्यावरण संसाधनों की माँग और सेवाएँ उनकी पूर्ति से बहुत कम थीं। उस समय आधुनिकीकरण, नगरीकरण एवं औद्योगीकरण की दर भी कम थी। अवशिष्ट पदार्थों का उत्पादन भी पर्यावरण की अवशोषी क्षमता के भीतर था। इसलिए पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न नहीं लेकिन आधुनिक युग में तीव्र जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण, आधुनिकीकरण एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप उत्पादन और उपभोग के लिए संसाधनों की माँग संसाधनों के पुन: सृजन की दर से बहुत अधिक हो गई एवं अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन पर्यावरण की अवशोषण क्षमता के बाहर हो गया है। तरह से, पर्यावरण की गुणवत्ता के मामले में माँग-पूर्ति सम्बन्ध पूरी तरह उल्टे हो गए हैं। अब हमारे सामने पर्यावरण संसाधनों और सेवाओं की माँग अधिक है, लेकिन उनकी पूर्ति सीमित है।

प्रश्न 15.
वर्तमान पर्यावरण संकट का वर्णन करें। उत्तर-आज आर्थिक विकास के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक शोषण हो रहा है। भूमि पर निरन्तर फसलें उगाने में उसकी उत्पादकता कम होती जा रही है। खनिज पदार्थों; जैसे–पेट्रोल, लोहा, कोयला, सोना-चाँदी आदि का खनन ज्यादा होने से उनके भण्डार में कमी होने लगी है। कारखानों और यातायात के साधनों से निकले धुएँ और गन्दगी न वायु एवं जल को प्रदूषित कर दिया है जिस कारण अनेक श्वसन एवं जल संक्रमित बीमारियों ने जन्म ले लिया है। अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन अवशोषण क्षमता से बाहर हो गया है। तीव्र एवं गहन विदोहन से अनेक प्राकृतिक संसाधन समाप्ति की ओर हैं। पर्यावरण क्षरण से वैश्विक उष्णता एवं ओजोन अपक्षय आदि चुनौतियाँ पैदा हो गई हैं।

प्रश्न 16.
भारत में विकास के दो गम्भीर नकारात्मक पर्यावरण प्रभावों को उजागर करें। भारत की पर्यावरण समस्याओं में एक विरोधाभास है-एक तो यह निर्धनताजनित है और दूसरे जीवन-स्तर में सम्पन्नता का कारण भी है। क्या यह सत्य है?
उत्तर
भारत में विकास गतिविधियों के फलस्वरूप पर्यावरण के सीमित संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है। उनके साथ-साथ मनुष्य का स्वास्थ्य एवं कल्याण भी प्रभावित हुए हैं। भारत की अत्यधिक गम्भीर पर्यावरणीय समस्याओं में वायु प्रदूषण, दूषित जल, मृदा संरक्षण, वन्य कटान और वन्य-जीवन की विलुप्ति है। भारत में कुछ वरीयता वाले मामले निम्नवत् हैं।

  1. भूमि अपक्षय, |
  2. जैव विविधता का क्षय,
  3. शहरी क्षेत्रों में वाहन से उत्पन्न वायु प्रदूषण
  4. शुद्ध जल प्रबन्धन,
  5. ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन।

भारत के पर्यावरण को दो तरफ से खतरा है-
एक तो निर्धनता के कारण पर्यावरण का अपक्षय और दूसरा खतरा साधन सम्पन्नता और तेजी से बढ़ते हुए औद्योगिक क्षेत्र के प्रदूषण से है। भारत में भूमि का अपक्षय विभिन्न मात्रा और रूपों में हुआ है, जोकि मुख्य रूप से कुछ अनियोजित प्रबन्धन एवं प्रयोग का परिणाम है। भारत के शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण बहुत अधिक है, जिसमें वाहनों का सर्वाधिक योगदान है। इसके अतिरिक्त तीव्र औद्योगीकरण और थर्मल पॉवर संयन्त्रों के कारण भी वायु प्रदूषण होता है।

प्रश्न 17.
धारणीय विकास क्या है?
उत्तर
धारणीय विकास वह प्रक्रिया है जो आर्थिक विकास के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दीर्घकालिक शुद्ध लाभों को वर्तमान तथा भावी पीढ़ी दोनों के लिए अधिकतम करती है।

प्रश्न 18.
अपने आस-पास के क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए धारणीय विकास की चार रणनीतियाँ | सुझाइए।।
उत्तर
धारणीय विकास वंह प्रक्रिया है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करती है परन्तु भावी पीढ़ी की आवश्यकताएँ पूरी करने की योग्यता को कोई हानि नहीं पहुँचाती। 
धारणीय विकास की रणनीतियाँ ये चार रणनीतियाँ निम्नलिखित हैं

(1) ऊर्जा के गैर पारम्परिक स्रोतों का उपयोग-ऊर्जा के पारम्परिक स्रोत जैसे थर्मल और हाइड्रो पॉवर संयन्त्र; पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। थर्मल पॉवर संयन्त्र बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैस-कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं तथा बड़ी मात्रा में इनसे निकले धुएँ के कण जल एवं वायु को प्रदूषित करते हैं। इसके अतिरिक्त हाइड्रो पॉवर परियोजनाओं से वन जलमग्न हो जाते हैं और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप करते हैं। अत: इन सब पर्यावरणीय समस्याओं से बचने के लिए हमें गैर-पारम्परिक स्रोत; जैसे-वायु, शक्ति और सौर किरणों का प्रयोग करना चाहिए। .

(2) वायु शक्ति- जिन क्षेत्रों में हवा की गति तीव्र होती है वहाँ पवन चक्की से बिजली प्राप्त की जा | सकती है। ऊर्जा के इस गैर-पारम्परिक स्रोत से पर्यावरण को किसी प्रकार की क्षति नहीं होती है।

(3) ग्रामीण क्षेत्रों में एल०पी०जी व गोबर गैस- गाँवों में रहने वाले लोग अधिकतर ईंधन के रूप में लकड़ी, उपलों और अन्य जैविक पदार्थों का प्रयोग करते हैं जिस कारण वन विनाश, हरित-क्षेत्र में कमी, मवेशियों के गोबर का अप्रत्यय और वायु प्रदूषण जैसे अनेक प्रतिकूल प्रभाव होते हैं। आज सरकार इस स्थिति में सुधार करने के लिए एल०पी०जी० गैस सस्ती दरों पर उपलब्ध करा रही है। इसके अतिरिक्त पर्याप्त मात्रा में गोबर गैस संयन्त्र भी लगाए जा रहे हैं। |

(4) शहरी क्षेत्रों में उच्च दाब प्राकृतिक गैस– दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में उच्च दाब प्राकृतिक गैस (CNG) का ईंधन के रूप में प्रयोग होने से वायु प्रदूषण में काफी कमी आई है।

प्रश्न 19.
धारणीय विकास की परिभाषा में वर्तमान और भावी पीढियों के बीच समता के विचार की व्याख्या करें।
उत्तर
धारणीय विकास से अभिप्राय विकास की उस प्रक्रिया से है जो भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने की योग्यता को बिना कोई हानि पहुँचाए वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करती है। उपर्युक्त परिभाषा में आवश्यकता की अवधारणा का सम्बन्ध संसाधनों के वितरण से है। संसाधनों का वितरण इस प्रकार से हो कि सभी की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए और सभी को बेहतर जीवन जीने का मौका मिले। सभी की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए संसाधनों के पुनर्वितरण की आवश्यकता होगी जिससे बुनियादी स्तर पर निर्धनों को भी लाभ हो। इस प्रकार की समानता का मापन आय, वास्तविक आय, शैक्षिक सेवाओं, देखभाल, सफाई, जलापूर्ति के रूप में किया जा सकता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
विश्व पर्यावरण दिवस प्रत्येक वर्ष किस तिथि को मनाया जाता है?
(क) 5 अप्रैल
(ख) 5 मई
(ग) 5 जून
(घ) 5 जुलाई
उत्तर
(ग) 5 जून ।

प्रश्न 2.
नवीकरणीय संसाधन है।
(क) कोयला
(ख) पेट्रोलियम
(ग) लौह-अयस्क
(घ) जल
उत्तर
(घ) जल

प्रश्न 3.
“जीवन की परिस्थिति के सम्पूर्ण तथ्यों का योग पर्यावरण कहलाता है। यह परिभाषा किसने दी है?
(क) ए० फिटिंग ने
(ख) सोरोकिन ने
(ग) ए०जी० तॉसले ने
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) ए० फिटिंग ने

प्रश्न 4.
भारत में पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम कब पारित किया गया?
(क) 10 मई, 1984 को
(ख) 19 नवम्बर, 1986 को
(ग) 10 मई० 1987 को
(घ) 19 नवम्बर, 1989 को
उत्तर
(ख) 19 नवम्बर, 1986 को ।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा पर्यावरण प्रदूषण का कारण नहीं है?
(क) वृक्षारोपण
(ख) जनसंख्या वृद्धि
(ग) वायु-प्रदूषण
(घ) ध्वनि-प्रदूषण
उत्तर
(क) वृक्षारोपण

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पर्यावरण क्या है?
उत्तर
मानव के चारों ओर का वह क्षेत्र जो उसे घेरे रहता है तथा उसके जीवन व क्रियाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, पर्यावरण कहलाता है।

प्रश्न 2.
भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण से क्या आशय है?
उत्तर
भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत वे सभी भौतिक तत्त्व सम्मिलित किए जा सकते हैं जो अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं से मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। इन तत्त्वों में जल, सूर्य का प्रकाश, खनिज पदार्थ, वायु, आर्द्रता, भू-पटल को प्रभावित करने वाले तत्त्व आदि शामिल हैं।

प्रश्न 3.
जैव और अजैव तत्त्वों से क्या आशय है?
उत्तर
भौतिक पर्यावरण को मुख्यतः दो समूहों में बाँटा गया है-जैव तत्त्व तथा अजैव तत्त्व। मानवे, वनस्पति, पशु, मछली, कीट-पतंग व सूक्ष्म जीवाणु जैव तत्त्व हैं जबकि भूमि, वायु, जल व खनिज पदार्थ अजैव तत्त्व हैं।

प्रश्न 4.
सांस्कृतिक अथवा मानव निर्मित पर्यावरण से क्या आशय है?
उत्तर
सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण मानव के क्रियाकलापों से होता है। यह मानव प्रकृति की पारस्परिक अन्तक्रिया का प्रतिफल है। मानव द्वारा किए गए कार्य, उसके द्वारा बनाई गई वस्तुएँ, उन वस्तुओं की क्रियाविधि-ये सभी सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

प्रश्न 5.
पर्यावरण की धारण क्षमता की सीमा से क्या आशय है? ”
उत्तर
पर्यावरण की धारण क्षमता की सीमा का अर्थ है-संसाधनों का निष्कर्षण इनके पुनर्जनन की दर । से अधिक नहीं होना चाहिए और उत्पन्न अवशेष पर्यावरण की समावेशन क्षमता के भीतर होना चाहिए।

प्रश्न 6.
अवशोषी क्षमता से क्या आशय है?
उत्तर
अवशोषी क्षमता का अर्थ पर्यावरण की अपक्षय को सोखने की योग्यता से है।

प्रश्न 7.
विश्व में बढ़ते पर्यावरण संकट का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर
विश्व में बढ़ते पर्यावरण संकट का मुख्य कारण-संसाधनों का निष्कर्षण इनके पुनर्जनन की दर से अधिक होना तथा सृजित अवशेष का पर्यावरण की अवशोषी क्षमता से बाहर होना।

प्रश्न 8.
वैश्विक उष्णता से क्या आशय है?
उत्तर
पृथ्वी और समुद्र के वातावरण के औसत तापमान में वृद्धि को वैश्विक उष्णता कहते हैं। यह औद्योगिक क्रान्ति से ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि के परिणामस्वरूप पृथ्वी के निचले वायुमण्डल के औसत . तापमान में क्रमिक बढोतरी है।

प्रश्न 9.
वैश्विक उष्णता में वृद्धि करने वाले मानव उत्प्रेरित घटक कौन-से हैं?
उत्तर
वैश्विक उष्णता में वृद्धि करने वाले मानव उत्प्रेरित घटक–वन विनाश, जीवाश्मीय ईंधन को जलाना, कोयला व पेट्रोल उत्पादन का प्रज्वलन, मीथेन गैस का प्रसार आदि हैं।

प्रश्न 10.
वैश्विक उष्णता के क्या परिणाम सामने आए हैं?
उत्तर
वैश्विक उष्णता के परिणाम हैं-वायुमण्डलीय तापमान में वृद्धि, ध्रुवीय हिम के पिघलने से समुद्र-स्तर में वृद्धि और बाढ़ का प्रकोप, अनेक जल-प्रजातियों की विलुप्ति, उष्णकटिबन्धीय तूफानों की बारम्बारता और उष्ण कटिबन्धीय रोगों के प्रभाव में बढ़ोतरी।

प्रश्न 11.
ग्रीन हाउस प्रभाव क्या है?
उत्तर
जब वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो जाती है तो वायुमण्डल में अधिक ऊष्मा रोक ली जाती है जिसके कारण उसका तापमान बढ़ जाता है। ऊष्मा का इस प्रकारे वायुमण्डल में रोक लिया जाना ही ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ कहलाता है।

प्रश्न 12 
ओजोन परत के लाभकारी प्रभाव क्या हैं?
उत्तर
वायुमण्डल की ओजोन परत हानिकारक विकिरण से हमारी सुरक्षा करती है। सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों को ओजोन परत शून्य में परावर्तिते कर देती है और छतरी के रूप में हमें सुरक्षा कवज प्रदान करती है।

प्रश्न 13.
ओजोन अपक्षय से क्या आशय है?
उत्तर
ओजोन अपक्षय से आशय समतापमण्डल में ओजोन की कमी को होना है।

प्रश्न 14.
ओजोन अपक्षय की समस्या का मूल कारण क्या है?
उत्तर
ओजोन अपेक्षय समस्या का मूल कारण है-समतापमण्डल में क्लोरीन और ब्रोमीन के उच्च स्तर।

प्रश्न 15.
ओजोन अपक्षय के दुष्परिणाम बताइए।
उत्तर
ओजोन स्तर के अपक्षय के परिणामस्वरूप पराबैंगनी विकिरण पृथ्वी की ओर आते हैं। और जीवों को क्षति पहुँचाते हैं। विकिरण से मनुष्यों में त्वचा कैंसर पैदा होता है। यह पादप लवक के उत्पादन को कम कर जलीय जीवों को प्रभावित करता है तथा स्थलीय पौधों की संवृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

प्रश्न 16.
मॉण्ट्रियल प्रोटोकोल क्या है?
उत्तर
मॉण्ट्रियल प्रोटोकॉल वह व्यवस्था है जिसमें सी०एफ०एस० यौगिकों तथा अन्य ओजोन अपक्षयक रसायनों के प्रयोग पर रोक लगाई गई है।

प्रश्न 17.
भारत में विकास गतिविधियों का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ा है?
उत्तर
भारत में विकास गतिविधियों के फलस्वरूप उसके सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है तथा मानव स्वास्थ्य एवं सुख-समृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

प्रश्न 18.
‘भारत के पर्यावरण को दो तरफा खतरा है।’ ये दो बातें कौन-सी हैं?
उत्तर
ये दो बातें हैं-
(1) गरीबी के कारण पर्यावरण का अपक्षय,
(2) साधन-सम्पन्नता और तेजी से बढ़ता हुआ औद्योगिक क्षेत्रक प्रदूषण।

प्रश्न 19.
चिपको आन्दोलन का उद्देश्य क्या था?
उत्तर
चिपको आन्दोलन का उद्देश्य था—हिमालय पर्वत में वनों का संरक्षण करना।

प्रश्न 20.
अप्पिको आन्दोलन क्या है?
उत्तर
अप्पिको का अर्थ है-“बाँहों में भरना’। 8 सितम्बर, 1983 ई० को सिरसी जिले के सलकानी वन में वृक्ष काटे जा रहे थे। तब 160 स्त्री-पुरुष और बच्चों ने पेड़ों को बाँहों में भर लिया और लकड़ी काटने वालों को भाग जाने को विवश होना पड़ा।

प्रश्न 21.
पर्यावरण प्रदूषण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
मानव के विभिन्न क्रिया-कलापों से उत्पन्न अपशिष्ट उत्पादों के रूप में पदार्थों एवं ऊर्जा के निस्तारण से प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाले हानिकारक परिवर्तनों को पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 22.
वायु प्रदूषण से क्या आशय है?
उत्तर
वायुमण्डल विभिन्न गैसों का मिश्रण है। इसमें दूषित गैसों (जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि) की अधिकता वायु प्रदूषण कहलाती है।

प्रश्न 23.
मृदा प्रदूषण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
मिट्टी एक स्वनिर्मित तन्त्र का परिणाम है, परन्तु जब प्रदूषित वायु, जल एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थ मिट्टी में मिश्रित हो जाते हैं, तो यह मिट्टी प्रदूषित हो जाती है। इसे ही मृदा प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 24.
जैव प्रदूषण से क्या आशय है?
उत्तर
जीवाणु, विषाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीवों (जैसे—प्लेग के पिस्सू आदि) के द्वारा वायु, जल, खाद्य पदार्थों या अन्य वस्तुओं को प्रदूषित कर मनुष्यों को मृत्युकारित करना ही जैव प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 25.
वर्तमान में किस प्रकार के विकास की आवश्यकता है?
उत्तर
वर्तमान में ऐसे विकास की आवश्यकता है जो कि भावी पीढ़ियों को जीवन की सम्भावित औसत गुणवत्ता प्रदान करे जो कम-से-कम वर्तमान में पीढ़ी द्वारा उपयोग की गई सुविधाओं के बराबर हो।

प्रश्न 26.
‘धारणीय विकास की अवधारणा को परिभाषित कीजिए।
उत्तर
धारणीय विकास ऐसा विकास है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति क्षमता से समझौता किए बिना पूरी करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पर्यावरण का अर्थ, प्रकार बताइए। पर्यावरण संरक्षण के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर

पर्यावरण का अर्थ व प्रकार

सोरोकिन के अनुसार-“पर्यावरण उन समस्त दशाओं को इंगित करता है, जो मानव के क्रियाकलापों से स्वतन्त्र हैं तथा जिनकी रचना मानव ने नहीं की है और जो मानव एवं उसके कार्यों से प्रभावित हुए बिना स्वतः परिवर्तित होती हैं।” पर्यावरण दो प्रकार का होता है—
(1) प्राकृतिक पर्यावरण,
(2) सांस्कृतिक पर्यावरण।

पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य 

(1) पर्यावरणीय संसाधनों के अपव्यय को रोकना।
(2) भावी उपयोग के लिए संसाधनों की बचत करना।
(3) संसाधनों का योजनाबद्ध एवं विवेकपूर्ण रीति से उपयोग करना।

प्रश्न 2.
वन्य-जीव संरक्षण के उपाय बताइए।
उत्तर
वन्यजीव संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं-

  1. राष्ट्रीय उद्यानों का विकास तथा रख-रखाव।।
  2. गैर-कानूनी तरीके से वन्य-जीवों के शिकार और वन्य जीव उत्पादों के अवैध व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना।
  3. राष्ट्रीय उद्यानों तथा अभयारण्यों के आस-पास के क्षेत्रों में पारिस्थितिकी का विकास।
  4. वन-विनाश पर रोक।
  5. वन क्षेत्र में वृद्धि।
  6. वन्य-जीवों के संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता लाना।
  7. वन्य-जीव संरक्षण हेतु विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं का अधिक-से-अधिक क्रियान्वयन करना भी आवश्यक है; जैसे-टाइगर प्रोजेक्ट, क्रोकोडाइल ब्रीडिंग एण्ड मैनेजमेण्ट प्रोजेक्ट तथा डिअर प्लानिंग प्रोजेक्ट इत्यादि।
  8. संकटापन्न वन्य-जीवों के विकास के लिए विशेष प्रयास।

भारत में प्राणि-उद्यानों के प्रबन्ध की देखभाल के लिए एक केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण स्थापित किया गया है। यह संस्था 200 चिड़ियाघरों के कार्यों में तालमेल करती है और जानवरों के विनिमय की वैज्ञानिक ढंग से देख-रेख करती है। इस समय में 23 बाघ परियोजनाएँ चल रही हैं तथा इसके अन्तर्गत 26,000 वर्ग किमी से भी अधिक क्षेत्र वनाच्छादित है।

प्रश्न 3.
वनों के ह्रास को रोकने के उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
वनों के ह्रास को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं

  1. ईंधन की लकड़ी के स्थान पर रसोईघरों में वैकल्पिक ऊर्जा का प्रबन्ध हो।
  2. इमारती लकड़ी व फर्नीचर आदि बनाने के लिए वनों की लकड़ी के बजाय कोई अन्य विकल्प प्रयोग में लाया जाए।
  3. पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से दुर्लभ किस्म के पेड़ों की कटाई निषिद्ध हो।
  4. वनों पर आधारित उद्योग-धन्धों में कच्चे मालों की पूर्ति के लिए सामाजिकी-वानिकी की योजनाएँ चलाई जाएँ।
  5. सामाजिक-वानिकी, कृषि वानिकी तथा वन खेती से वनों के क्षेत्रफल की पूर्ति की जाएगी।
  6. स्थानान्तरणशील कृषि पर रोक।
  7. चरागाहों के क्षेत्र का संकुचन रोका जाए।
  8. शवों के दाह-संस्कार में प्रयोग की जाने वाली लकड़ी के विकल्प के रूप में विद्युत शवदाह गृहों | का निर्माण किया जाए। इससे वन संरक्षण में मदद मिलेगी।
  9. होली, लोहड़ी तथा अन्य त्योहारों के समय लकड़ी को व्यर्थ न जलाया जाए। इनके लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं तथा सांस्कृतिक मान्यताओं को बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  10. पशु संख्या नियन्त्रित की जानी चाहिए और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए अभयारण्यों का विकास किया जाना चाहिए। इससे दोहरा लाभ होगा।
  11. ढालू भूमि पर वृक्षों की कटाई नहीं की जानी चाहिए।
  12. कृषि योग्य भूमि के विस्तार के लिए वनों का ह्रास नहीं होने देना चाहिए। इसके लिए कड़े कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए।
  13. ऐसी नदी घाटी परियोजनाओं तथा बाँधों को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए, जिससे वन क्षेत्र डूब जाने की सम्भावना हो।
  14. वनों के महत्त्व को बताने के लिए जन-साधारण में विज्ञापनों तथा प्रसार माध्यमों द्वारा जागरूकता | पैदा की जानी चाहिए।
  15. वृक्षों की चयनात्मक कटाई तथा बचे हुए जंगलों की रक्षा करके वनों के ह्रास को रोका जा सकता
  16. प्राकृतिक वन क्षेत्रों के स्थान पर वृक्ष तथा फलोद्यान लगाने से भी वन विनाश रुकता है और फल भी प्राप्त होते हैं।
  17. वनों की रक्षा के लिए सामाजिक आन्दोलन चलाए जाने चाहिए।

प्रश्न 4.
पर्यावरणीय संरक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
पर्यावरण का, जिसमें मानव रह रहा है, अपने सभी जैवीय तथा अजैवीय घटकों के साथ समन्वित, समरस तथा सन्तुलित रहना आवश्यक है। वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता तथा महत्त्व को अग्रलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

  1. इसके द्वारा पर्यावरणीय असन्तुलन की विनाशकारी प्रभावों से बचा जा सकता है।
  2. पर्यावरण का हमारी शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य तथा मन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक संसाधन जितने स्वच्छ व निर्मल होंगे, हमारा शरीर और मन उतना ही स्वच्छ एवं निर्मल होगा, इसलिए गुरु चरक से कहा था—‘स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध वायु, जल और मिट्टी आवश्यक कारक हैं।”
  3. राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छता पर निर्भर करती है।
  4. जैवीय विकास में पर्यावरण एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  5. देश के आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण की सुरक्षा आवश्यक है।
  6. औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने प्रदूषण की गम्भीर समस्या को उत्पन्न कियाहै। जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, वायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण की समस्याओं ने मानव के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी है।
  7. रासायनिक एवं आणविक अपघटकों ने ओजोन की परत में छेद करके सम्पूर्ण विश्व को ही त्रस्त कर दिया है।

संक्षेप में, वर्तमान शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बन गई है-पर्यावरण की सुरक्षा तथा साथ ही मनुष्य को शुद्ध जल, वायु और भोजन प्रदान करना।

प्रश्न 5.
मृदा अपरदन के दुष्प्रभाव बताइए।
उत्तर
मृदा अपरदन के दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं
(1) मृदा उर्वरता में कमी- मृदा अपरदन के कारण भूमि की ऊपरी परत (Top soil) अपने स्थान से | हट जाती है, जिससे भूमि की उर्वरता प्रभावित होती है; क्योंकि यह परत जीवांशों (humus) के रखने के कारण अधिक उर्वर होती है।

(2) सिल्टीकरण मिट्टी के बड़े– बड़े कण नदियों के जल के साथ बहकर जलाशयों में एकत्रित होने लगते हैं। इससे कृषि योग्य भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है।

(3) अकाल- मृदा अपरदन के कारण भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है तथा सूखे के समय जल की कमी हो जाने पर सिंचाई की समस्या हो जाती है, जिससे अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती

(4) मरुस्थलीकरण- मृदा अपरदन के कारण भूमि शुष्क व बंजर हो जाती है। इससे मरुस्थल जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(5) जलवायु में परिवर्तन– मृदा अपरदन के कारण भूमि पर किसी प्रकार की वनस्पति उग नहीं पाती जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव जलवायु पर पड़ता है। वनस्पति के न होने से वर्षा की सम्भावना कम हो जाती है।

प्रश्न 6.
नव्यकरणीय और अनव्यकरणीय संसाधनों से क्यो आशय है?
उत्तर
(1) नव्यकरणीय संसाधन– इसमें वे संसाधन सम्मिलित हैं जिनमें प्रकृति में अल्प समय में ही पुन: चक्रण द्वारा स्थापित होने का गुण होता है। इनके उदाहरण जल, काष्ठ, मृदा, खाद्यान्न फसलें आदि हैं।

(2) अनव्यकरणीय संसाधन– ये संसाधन समाप्त हो जाने पर पुनः स्थापित नहीं किए जा सकते हैं। इनका प्रमुख उदाहरण जीवाश्मीय ईंधन व खनिज पदार्थ हैं। परन्तु आजकल विश्व में अत्यधिक उपयोग तथा अव्यवस्थित प्रबन्धन के कारण वन्य-जीव (पादप तथा जन्तु) भी अनव्यकरणीय संसाधन बनते जा रहे हैं।

प्रश्न 7,
मृदा संरक्षण के कुछ उपाय बताइए।
उत्तर

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा अपरदन से भूमि की उर्वरा शक्ति को हानि पहुँचती है जिससे उत्पादन सम्बन्धी परिवर्तन हो सकते हैं। मृदा को हानि से बचाने के कुछ उपाय अग्रवत् हैं

  1. सीधी एवं मूसलाधार वर्षा से भूमि को बचाना।
  2. जल एकत्रित होने से व ढलान की तीव्रता के कारण बहने वाले जल को रोकना।
  3. वायु की तीव्रता को रोकना।
  4. अत्यधिक पशुओं को चराने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना तथा वनों की कटाई रोकना।
  5. खाली भूमि पर वृक्षारोपण कराना।
  6. नग्न मृदा पर पादप आवरण उपलब्ध कराना।

प्रश्न 8.
ग्रीन हाउस प्रभाव (Greenhouse Effect) का वर्णन कीजिए।
उत्तर
 ग्रीनहाउस प्रभाव यदि तपती हुई धूप में खड़ी कार की सारी खिड़कियाँ बन्द कर दें तो अन्दर असहनीय रूप से गर्मी हो जाती है क्योंकि प्रकाश खिड़कियों के शीशे से गुजरकर अन्दर पहुँच जाता है। प्रकाशीय ऊर्जा ऊष्मीय ऊर्जा में परिवर्तित होकर वहाँ रह जाती है और कार को गर्म कर देती है। ग्रीन हाउस या पादप गृह पौधे उगाने के लिए बनाए जाते हैं और इसी सिद्धान्त पर कार्य भी करते हैं। चूंकि वे शीशों के बनाए जाते हैं। अत: प्रकाश अन्दर तो पहुँच जाता है परन्तु ऊष्मा बाहर नहीं निकल पाती। कार्बन डाइऑक्साइड का गुण भी ऐसा ही है कि सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल से गुजर जाने देती है परन्तु ऊष्मा को वायुमण्डल से निकलने नहीं देती। इस प्रकार, सामान्य मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल के तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो जाती है तो वायुमण्डल में अधिक ऊष्मा रोक ली जाएगी जो उसको तापमान बढ़ा देगी। ऊष्मा का इस प्रकार वायुमण्डल में रोक लिया जाना ही ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ कहलाता है।

ग्रीनहाउस प्रभाव और बदलता वायुमण्डल– रासायनिक प्रदूषण पृथ्वी के वायुमण्डल की संरचना को परिवर्तित कर रहा है और जलवायु को बदल देने, पौधों की पैदावार के प्रारूप को परिवर्तित कर देने और मनुष्य तथा जीपों को खतरनाक पराबैंगनी (ultra-violet) विकिरण से अरक्षित कर देने का भय उत्पन्न कर रहा है।

प्रदूषण के इन कारणों में से जीवाश्मीय ईधन का जलाया जाना और वनों का जलाया जाना कार्बन डाइऑक्साइड चक्र में असन्तुलन का कारण बना है। हाल ही में जितनी कार्बन डाइऑक्साइड हरे पौधे और वृक्ष अवशोषित करते हैं उससे अधिक अवमुक्त हो रही है। कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती हुई मात्रा वायुमण्डल में छाये जा रही है और उसने वहाँ एक मोटा आवरण बना लिया है जो सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है और दृश्य प्रकाश को धरातल की सतह तक पहुँच जाने देता है, परन्तु पुनर्विकिरण के रूप में वापस लौटती हुई ऊष्मीय तरंगें (अवरक्त विकिरण) उस आवरण द्वारा रोक ली जाती हैं। ऊष्मा वापस पृथ्वी पर लौटा दी जाती है और इस प्रकार ग्रीनहाउस प्रभाव (greenhouse effect) का कारण बनती है।
वह पाँच गैसें, जो ग्रीनहाउस प्रभाव में योगदान करती हैं, निम्नवत् हैं
कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) – 50%
क्र्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (CFCs) – 14%
मीथेन (CH4)
– 18%
ओजोन (03)
– 12%
ट्रोपोस्फेरिक नाइट्रस ऑक्साइड – 6%
ग्रीन हाउस प्रभाव या वायुमण्डलीय तापन में कार्बन डाइऑक्साइड का सर्वाधिक योगदान है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड के एकत्रीकरण में गत दो दशकों में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का सन् 1958 में एकत्रीकरण दस लाख में 315 अंश था जो 1990 ई० में बढ़कर 353 अंश प्रति दस लाख हो गया और 1.5% की अनुमानित दर से प्रति वर्ष बढ़ रहा है। यह बहुत कम प्रतीत होता है, परन्तु कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती हुई यह दर भयावह है और वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी है कि यदि यह इसी दर से बढ़ती रही तो पृथ्वी का औसत तापक्रम वर्ष । 
2030 ई० तक 3-4C बढ़ जाएगा, समुद्रों की सतह 1 से 2 मीटर तक ऊपर उठ जाएगी और बहुत-ने छोटे द्वीपों और विभिन्न महाद्वीपों के तटीय क्षेत्र जल में डूब जाएँगे।

प्रश्न 9.
ओजोन परत अवक्षय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
ओजोन परत की अल्पता या अवक्षय (ozone-layer depletion) चिन्ताजनक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है। इससे सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। हमें ज्ञात है कि वायुमण्डल की ओजोन परत हानिकारक सौर विकिरण से हमारी सुरक्षा करती है। यह परत पृथ्वीवासियों के लिए छतरी (umbrella) के रूप में सुरक्षा कवच प्रदान करती है। सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों (Ultra-violet rays) को ओजोन परत शून्य में परावर्तित कर देती है। यदि ये विषैली किरणें धरातल पर सीधी आने लगे तो अनेक कोमल पौधों के अंकुर जल जाएँ। मनुष्य के वातानुकूलन, प्रशीतन, फोम, प्लास्टिक, हेयर ड्रायर, स्प्रे कैन, प्रसंस्कृत पदार्थों की पैकेजिंग, डिसपेन्सर, अग्निशामक, अनेक प्रसाधन सामग्रियों के निर्माण से अवमुक्त क्लोरोफ्लोरो कार्बन तथा सुपरसॉनिक जेट विमानों से अवमुक्त नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO) के कारण धरातल पर सूर्य की पराबैंगनी किरणे अधिक मात्रा में आने लगती हैं। CFC व NO, गैसें ओजोन परत को क्षीण करती हैं। CFC गैस में क्लोरीन, फ्लोरीन तथा कार्बन तत्वों के यौगिक होते हैं। अनुमान लगाया गया है कि वायुमण्डल में फ्रेऑन (Freon) गैस का सान्द्रण 13 से 18% प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है। सन् 1976 ई० में वायुमण्डल में फ्रेऑन-11 तथा फ्रेऑन-12 का सान्द्रण क्रमशः 120 PPM व 220 PPM था। यदि वायुमण्डल में फ्रेऑन व हैलोन्स की अवमुक्त मात्रा पर अंकुश नहीं लगाया जाता तो पृथ्वीवासियों को निकट भविष्य में गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। ओजोन परत की अल्पता से त्वचा कैन्सर व चर्मरोग होने का खतरा बढ़ जाएगा। वायुमण्डल में अवमुक्त नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स की उपस्थिति में मसूढ़ो में सूजन, मोतियाबिन्द, रक्तस्राव, ऑक्सीजन की कमी, निमोनिया तथा फेफड़े के कैंसर हो जाता है। अनुमान लगाया गया है कि मनुष्य वायुमण्डल में 6 गुना अधिक हानिकारक गैसें अवमुक्त कर रहा है। एक टन कोयले के जलाने पर 5 से 10 किग्री तक नाइट्रोजन ऑक्साइड्स का निर्माण होता है। इसी प्रकार स्वचालित मोटर वाहनों (मोटरे-कार, बस, ट्रक, स्कूटर आदि) में एक टन डीजल या पेट्रोलियम का उपभोग होने से 25 से 30 किग्रा नाइट्रोजन ऑक्साइड अवमुक्त होती है।

15 किमी की ऊँचाई पर उड़ने वाले सुपर-सॉनिक जेट विमानों के समूह से अवमुक्त नाइट्रोजन ऑक्साइड से वायुमण्डलीय ओजोन के सान्द्रण में 30% तक की कमी हो सकती है। अनुमान लगाया गया है कि वायुमण्डल में ओजोन के सान्द्रण में मात्र 5% की कमी हो जाने से संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 20 हजार से 60 हजार अतिरिक्त लोग कैंसर का शिकार हो जाएँगे। ओजोन परत की अल्पता से निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं

  1. सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरातल पर सीधे पहुँचकर भू-पृष्ठ के तापमान में वृद्धि करेंगी। इससे त्वचा कैंसर तथा अन्धेपन का प्रकोप बढ़ जाएगा।
  2. समतापमण्डल का तापमान अव्यवस्थित हो जाएगा।
  3. भूमण्डलीय ताप वृद्धि (global warming) से हिमनदों में जमी बर्फ पिघलने लगेगी परिणामतः सागर तल में वृद्धि होने से निचले क्षेत्र जलमग्न हो जाएँगे।
  4. ओजोन-अल्पता से क्षोभमण्डल में हाइड्रोजन परॉक्साइड की मात्रा में वृद्धि होगी। इससे अम्लीय वर्षा तथा धूम्रकुहरे (smog) का निर्माण होगा।
  5. जलवायु में परिवर्तन होगा।
  6. जैव-भू रासायनिक चक्र (Bio-geo-chemical cycle) परिवर्तित होने लगेंगे।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पर्यावरण से क्या आशय है? पर्यावरण के विभिन्न प्रकार भी बताइए।
उत्तर 

पर्यावरण से आशय

पर्यावरण अंग्रेजी भाषा के Environment शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। यह दो शब्दों; परि + आवरण; से मिलकर बना है। ‘परि’ का अर्थ है-‘चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है-‘घेरना अथवा ढकना। इस प्रकार पर्यावरण का उन सभी घटकों को योग है, जो किसी वस्तु के चारों ओर से घेरे रहते हैं और उस वस्तु को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पर्यावरण उन सभी प्रक्रियाओं, दशाओं, बलों अथवा वस्तुओं का सम्मिलित स्वरूप हैं, जो भौतिक या रासायनिक रूप से जीवन को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

ए० फिटिग के अनुसार-“जीवन की परिस्थिति के सम्पूर्ण तथ्यों का योग पर्यावरण कहलाता है।”

सोरोकिन के अनुसार-पर्यावरण उन समस्त दशाओं को इंगित करता है, जो मानव के क्रियाकलापों से स्वतन्त्र हैं तथा जिनकी रचना मानव ने नहीं की है और जो मानव एवं उसके कार्यों से प्रभावित हुए बिना स्वत: परिवर्तित होती हैं।”

ए०जी०ताँसले के अनुसार-“उन सभी प्रभावकारी दशाओं का कुल योग, जिनमें जीव निवास करता है, पर्यावरण कहलाता है।” संक्षेप में, पर्यावरण उन सभी भौगोलिक दशाओं का सम्पूर्ण योग है, जो मानव एवं उसकी क्रियाओं को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है और जो मानवीय प्रभाव से स्वतन्त्र रहते हुए स्वत:

परिवर्तित होता रहता है।

पर्यावरण के प्रकार मूल रूप से पर्यावरण को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
(1) भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण तथा
(2) सांस्कृतिक या मानवनिर्मित पर्यावरण।

(1) भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण- भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण उन समस्त भौतिक शक्तियों, तत्त्वों एवं प्रक्रियाओं का योग होता है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय क्रियाकलापों को प्रभावित करता है। यह पर्यावरण स्थान एवं समय के सन्दर्भ में परिवर्तित होता रहता है। भौतिक पर्यावरण की शक्तियाँ, तत्त्व एवं प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं

(अ) शक्तियाँ- भौतिक पर्यावरण की शक्तियाँ हैं-पृथ्वी की गति, गुरुत्वाकर्षण शक्ति, सूर्यातप, ज्वालामुखी, भूकम्प एवं भू-पटल की गति। ये शक्तियाँ पृथ्वी के धरातल पर भिन्न-भिन्न प्रकार का भौतिक भू-दृश्य उपस्थित करती हैं, जिससे पर्यावरण का जन्म होता है और जो अनेक प्रकार से मानवीय पर्यावरण को प्रभावित करता है।

(ब) तत्त्व- भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत निम्नलिखित तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है—स्थिति एवं विस्तार, स्वरूप एवं आकार, जलवायु दशाएँ, महासागर, नदियाँ एवं झीलें, शैल, मिट्टी, खनिज, भूमिगत जल, प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जन्तु आदि।

(स) प्रक्रियाएँ- भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है—अपक्षय एवं अपरदन, ताप विकिरण, संचालन एवं संवहन, वायु एवं जल की गतियाँ, भू-दृश्य एवं जैविक तत्त्वों की उत्पत्ति, विकास एवं क्षय।। उपर्युक्तु सभी शक्तियाँ, तत्त्व एवं प्रक्रियाएँ मिलकर भौतिक पर्यावरण को निर्मित करती हैं तथा एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हुए भी किसी-न-किसी प्रकार से सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रभावित करती हैं।

(2) सांस्कृतिक या मानवनिर्मित पर्यावरण- मानव सांस्कृतिक पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन लाने के लिए सदैव क्रियाशील रहता है। मानव ने ही अपने ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी विकास से प्राकृतिक पर्यावरण का उपयोग कर सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण किया है। सांस्कृतिक या मानवनिर्मित पर्यावरण की शक्तियाँ, तत्त्व एवं प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं

(अ) शक्तियाँ- सांस्कृतिक पर्यावरण को निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मुख्य शक्तियाँ हैं–कुल जनसंख्या, वितरण एवं घनत्व, आयु वर्ग, स्त्री-पुरुष अनुपात, जनसंख्या वृद्धि एवं स्वास्थ्य।

(ब) तत्त्व– सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत निम्नलिखित तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है—मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति, आर्थिक क्रियाएँ, तकनीकी विकास, सामाजिक एवं राजनीतिक संगठन आदि।

(स) प्रक्रियाएँ– सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ वे हैं, जिनके द्वारा मानव प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करती है। ये हैं-पोषण, समूहीकरण, पुनः उत्पादन, पृथक्करण, अनुकूलन, समायोजन व प्रवास। यद्यपि सांस्कृतिक पर्यावरण मानव निर्मित होता है तथापि इस पर भौतिक पर्यावरण की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। ये दोनों ही परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे को निरन्तर प्रभावित करते रहते हैं।

प्रश्न 2.
वायु प्रदूषण का अर्थ एवं स्रोत बताइए। यह हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? इसे रोकने के उपाय भी बताइए। उत्तर

वायु प्रदूषण

अर्थ- ऑक्सीजन को छोड़कर वायु में किसी भी गैस की मात्रा सन्तुलित अनुपात से अधिक होने पर वायु श्वसन के योग्य नहीं रहती। अतः वायु में किसी भी प्रकार की गैस वृद्धि या अन्य पदार्थ का समावेश ‘वायु प्रदूषण’ कहलाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार- “वायु प्रदूषण को ऐसी परिस्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें बाह्य वायुमण्डल में ऐसे पदार्थों का संकेन्द्रण हो जाता है, जो मानव और उसके चारों ओर विद्यमान पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं।’

स्रोत–
मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ता है। एक ओर तो वह वनों को काट डालता है तथा दूसरी ओर कल-कारखाने, औद्योगिक संस्थान आदि चलाकर वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा ही नहीं बढ़ाता वरन् नाइट्रोजन, सल्फर आदि अनेक तत्वों के ऑक्साइड्स भी वायुमण्डल में मिला देता है। इसके अतिरिक्त, मोटरगाड़ियों, कार, विमान आदि से अनेक प्रकार के अदग्ध हाइड्रोकार्बन्स तथा विषैली गैसें निकलती हैं। इन सबके परिणामस्वरूप वायु प्रदूषण बढ़ता जाता है।

प्रभाव

  1. वायु प्रदूषण से मनुष्य के स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सल्फर डाइऑक्साइड से फेफड़ों के रोग, कैडमियम से हृदय रोग, कार्बन मोनोऑक्साइड से कैंसर आदि रोग लग सकते हैं। आँखों में, श्वसन मार्ग तथा गले में जलन वायु प्रदूषण के साधारण रोग हैं।
  2. पशुओं में फेफड़ों की अनेक बीमारियाँ धूल कणों, सल्फर डाइऑक्साइड आदि से पैदा होती है। कार्बन मोनोऑक्साइड से पशुओं की मृत्यु तक हो जाती है फ्लुओरीन; घास तथा चारे में इकट्ठा होकर; विभिन्न प्रकार से पशुओं के शरीर को (चारा खाने पर) हानि पहुँचाती है।
  3. वायु प्रदूषण का पौधों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सल्फर डाइऑक्साइड पत्तियों में स्थित क्लोरोफिल को नष्ट कर देती है। वायु प्रदूषण के कारण पत्तियाँ आंशिक या पूर्ण रूप से झुलस जाती हैं।
  4. वायु प्रदूषण इमारतों, वस्त्रों आदि पर हानिकारक प्रभाव डालता है। हाइड्रोजन सल्फाइड के प्रभाव| से भवन काले पड़ने लगते हैं।

रोकथाम के उपाय

  1. प्रत्येक बस्ती में पर्याप्त संख्या में पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए तथा वनस्पति उगानी चाहिए।
  2. जिन घरों में अँगीठी आदि जलाई जाती है, वहाँ धुएँ के निकलने की उचित : अवस्था होनी चाहिए। इसके लिए एक ऊँची चिमनी लगाई जानी चाहिए।
  3. मकानों को यथासम्भव सड़कों से दूर बनाना चाहिए तथा मका में सूर्य का प्रकाश आने की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
  4. खाली भूमि नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि खाली भूमि से धूल उड़ती है, जो वायु को दूषित करती है।
  5. यदि घरों में पशु पालने हों, तो उन्हें निवास से दूर रखना चाहिए। इससे गन्दी गैसें घर में एकत्रित नहीं हो पातीं।
  6. औद्योगिक संस्थानों तथा कारखानों को बस्ती से दूर स्थापित करना चाहिए।
  7. जहाँ अधिक वाहन चलते हैं, वहाँ सड़कें पक्की होनी चाहिए।
  8. तेलशोधक कारखानों पर वायु प्रदूषण से बचने के लिए शोधक यन्त्र लगाए जाने चाहिए।
  9. जनमानस में जागरूकता लाई जानी चाहिए तथा सर्वत्र वनस्पति को सघन रूप में उगाया जाना चाहिए व पेड़ों को काटने से रोका जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
जल प्रदूषण का अर्थ, स्रोत एवं मानव-जीवन पर उसके प्रभाव बताइए। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए उपयुक्त सुझाव भी दीजिए।
उत्तर

जल प्रदूषण

अर्थ-
जल में अनेक प्रकार के खनिज, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थों तथा गैसों के एक निश्चित अनुपात से अधिक या अन्य अनावश्यक तथा हानिकारक पदार्थ घुले होने से जल प्रदूषित हो जाता है। यह प्रदूषित जल जीवों में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न कर सकता है। जल प्रदूषक विभिन्न रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु, वाइरस, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशक पदार्थ, वाहित मल, रासायनिक खादें, अन्य कार्बनिक पदार्थ आदि अनेक पदार्थ हो सकते हैंस्रोत–जल प्रदूषण के विभिन्न स्रोत निम्नलिखित हो सकते हैं

  1. कृषि में प्रयोग किए गए कीटाणुनाशक, अपतृणनाशक, विभिन्न रासायनिक खादें।
  2. सीसा, पारा आदि के अकार्बनिक तथा कार्बनिक पदार्थ, जो औद्योगिक संस्थानों से निकलते हैं।
  3. भूमि पर गिरने वाला या तेल वाहकों द्वारा ले जाया जाने वाला तेल तथा अनेक प्रकार के वाष्पीकृत | होने वाले पदार्थ जैसे पेट्रोल, एथिलीन आदि; वायुमण्डल से द्रवित होकर जल में आ जाते हैं।
  4. रेडियोधर्मी पदार्थ जो परमाणु विस्फोटों आदि से उत्पन्न होते हैं और जल-प्रवाह में पहुँचते हैं।
  5. वाहित मल जो मनुष्यों द्वारा जल प्रवाह में मिला दिया जाता है।

प्रभाव

  1. जल प्रदूषण के कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ महामारी के रूप में फैल सकती हैं। हैजा, टाइफॉइड, पेचिश, पोलियो आदि रोगों के रोगाणु प्रदूषित जल द्वारा ही शरीर में पहुँचते हैं।
  2. नदी, तालाब आदि का प्रदूषित जल पीने वाले पशुओं, मवेशियों आदि में भयंकर बीमारियाँ उत्पन्न | करता है।
  3. जल में रहने वाले जन्तु व पौधे प्रदूषित जल से नष्ट हो जाते हैं या उनमें अनेक प्रकार के रोग लगजाते हैं। जल में विषैले पदार्थों के कण नीचे बैठ जाते हैं।
  4. प्रदूषित जल पौधों में भी अनेक प्रकार के कीट तथा जीवाणु रोग उत्पन्न कर सकता है। कुछ विषैले पदार्थ पौधों के माध्यम से मनुष्य तथा अन्य जीवों के शरीर में पहुँचकर उन्हें हानि पहुँचाते हैं।
  5. जलीय जीवों के नष्ट होने से खाद्य पदार्थों की हानि होती है। ऑक्सीजन की कमी के कारण मछलियाँ बड़ी संख्या में मर जाती हैं।

रोकथाम के उपाय

जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं

  1. कूड़ा-करकट, सड़े-गले पदार्थ एवं मल-मूत्र को शहर से बाहर गड्डा खोदकर दबा देना चाहिए।
  2.  सीवर का जल पहले नगर से बाहर ले जाकर दोषरहित करना चाहिए। बाद में इसे नदियों में छोड़ | देना चाहिए।
  3. विभिन्न कारखानों आदि से निकले जल तथा अपशिष्ट पदार्थों आदि का शुद्धीकरण आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए।
  4. विभिन्न प्रदूषकों को समुद्री जल में मिलने से रोका जाना चाहिए।
  5. समुद्र के जल में परमाणु विस्फोट नहीं किया जाना चाहिए।
  6. झीलों, तालाबों आदि में शैवाल जैसे जलीय पौधे उगाए जाने चाहिए, ताकि जल को शुद्ध रखा जा सके।
  7. मृत जीवों, जले हुए जीवों की राख आदि को नदियों में प्रवाहित नहीं करना चाहिए। .
  8. खेतों में तथा जल में कीटाणुनाशक दवाओं का कम-से-कम प्रयोग किया जाना चाहिए।
  9. स्वच्छ जल 3 रुपयोग को रोका जाना चाहिए।
  10. ग्राम से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक समितियों का गठन किया जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
मृदीय (मृदा) प्रदूषण का अर्थ, स्रोत एवं प्रभाव बताइए। मृदीय प्रदूषण की रोकथाम के| लिए क्या उपाय अपनाए जाने चाहिए? उत्तर

मृदीय प्रदूषण

अर्थ- प्रदूषित जल तथा वायु के कारण मृदा भी प्रदूषित हो जाती है। वर्षा आदि जल के साथ ये प्रदूषक पदार्थ मृदा में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त, जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ अधिक फसल उगाने के लिए भूमि की उर्वरता बढ़ाने या बनाए रखने के लिए उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ आदि फसलों पर छिड़के जाते हैं। ये सब पदार्थ मृदा के साथ मिलकर उसमें हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। इसी को ‘मृदीय प्रदूषण’ कहते हैं। स्रोत–काफी मात्रा में ठोस अपशिष्ट पदार्थ (wastes) घरों से बाहर फेंक दिए जाते हैं। सब्जियों के शेष भाग, पैकिंग का व्यर्थ समान, डिब्बे, कागज के टुकड़े, कोयले की राख, धातु, प्लास्टिक, चीनी व मिट्टी के बर्तन आदि कूड़े के ढेर बनते हैं। प्रभाव–राष्ट्रीय प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव हो सकते हैं

  1. गन्दे स्थान अनेक जीव-जन्तुओं; चूहे, मक्खियों, मच्छरों आदि रोगवाहकों; के रहने तथा बढ़ने के | स्थान बन जाते हैं तथा मनुष्यों व पशुओं में रोग उत्पन्न करते हैं।
  2. खानों-दानों आदि की मृदा में अनेक प्रदूषक पदार्थ पाए जाते हैं। ये पदार्थ विषैले होते हैं, जो पौधों के प्ररीर में एकत्रित होकर बाद में मनुष्य तथा पशुओं के शरीर में पहुँचकर रोग उत्पन्न कर देते हैं।
  3. अनेक उद्योग; जैसे–लुगदी व कागज मिल, तेलशोधक कारखाने, रासायनिक खाद के कारखाने, लोहा व इस्पात कारखाने, प्लास्टिक व रबड़ संयन्त्र आदि मृदा प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं।
  4. रेडियोधर्मी पदार्थ मृदा में पहुँचकर अनेक प्रकार से हानियाँ पहुँचाते हैं। इनसे पौधे नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त पौधों द्वारा अनेक हानिकारक पदार्थ मनुष्यों तथा जीवों में पहुँचते हैं और भयंकर

रोग उत्पन्न करते हैं।

रोकथाम के उपाय-मृदीय प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जाने चाहिए

  1. घरेलू अपशिष्टों, वाहित मल आदि का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। इस कार्य का प्रबन्ध समितियों द्वारा होना चाहिए।
  2. परमाणु विस्फोटों पर रोक लगाई जानी चाहिए। परमाणु संस्थानों से होने वाले रिसाव को रोकने के | लिए समुचित उपाय किए जाने चाहिए।
  3. कृषि के अपशिष्ट, गोबर आदि कार्बनिक पदार्थों का विसर्जन हानिकारक विधियों द्वारा नहीं कियाजाना चाहिए। इनका प्रयोग अधिक ऊर्जा उत्पादन तथा उचित खाद के उत्पादन के लिए किया जा सकता है।
  4. उद्योगों के लिए निश्चित किया जाए कि वे अपने अपशिष्टों के निष्कासन के लिए ऐसी योजनाएँ बनाएँ कि वे जल, वायु तथा मृदा को हानि न्यूनतम स्तर पर ही पहुंचा सकें।

प्रश्न 5.
आर्थिक विकास पर पर्यावरण प्रदूषण के दुष्प्रभाव बताइए।
उत्तर
पर्यावरणीय समस्याएँ आज हम सभी के लिए चिन्ता का विषय हैं। मनुष्य को अच्छे स्वास्थ्य एवं सुखे जीवन के लिए इनकी ओर आवश्यक ध्यान देना चाहिए। पर्यावरणीय संरक्षण का मूलभूत लक्षणे प्राकृतिक संसाधनों के मानवीय उपयोग के प्रबन्ध से है, ताकि वे वर्तमान पीढ़ी के लिए दीर्घकालीन लाभ प्रदान कर सकें और साथ ही भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए तैयार रहें।

विकासे हमारे लिए अति आवश्यक है। विकास न केवल देश को आर्थिक समृद्धि की ओर ले जाएगा। अपितु विकास के कारण देश का सन्तुलित आर्थिक विकास सम्भव होगा और देश में आर्थिक और सामाजिक विषमताएँ कम होंगी। अतः पर्यावरणीय समस्याओं के कारण विकास कार्यों को धीमा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। वास्तव में, विकास कार्यों में पर्यावरणीय समस्याओं का अध्ययन एवं उम्बित समय पर उनका निदान करके ही प्रत्येक क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति सम्भव है।

पर्यावरणीय सुरक्षा एवं पारिस्थितिक सन्तुलन यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं कि विकास कार्यक्रम लम्बे समय तक अनवरत गति से चलते रहें। भारी, मध्यम एवं लघु उद्योगों के संयोजन पर आधारित विविधतापूर्ण औद्योगिक ढाँचे की स्थापना तथा देश में बढ़ती हुई शहरी एवं ग्रामीण जनसंख्या के परिणामस्वरूप वायु, जल एवं भू-संसाधनों पर दबाव बढ़ा है, जिसके कारण वायु तथा जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है। चिमनी से उड़ती राख, फॉस्फोजिप्सम तथा झोंका भट्ठी के धातु अपशिष्ट जैसे ठोस कचरे को भण्डारण, कचरे का ढेर लगाना एवं उसका निपटान करना; औद्योगिक क्षेत्र में प्रमुख समस्या बन गए हैं। रसायन एवं पेट्रो-रसान उद्योगों के विकास के पीछे जहरीले, ज्वलनशील एवं विस्फोटक रसायनों को विनियमित करने की समस्या भी जटिल होती जा रही है। अधिकांश उद्योग दूषित जल को नदियों एवं जलमार्गों में पर्याप्त शोधन के बिना ही छोड़ देते हैं। औद्योगिक अवशिष्टों का स्राव आसानी से घुलनशील नहीं होता है और नदियाँ भी इसे प्राकृतिक रूप से आत्मसात नहीं कर पाती हैं। इसके परिणामस्वरूप जल तत्त्व प्रदूषित ही रह जाते हैं और जनस्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। 17 राज्यों में द्वितीय श्रेणी के 241 नगरों में केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, आपूर्ति किया गया 90% जल गन्दा होता है। अपर्याप्त सफाई की समस्या भी गम्भीर है। औद्योगिक प्रदूषण को प्रमुख भाग अवशिष्ट पदार्थों के रूप में है।

उद्योगों और सड़क पर चलने वाले मोटर वाहनों द्वारा प्रतिदिन हजारों टन प्रदूषक पदार्थों का वायु में उत्सर्जन किया जाता है। वाहनों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण पदार्थ अधिक घातक सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनसे जनता का नजदीकी सम्पर्क रहता है और शहरों में ऊँचे-ऊँचे भवनों के कारण उनका प्रकीर्णन नहीं हो पाता है। पुराने इंजन, पुराने वाहन, भीड़-भाड़ वाला यातायात, खराब दशा वाली सड़कें तथा घटिया किस्म का ईंधन वायु प्रदूषण को और भी बढ़ा देते हैं। कोयले पर आधारित तापीय संयन्त्र सल्फर डाइ-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि गैंसे उत्सर्जित करके वातावरण को प्रदूषित करते हैं।, जिसके कारण तेजाबी वर्षा होती है, जो क्षेत्र की मिट्टी, वनस्पति एवं जल-जीवों के जीवन को नष्ट करती है, जिससे बड़ी मात्रा में समाज का अहित होता है। इसके अतिरिक्त, खनन उद्योग भी आस-पास के क्षेत्र में वायु और जल को प्रदूषित कर रही है। खननों के वास्तविक प्रचलनों के अलावा खानों से निकला अपशिष्ट पदार्थ और इनके ढेर, खेतों एवं सम्पत्ति को नष्ट करते हैं। खुदाई से भूमिगत जल के स्रोत भी दूषित हो जाते हैं। खानों से बन्दरगाहों और रेलवे स्टेशनों के लिए लौह-अयस्कों की ढुलाई से प्रत्येक स्थान; यथा-वायु में, घरों में तथा खाना पकाने के बर्तनों; पर धूल की एक परत जम जाती है।

मुख्य रूप से बड़े शहरों में ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। वहाँ यातायात तथा वायुयानों का शोर मानव स्वास्थ्य एवं श्रवण शक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करता है और शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के तनाव उत्पन्न करता है। व्यापक स्तर पर गरीबी के साथ-साथ बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है, जिससे पर्यावरण का स्तर विकृत हुआ है। वन संसाधनों की चराई, व्यापारिक एवं घरेलू आवश्यकताओं हेतु अधिक उपयोग के दूसरे तरीकों, अतिक्रमणों, कृषि जैसी अस्थायी पद्धतियों और विकासात्मक क्रिया-कलापों के कारण खतरा बढ़ गया है। देश की नाजुक पारिस्थितिक प्रणालियों को भी दबाव का सामना करना पड़ रहा है। मूंगे की चट्टानें, जो समुद्रीय पारिस्थितिक प्रणालियों की बहुत ही उत्पादनकारी प्रणाली है, पर भी चूने के उत्पादन, मनोरंजक वस्तुओं के उपयोग और आभूषण सम्बन्धी व्यापार के कारण हुए अन्धाधुन्ध दोहन से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। 6,700 वर्ग किमी कच्छ वनस्पति क्षेत्र, मछली पकड़ने, भूमि तथा समुद्र के बीच के स्थान के उपयोग में परिवर्तन और जल प्रदूषण, जोकि समुद्री जहाजों एवं तटीय तेलशोधक कारखानों से तेल के रिसाव,

घरेलू गन्दगी तथा औद्योगिक बहि:स्राव के गलत दिशा परिवर्तन से होता है, के कारण जैविक दबाव क्षेत्र बन गया है। संक्षेप में, आर्थिक विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत कृषि एवं औद्योगिक विकास, परिवहन के साधनों के विकास, विद्युत एवं परमाणु शक्ति के विकास आदि के कारणों ने पर्यावरणीय प्रदूषण को बढ़ाया है, जिससे मानव जीवन का अस्तित्व (आर्थिक विकास का मुख्य लक्ष्य है–मानव-कल्याण में वृद्धि) ही खतरे में पड़ गया है। अतः आर्थिक विकास के लाभ तभी तक उपादेय हैं, जब तक पर्यावरण संरक्षित है, इसलिए आर्थिक विकास कार्यक्रमों में पर्यावरण संरक्षण को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। वास्तव में,आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण एक-दूसरे से परस्पर सम्बद्ध हैं।

प्रश्न 6.
पर्यावरण सुरक्षा से क्या अभिप्राय है? यह क्यों आवश्यक है? भारत सरकार ने इसके लिए क्या उपाय किए हैं? अथवा पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयासों का वर्णन| कीजिए।
उत्तर

पर्यावरण संरक्षण (सुरक्षा) का अर्थ

प्राकृतिक आपदाओं से बचने का एकमात्र उपाय पर्यावरणीय संरक्षण है। पर्यावरणीय संरक्षण से आशय है-पर्यावरणीय संसाधनों; यथा-भूमि, जल, खनिज, वन, ऊर्जा व जीव-जन्तुओं आदि; का न्यूनतम उपयोग करके अधिकतम लाभ प्राप्त करना अर्थात् उन्हें कम-से-कम हानि पहुँचाना। एली के शब्दों में, “पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण वर्तमान पीढ़ी का भावी पीढ़ी के लिए त्याग है।” मैकनाल के शब्दों में-“पर्यावरणीय संरक्षण से आशय प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार उपयोग करने से है, जिससे मानव जाति की आवश्यकताओं की पूर्ति सर्वोत्तम रीति से कर सके और ऐसा तब ही हो सकता है, जबकि वर्तमान एवं भविष्य की सम्भावित आवश्यकताओं में सन्तुलन रखा जाए। संक्षेप में, पर्यावरणीय संरक्षण से आशय पर्यावरणीय संसाधनों को ऐसे विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करना है, ताकि अधिकतम समय तक, अधिकतम लोगों के, अधिकतम हित में उनका उपयोग किया जा सके।
पर्यावरणीय संरक्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं|

  1. पर्यावणीय संसाधनों की आवश्यकता अपव्ययता को रोकना।
  2. भावी उपयोग के लिए संसाधनों की बचत करना।।
  3. संसाधनों को योजनाबद्ध एवं विवेकपूर्ण रीति से उपयोग करना।

पर्यावरणीय संरक्षण की आवश्यकता- पर्यावरण का, जिसमें मानव रह रहा है, अपने सभी जैवीय तथा अजैवीय घटकों के साथ समन्वित, समरस तथा सन्तुलित रहना आवश्यक है। वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता तथा महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

  1. इसके द्वारा पर्यावरणीय असन्तुलन के विनाशकारी प्रभावों से बचा जा सकता है। ,
  2. पर्यावस्ण को हमारी शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य तथा मन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक संसाधन जितने स्वच्छ व निर्मल होंगे, हमारा शरीर और मन भी उतना ही स्वच्छ एवं निर्मल होगा, इसलिए गुरु चरक ने कहा था-“स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध वायु, जल और मिट्टी आवश्यक कारक हैं।”
  3. राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छता पर निर्भर करती है।
  4. जैवीय विकास के पर्यावरण एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  5. देश के आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण की सुरक्षा आवश्यक है।
  6. औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने प्रदूषण की गम्भीर समस्या को उत्पन्न किया है। जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, एवं ध्वनि प्रदूषण की समस्याओं ने तो मानव के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी है।
  7. रासायनिक एवं आणविक अपघटकों ने ओजोन की परत में छेद करके सम्पूर्ण विश्व को ही त्रस्त कर दिया है।

संक्षेप में, वर्तमान शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बन गई है-पर्यावरण की सुरक्षा साथ ही मनुष्य को शुद्ध जल, वायु और भोजन प्रदान करना।

पर्यावरण संरक्षण हेतु सरकारी प्रयास

पर्यावरण संरक्षण के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने लगभग 30 कानून बनाए हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कानून हैं-जल (प्रदूषण निवारण और नियन्त्रण) अधिनियम 1974 ई० वायु (प्रदूषण और निवारण) अधिनियम, 1981 ई०; फैक्ट्री अधिनियम, कीटनाशक अधिनियम आदि। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन का दायित्व केन्द्रीय एवं राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड कारखानों के मुख्य निरीक्षक और कृषि विभागों के कीटनाशक निरीक्षकों पर है। पर्यावरण संरक्षण के सम्बन्ध में सरकारी प्रयासों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
(1) पर्यावरण संगठनों का गठन- चौथी योजना के प्रारम्भ में सरकार का ध्यान पर्यावरण सम्बन्धी 
समस्याओं की ओर आकर्षित हुआ। इस दृष्टि से सरकार ने सर्वप्रथम सन् 1972 ई० में एक पर्यावरण समन्वय समिति का गठन किया। जनवरी 1980 ई० में एक अन्य समिति का गठन किया गया, जिसे विभिन्न कानूनों तथा पर्यावरण को बढ़ावा देने वाले प्रशासनिक तन्त्र की विवेचना करने और उन्हें सुदृढ़ करने हेतु संस्तुतियाँ देने का कार्य सौंपा गया। इस समिति की ही संस्तुति पर सन् । 1980 ई० में पर्यावरण विभाग की स्थापना की गई। परिणामस्वरूप पर्यावरण के कार्यक्रमों के आयोजन, प्रोत्साहन और समन्वयन के लिए सन् 1985 ई० में पर्यावरण वन्य और वन्य-जीवन मन्त्रालय की स्थापना की गई।

(2) जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण – केन्द्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियन्त्रण बोर्ड; जल और वायु प्रदूषण के मूल्यांकन, निगरानी और नियन्त्रण की शीर्षस्थ संस्था है। जल (1974 ई०) और वायु (1981 ई०) प्रदूषण निवारण और नियन्त्रण कानूनों तथा जल उपकर अधिनियम (1977 ई०) को लागू करने को उत्तरदायित्व केन्द्रीय बोर्ड पर और राज्यों में गठित बोडों पर है।

(3) केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण– सरकार ने सन् 1985 ई० में केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना की थी। गंगा सफाई कार्ययोजना का लक्ष्य नदी में बहने वाली मौजूदा गन्दगी की निकासी करके उसे किसी अन्य स्थान पर एकत्र करना और उपयोगी ऊर्जा स्रोत में परिवर्तित करने का है। इस योजना में निम्नलिखित कार्य शामिल है-

  1. दूषित पदार्थों की निकासी हेतु बने नालों और नालियों को नवीनीकरण।
  2. अनुपयोगी पदार्थों तथा अन्य दूषित द्रव्यों को गंगा में जाने से रोकने के लिए नए रोधक नालों का निर्माण तथा वर्तमान पम्पिंग स्टेशनों और जल-मल संयन्त्रों का नवीनीकरण।
  3. सामूहिक शौचालय बनाना, पुराने शौचालयों को फ्लश में बदलना, विद्युत शवदाह गृह बनवाना तथा गंगा के घाटों का विकास करना।
  4.  जल-मल प्रबन्ध योजना का आधुनिकीकरण।

(4) अर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 ई०— यह अधिनियम 19 नवम्बर, 1986 ई० से लागू हो गया है। इस अधिनियम की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं
(अ) केन्द्र सरकार को प्राप्त अधिकार

  1. पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण के लिए सभी आवश्यक कदम उठाना।
  2. पर्यावरण सुरक्षा से सम्बन्धित अधिनियमों के अन्तर्गत राज्य सरकारों, अधिकारियों और प्राधिकारियों के काम में समन्वय स्थापित करना।।
  3. पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियन्त्रण और उपशमन के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना।
  4. पर्यावरण प्रदूषण के नि:सरण के लिए मानक निर्धारित करना।
  5. किसी भी अधिकारी का प्रवेश, निरीक्षण, नमूना लेने और जाँच करने की शक्ति प्रदान ।करना।
  6. पर्यावरण प्रयोगशालाओं की स्थापना करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना।
  7. सरकारी विश्लेषकों को नियुक्त करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना।।
  8. पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना।
  9. दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए रक्षोपाय निर्धारित करना और दुर्घटनाएँ लेने पर उपचारात्मक कदम उठाना।
  10. खतरनाक पदार्थों के रख-रखाव/सँभालने आदि की प्रक्रियाएँ और रक्षोपाय निर्धारित करना। कुछ ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सकें।

(ब) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि निर्धारित प्राधिकरणों को 60 दिन की सूचना देने के बाद इस अधिनियम के उपबन्धों का उल्लघंन करने वालों के विरुद्ध न्यायालय में शिकायत कर दे।
(स) अधिनियम के अन्तर्गत किसी भी स्थान को प्रभारी व्यक्ति किसी दुर्घटना आदि के 
फलस्वरूप प्रदूषणों का रिसाव निर्धारित मानक से अधिक होने या अधिक रिसाव होने की आशंका पर उसकी सूचना निर्धारित प्राधिकरण को देने के लिए बाध्य होगा।
(द) अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के लिए अधिनियम में कठोर दण्ड देने की व्यवस्था
(य) इस अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले मामले दीवानी अदालतों के कार्य-क्षेत्र में नहीं आते।

(5) अन्य योजनाएँ- उपर्युक्त के अतिरिक्त शासकीय स्तर से किए गए कुछ अन्य प्रयास निम्नलिखित हैं|

  1. राष्ट्रीय पारिस्थितिकी बोर्ड (1981 ई०) की स्थापना।
  2. विभिन्न राज्यों में जीवमण्डल भण्डारों की स्थापना।
  3. सिंचाई भूमि स्थलों के लिए राज्यवार नोडल एकेडेमिक रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना।
  4. राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड (1985 ई०) की स्थापना।
  5. वन नीति में संशोधन।
  6. राष्ट्रीय वन्य-जीवन कार्ययोजनाओं का आरम्भ।
  7. अनुसन्धान कार्यों के लिए निरन्तर प्रोत्साहन।।
  8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
  9. प्रदूषण निवारण पुरस्कारों की घोषणा।।
  10. 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।

प्रश्न 7.
धारणीय विकास का अर्थ एवं इसकी आवश्यकताएँ बताइए। भारत में धारणीय विकास की| रणनीति भी समझाइए।
उत्तर
धारणीय विकास का अर्थ धारणीय विकास वह प्रक्रिया है जो आर्थिक विकास के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दीर्घकालीन शुद्ध लाभों को वर्तमान तथा भावी पीढ़ी दोनों के लिए अधिकतम करती है। यह भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता को बिना कोई हानि पहुँचाए वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करती है।

यू०एन०सी०ई०डी० के अनुसार-“धारणीय विकास से आशय ऐसे विकास से है जो वर्तमान पीढ़ी। की आवश्यकताओं को भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति क्षमता के समझौता किए बिना पूरी करें।”

यू०एन०सी०ई०डी० की रिपोर्ट ‘अवर कॉमन फ्यूचर’ के अनुसार-“धारणीय विकास विकासको वह प्रक्रिया है जो सभी की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति और एक अच्छे जीवन की आकांक्षाओं की सन्तुष्टि के लिए सभी को अवसर प्रदान करती है।” एडवई बारबियर के अनुसार-“धारणीय विकास से आशय बुनियादी स्तर पर गरीबों के जीवन के भौतिक मानकों को ऊँचा उठाना है जिसे आय, वास्तविक आय, शैक्षिक सेवाएँ, स्वास्थ्य देखभाल, सफाई, जलापूर्ति इत्यादि के रूप में परिमाणात्मक रूप से मापा जा सकता है।”

रॉबर्ट रेपीट के अनुसार- “धारणीय विकास का अर्थ विकास की वह रणनीति है जो सभी प्राकृतिक, मानवीय, वित्तीय तथा भौतिक साधनों का सम्पत्ति तथा आर्थिक कल्याण में वृद्धि करने के लिए प्रबन्ध करती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर धारणीय विकास की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. आर्थिक संवृद्धि एवं प्रति व्यक्ति आय में दीर्घकालीन वृद्धि होनी चाहिए।
  2. प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण एवं कुशलतापूर्वक शोषण किया जाना चाहिए।
  3. उपलब्ध संसाधनों का उपयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि भावी पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने की योग्यता में कमी न हो।
  4. ऐसे कार्य न किए जाएँ जो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाते हैं तथा भावी पीढ़ी की गुणवत्ता को कम करते हैं। 

धारणीय विकास की आवश्यकताएँ

धारणीय विकास की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित आवश्यकताएँ हैं

  1. मानव जनसंख्या की पर्यावरण की धारण क्षमता के स्तर तक स्थिर करना होगा।
  2. प्रौद्योगिक प्रगति आगत-निपुण हो, न कि आगत उपभोगी।
  3. किसी भी स्थिर्सि में नव्यकरणीय संसाधनों की निष्कर्षण की दर पुनर्सेजन की दर से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  4. गैर-नवीकरणीय संसाधनों की अपक्षय दर नवीनीकृत प्रतिस्थापकों से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  5. प्रदूषण के कारण उत्पन्न अक्षमताओं को सुधार किया जाना चाहिए।

भारत में धारणीय विकास की रणनीतियाँ

धारणीय विकास रणनीति के मुख्य बिन्दु निम्न प्रकार हैं

  1. अपनी विद्युत आवश्यकताओं के लिए ऊर्जा के गैर-परम्परागत साधनों का अधिकाधिक उपयोग | करना। थर्मल पावर संयन्त्र और जलविद्युत परियोजनाएँ पर्यावरण को हानि पहँचाते हैं जबकि ऊर्जा के गैर-परम्परागत साधनों का पर्यावरण पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में तरल पेट्रोलियम गैस (LPG) के प्रयोग को प्रोत्साहन देना। इसके अतिरिक्त गोबर गैस संयन्त्रको प्रोत्साहन दिया जाए।
  3. शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में उच्च दाब प्राकृतिक गैस (CNG) को बढ़ावा देना। इससे वायु प्रदूषण कम होगा।
  4. पवनचक्की से ऊर्जा प्राप्त करना। इसमें लागत कम आती है।
  5. सूर्य किरणों से सौर-ऊर्जा प्राप्त करना। यह ऊर्जा का अक्षय स्रोत है।
  6. पहाड़ी क्षेत्रों में झरनों की सहायता से लघु जलीय प्लाण्ट स्थापित करना।
  7. विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में पारम्परिक ज्ञान का प्रयोग करना।
  8. जैविक कम्पोस्ट खाद के प्रयोग को प्रोत्साहन देना।
  9. बेहतर कीट नियन्त्रक तरीकों को अपनाना। कीट नियन्त्रण में सहायक विभिन्न कीटों व पक्षियों को संरक्षण देना।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 9 Environment and Sustainable Development (पर्यावरण और धारणीय विकास).

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *